युवा वर्ग दबाव की भाषा नहीं जानता

नेपाल के युवा वर्ग ने केवल 24 घंटों में पॉवरफुल सत्ता को पलट कर रख दिया। पहले श्रीलंका और बांग्लादेश और अब नेपाल, तीनों भारत के करीबी देश हैं। प्रत्येक घटना के अलग कारण हो सकते हैं परन्तु चिन्ताजनक पैटर्न लगभग एक जैसा। कोई भी देश हो अब सत्ताधीशों को कठोर सत्य का सामना करने का समय आ गया है। सामने है कि जनता का गुस्सा जब रौद्र रूप धारण कर लेता है तो कुछ ही समय में सभी कुछ बदल जाता है। बड़े-बड़े भवन, गगनचुम्बी इमारतें, सुख-सुविधा से सम्पन्न आरामगाह देखते ही देखते राख में बदल जाती हैं। सड़कों पर तांडव, सरकारी इमारतों में आगजनी विनाश का संदेश लाती हैं। तूफान जल्दी कहीं थम नहीं जाता। जेलें रोक नहीं पातीं और कैदी उन्माद में भाग उठते हैं। युवा आक्रोश, एकाएक उकसाना मसलन इंटरनेट शटडाऊन, कठोर निर्णय या बुनियादी सेवाओं की समाप्ति और उस पर शासन की विफलता की माचिस। आग लगेगी ही। जब उपेक्षित युवा बेरोज़गार, अकुशल हाशिए पर छोड़ दिया जाए तो चीजें विस्फोटक हो सकती हैं। विडम्बना यह भी है कि आज़ादी के बाद भारत में जितना विकास हुआ है, पड़ोसी छोटे देश अनेक कारणों से वैसा नहीं कर पाये। लेकिन वहां की युवा पीढ़ी सभी कुछ देख रही है। सपने उनके भी भारतीय युवा पीढ़ी जैसे ही हैं, परन्तु गले पड़ा है असफलताओं का ढोल। इन आस-पास के देशों में चाहे वह पाकिस्तान हो या बांग्लादेश, श्रीलंका या नेपाल विकास का सपना दिखा कर सत्ताधारियों ने अपने घर भरे हैं। सत्ता का स्थायित्व भी इन देशों में न के बराबर रहा है या एक ही सत्ताधीश ने लम्बे समय तक राज किया और असंतोष से भरे लोगों का गुस्सा तूफान बनकर बाहर निकला। साफ है कि कहीं भी जब राजनीतिक अशांति की आशंका बढ़ जाती है तो बेचैन, डिजिटली कनेक्टेड युवा, भीड़ जुटाने वालों के लिए वरदान और कमजोर भ्रष्ट लीडरशिप के लिए अभिशाप बन जाते हैं। तीन कोणों से  वस्तुस्थिति को समझा जा सकता है। नेपाल के आधे-अधूरे लोकतांत्रिक प्रयोग और हिंसक विद्रोह का इतिहास, मोबाइल, मीडिया सेवी युवा टोले की संगठनात्मक ताकत। आन्दोलन सत्ता को कैसे उखाड़ फैकते हैं यह इतिहास को जानने वालों से छुपा हुआ नहीं है। नेपाल में 2008 तक राजाशाही थी। देश की राजनीति में अस्थिरता की लहरें थीं। 1996 से 2006 तक चले लम्बे माओवादी विद्रोह ने हज़ारों लोगों की बलि ले ली और शासन तथा जनता के रिश्तों में अंतराल बना रहा। इस इतिहास से निकल कर आया सेना और पुलिस अव्यवस्था के दिनों में कैसा रुख लेती हैं। राजनीतिज्ञ कलीन शासन का कैसा इस्तेमाल करते हैं। दु:ख में कंधे पर आकर कोई हाथ नहीं रखता, दूर से ही सन्देश दिए जाते हैं। बाज़ारवाद की हालत यह है कि आप मोबाइल खरीद सकते हैं, बदल भी सकते हैं, लेकिन रिश्ता न खरीदा जाता है, न बदला जाता है। ़खैर मुल्क कोई भी हो, सत्ताधीश को यह सोचना है कि विकास का अधिक से अधिक लाभ कितने अधिक लोगों को दिया जा सकता है और कैसे? उनके गुस्से को शांत रखने के लिए कौन से कदम उठाने अनिवार्य हैं। उनके क्षेत्र का विकास कैसे हो? मुफ्त की रेवड़ियों से यह काम नहीं हो सकता। एक स्पष्ट विकास नीति चाहिए जिसका लाभ वंचित तबके, वंचित क्षेत्र को भी मिल सके। चेतावनी सामने आ रही होती है परन्तु सत्ता का उपभोग उसे देखने नहीं देता और वह विस्फोट में बदल जाती है। 2024 में बांग्लादेश के आंदोलन में यह चेतावनी नज़र आई थी। उस घटना ने दिखा दिया कि एक छात्र आन्दोलन कितनी जल्दी राष्ट्रीय आन्दोलन में बदल जाता है। अगर सख्ती से उसे कुचलना चाहो तो समस्या और भी विकराल हो सकती है। 
 

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