राहुल की पिछड़े वर्गों संबंधी रणनीति को समझने की ज़रूरत

भाजपा के एक बड़बोले नेता (निशिकांत दुबे) ने कहा है कि राहुल गांधी को कुछ नहीं आता है, और विपक्षी दल मूर्खों के झुंड की तरह हैं। वैसे तो नेताओं को इस तरह की बातें नहीं बोलनी चाहिए, खासतौर से तब जब अभी साल भर पहले इन्हीं राहुल गांधी और विपक्षी दलों ने नरेंद्र मोदी से बहुमत छीना था। मैं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से सहमत हूँ कि अगर केवल 20-25 सीटें कम मिलतीं तो भाजपा को सत्ता में आने से रोका जा सकता था। निश्चित रूप से भाजपा पिछला चुनाव हारने से कुछ कदम ही दूर रह गई थी। भाजपा ऐसे नेताओं को लग रहा है कि हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनाव जीत कर उसने लोकसभा चुनाव में लड़खड़ाने की भरपायी कर ली है। वे भूल रहे हैं कि 2024 के चुनावों से पहले भाजपा ने तीन राज्यों को ज़बरदस्त ढंग से जीता था। पर जैसे ही लोकसभा चुनाव का माहौल बना, वैसे ही अचानक केंद्र के खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी दिखाई देने लगी। मोदी और उनके रणनीतिकार इस एंटीइनकम्बेंसी को नियंत्रित कर पाने में विफल रहे। उनका ग्राफ लगातार गिरा, और बड़े-बड़े दावों के बावजूद वे गठजोड़ सरकार बनाने पर मजबूर हो गये। उन्हें यह नहीं दिख रहा है कि राहुल गांधी अपना एक-एक कदम लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में उठा रहे हैं। उन्हें राज्यों के चुनाव में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। उनके हाल के वक्तव्यों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।  
चुनावी राजनीति में हर कामयाब पार्टी के पास बुनियादी जनाधार के रूप में एक शुरुआती पूंजी होती है। उसका प्रयास रहता है कि वह उस स्थायी जमा-पूंजी को सहेज कर रखे ताकि समाज के अन्य छोटे-बड़े हिस्सों को उसके साथ जोड़ कर बहुमत पाने लायक वोट हासिल कर सके। मसलन, भाजपा को वैसे तो समाज के सभी तबकों के कुछ न कुछ वोट मिलते हैं, लेकिन समझा जाता है कि ऊंची जातियों के वोटर उसका बुनियादी जनाधार हैं। इसी तरह समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल को यादव और मुसलमान वोटरों पर टिकी पार्टियों के तौर पर देखा जाता है। बसपा के कुछ बुरे दिन चल रहे हैं, पर वह आज भी जाटव समाज के समर्थन पर टिकी हुई है। जगनमोहन रेड्डी की पार्टी मुख्य तौर पर रेड्डियों, चंद्रबाबू नायडू की पार्टी ककूमनूओं और देवगौड़ा की पार्टी वोक्कालीगियों (गौड़ा, हैगड़े, शैटी व रैडी)  आदि जातों की पार्टी मानी जाती है। चुनावी प्रतियोगिता की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह किसी पार्टी को अपना बुनियादी जनाधार बदलने की गुंज़ाइश नहीं देती। इसलिए यह देख कर आश्चर्य होता है कि भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में अपने बुनियादी जनाधार में एक बड़ा संशोधन करने की एक संकल्पबद्ध कोशिश करते हुए दिखाई दे रही है। 
राहुल गांधी का हालिया बयान कांग्रेस के इस इरादे की एक बार फिर पुष्टि करता है। वे कांग्रेस को ओबीसी मतदाताओं के लिए आकर्षक बनाना चाहते हैं। प्रश्न यह है कि क्या हमें इसमें कांग्रेस की एक राजनीतिक विडम्बना देखनी चाहिए? या, यह भले ही अल्पकालीन ़फायदा पहुंचाने वाली न हो, लेकिन क्या इसे एक दृष्टिकोण वाली रणनीति के  तौर पर देखा जा सकता है? यहीं इस रणनीति के एक और पक्ष से जुड़ा सवाल पूछना ज़रूरी है। क्या कांग्रेस ओबीसी वोट ़खुद अपने लिए चाहती है, या फिर वह भाजपा को ओबीसी वोट मिलने से रोकने के लिए सामाजिक न्याय का नारा बुलंद कर रही है? 
