पटाखों का मुद्दा फिर चर्चा में

दीपावली का त्योहार जैसे-जैसे निकट आ रहा है, आतिशबाज़ी और पटाखों को लेकर पक्ष-विपक्ष में चर्चायें एक बार फिर तेज़ होने लगी हैं। इन चर्चाओं के बीच देश के सर्वोच्च न्यायालय की ताज़ा टिप्पणी अधिक विचारणीय लगती है। शीर्ष अदालत ने आतिशबाज़ी पर अंकुश लगाने के साथ, इस पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध लगाए जाने से इन्कार किया है। भारत अनेक ऋतुओं, पर्वों, उत्सवों और त्योहारों का देश है। यहां यूं तो प्रत्येक ऋतु में कोई न कोई पर्व/त्योहार मनाया जाता रहता है, किन्तु रक्षा बन्धन के बाद दशहरा, करवा चौथ, दीपावली, भाई-दूज, विश्वकर्मा दिवस और वर्षांत में पावन गुरु-पर्व—त्योहारों की यह एक ऐसी शृंखला है जहां आतिशबाज़ी होना और पटाखे फोड़े जाना बहुत स्वाभाविक और आवश्यक परम्परा जैसा हो जाता है। दीपावली पर तो अरबों रुपये की राशि आतिशबाज़ी और पटाखों पर खर्च हो जाती है जबकि अन्य त्योहारों पर भी आतिशबाज़ी किया जाना अब जैसे सामान्य बात हो गई है। प्रत्येक उत्सव पर लाखों-करोड़ों रुपये के पटाखे चलते हैं। नतीजतन हवाओं में प्रदूषण और विषाक्त धुएं की मात्रा बढ़ जाती है जिससे श्वास और दमे से सम्बद्ध रोग उभरने लगते हैं। आतिशबाज़ी से प्रत्येक वर्ष आगज़नी और अन्य कई प्रकार की प्राण-घातक दुर्घटनाएं भी होती रहती हैं। हालत आज यह हो गई कि विगत में कभी खुशी मनाने, शौक और परम्परा-निर्वहन के तौर पर की जाने वाली यह आतिशबाज़ी आजकल प्राणी मात्र और धरती के अन्य जीव-जन्तुओं के लिए ़खतरे की अलामत सिद्ध होने लगी है। इसी कारण आतिशबाज़ी और पटाखों के विरुद्ध समाज के कुछ वर्गों में रोष और असन्तोष भी उभरने लगा है। सरकारों, मानवाधिकार संगठनों और यहां तक कि अदालतों की ओर से भी इस कुरूप होती परम्परा के विरुद्ध आवाज़ उठाई जाने लगी है।
इस विरोध-प्रदर्शन के दौरान बेशक समाज के एक वर्ग की ओर से पटाखों पर प्रतिबन्ध लगाये जाने की मांग भी उठी थी। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्वयं शीर्ष अदालत ने भी आतिशबाज़ी पर रोक लगाने और ग्रीन पटाखों की बिक्री हेतु प्रस्ताव दिया था, किन्तु अब इसी अदालत ने सामाजिक संदर्भ के अनेक पक्षों पर विचार करने के बाद, आतिशबाज़ी और पटाखों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाये जाने को स्वयं अस्वीकार कर दिया है। सर्वोच्च अदालत ने नि:संदेह इसी के दृष्टिगत इस मामले पर एक संतुलित और सर्व-स्वीकार्य दृष्टिकोण अपनाये जाने का सुझाव दिया है। अदालत के मुताबिक इस समस्या के अनेक पक्ष हैं, और कि किसी एक वर्ग से जुड़े पक्ष पर फैसला लेने से पूर्व सभी पक्षों पर समान रूप से विचार करना ज़रूरी होगा। अदालत की यह आशंका भी पूर्णतया निर्मूल नहीं है कि इस प्रतिबन्ध के बाद आतिशबाज़ी और पटाखों के निर्माण और इनकी बिक्री का पूरा मामला माफियाओं के हाथ चले जाने की भी बड़ी आशंका है। अदालत के इस तर्क में भी बड़ा दम है कि पटाखा निर्माताओं, विक्रेताओं और जन-साधारण-सभी के अपने-अपने अधिकार हैं। अत: कोई भी फैसला लेने से पूर्व सभी वर्गों के अधिकारों और दायित्वों का समान रूप से ध्यान रखा जाना चाहिए।
हम समझते हैं कि पटाखे फोड़ने और आतिशबाज़ी किये जाने से प्राणी वर्ग पर पड़ने वाले प्रभाव की बात के इतर, बच्चों और वरिष्ठ जनों के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। विषाक्त धुएं के कारण सृष्टि के अन्य जीव-जन्तु भी इसके नकारात्मक प्रभाव का शिकार होते हैं। पटाखों के विषाक्त धुएं और इनके विस्फोट की तीव्र ध्वनि से बच्चों की आंखों और कानों पर दुष्प्रभाव पड़ता है, और उनमें अन्धापन और बहरापन उपजने की आशंका बढ़ती है। ऐसी स्थिति में बेशक इन पर रोक अथवा अंकुश लगाये जाने की बात उचित प्रतीत होती है किन्तु इनके निर्माण और बिक्री के साथ वाबस्ता लाखों-करोड़ों लोगों की रोटी-रोज़ी का सवाल भी तो इसी से जुड़ा है। हम यह भी समझते हैं कि इस समस्या से निपटने के लिए, इससे जुड़े समाज और देश के सभी वर्गों के लोगों से बातचीत करके कोई एक अति संतुलित नीति निर्धारित किया जाना ही इसका एकमात्र समाधान हो सकता है। देश के सामाजिक और धार्मिक पक्ष के लोगों की बात सुना जाना भी बहुत ज़रूरी है। एक अच्छा पक्ष यह भी है कि प्रतिबन्ध की मांग करने वाले पक्ष, इस अलामत के विरुद्ध जन-साधारण में जागरूकता पैदा करने हेतु भी यथा- सम्भव प्रयास करें। हमारे उत्सव-पर्व, त्योहार यदि हमें प्रसन्नता मनाने का अवसर देते हैं, तो जिन महापुरुषों के जीवन से संबंधित ये त्योहार होते हैं, उनकी शिक्षाएं मनुष्य मात्र को सादगी, विनम्रता, संकोच और प्राणी-मात्र की रक्षा और सेवा का व्रत धारण करने की  प्रेरणा भी तो देती हैं। नि:संदेह इस हेतु एक सर्व-सम्मत नीति सर्व-स्वीकार्य कानून बनाया जाना भी बहुत ज़रूरी है।

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