भारतीय राजनीति पर अपने वर्चस्व के लम्बे दौर में कांग्रेस ने उत्तर और मध्य भारत में ओबीसी वोटों की कोई ़खास परवाह कभी नहीं की। एक तरह से वह समाज के इस बहुसंख्यक तबके को ़गैर-कांग्रेसी पार्टियों की गोलबंदी के लिए साठ के दशक से ही छोड़ती रही है। हम जानते हैं कि इस दशक में जब राममनोहर लोहिया उत्तर प्रदेश और बिहार में यादव समाज को अपनी ओर खींच रहे थे, और दूसरी तरफ दीनदयाल उपाध्याय लोदी और काछी समाज के लिए जनसंघ को आकर्षक बनाने के प्रयास कर रहे थे, उस समय भी कांग्रेस विपक्ष की इस योजना को नाकाम करने की कोई कोशिश करती हुई नहीं दिखाई दे रही थी। कांग्रेस का काम दलित (हरिजन), मुसलमान और ऊंची जातियों के वोटरों से ब़खूबी चल रहा था। चुनाव-दर-चुनाव वह इस आधार पर खड़े होकर चालीस प्रतिशत से ज्यादा वोटों की गोलबंदी करने में कामयाब थी। जैसे-जैसे राजनीति का कारवां आगे बढ़ा, जनता दल के गर्भ से कई ओबीसी-प्रधान दलों ने जन्म लिया और विभिन्न प्रदेशों की राजनीति में निर्णाय भूमिका निभाने लगे। लम्बे समय तक सत्ता में रहने के बाद जब इन दलों के ग्राफ में गिरावट आई तो इसका लाभ भाजपा को मिला जो ओबीसी वोटों को ऊंची जातियों के अपने जनाधार से जोड़ने के राष्ट्रीय और विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य के साथ राजनीति कर रही थी। 2014 में जब भाजापा को पहली बार स्पष्ट बहुमत मिला, तो उसमें ओबीसी-प्रधान पार्टियों की गिरावट और भाजपा की तरफ गये ओबीसी वोटों की निर्णायक भूमिका रही। 
ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में पहली बार भाजपा के उत्थान से जुड़े इस पहलू को समझने की कोशिश की है। उनके द्वारा जातिगत जनगणना और ओबीसी-फोकस इसी का परिणाम लग रहा है। राहुल जानते हैं कि उत्तर और मध्य भारत में ओबीसी वोटों की मुख्य दावेदार पार्टियां ‘इंडिया गठबंधन’ में उनकी पार्टनर हैं। दरअसल, वे इन पार्टियों से न तो ओबीसी वोट छीन सकते हैं, और न ही छीनना चाहते हैं। जहां ये पार्टियां नहीं है, वहां कांग्रेस स्वयं ओबीसी वोटरों की दावेदार है और आगे भी बन सकती है। कर्नाटक एक ऐसा ही प्रांत है। वहां कांग्रेस अहिंदा रणनीति पर चलती है जो ओबीसी-प्रधान है। गुजरात में कांग्रेस माधव सिंह सोलंकी के ज़माने से ही क्षत्रिय कहे जाने वाले ओबीसी वोटरों की गोलबंदी करती रही है। लेकिन राहुल गांधी जानते हैं कि अगर वे उत्तर और मध्य भारत में भाजपा की झोली से ओबीसी वोटरों को पूरी तरह या आंशिक रूप से अलग करने में कामयाब हो जाएं, तो सपा और राजद जैसे उनके पार्टनर भाजपा को अच्छी खासी पराजय रसीद कर सकते हैं। इससे कांग्रेस को भी ़खासा लाभ हो सकता है। पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के मतदाता इस तरह के परिणाम की एक बानगी दिखा चुके हैं। दरअसल, कांग्रेस भाजपा के मुख्य प्रभाव-क्षेत्र में दिखाना चाहती है कि भाजपा ओबीसी वोट तो लेती है, लेकिन बदले में इन समुदायों को दिया गया उसका आश्वासन पूरा नहीं किया जाता। कांग्रेस का तर्क है कि समरसता और हिंदू एकता का प्रोजेक्ट कुल मिला कर सत्ता पर ब्राह्मण-बनिया-ठाकुर-भूमिहार-कायस्थ प्रभुत्व कायम रखना चाहता है। चूंकि अब भाजपा को भी सत्ता में 11 वर्ष पूरे हो चुके हैं, इसलिए कांग्रेस को लगता है कि ओबीसी समुदाय हिंदुत्व के तहत सत्ता और सशक्तिकरण में अपनी साझेदारी के प्रति तरह-तरह के संदेहों से दो-चार हो रहे होंगे। अगर राहुल का यह आकलन सही है तो उनकी रणनीति अगले तीन-चार साल में राजनीति का खेल पलट सकती है।  
   
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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