कांग्रेस का घोषणा-पत्र क्या अगली सरकार का दिशा-पत्र है ?

कांग्रेस ने अपना चुनावी घोषणा-पत्र जारी कर दिया है और कहना चाहिए कि सचमुच इसमें कुछ तो ऐसा है जिससे भाजपा पूरी तरह से नहीं तो किसी हद तक असहज है। हालांकि भारतीय लोकतंत्र का यह इतिहास रहा है कि राजनीतिक पार्टियां कुछ भी वायदा करें मगर जरूरी नहीं है कि सरकार बनाने पर वे उन वायदों पर खरी भी उतरें या उतरने की कोशिश भी करें। शायद इसी वजह से देश में चुनावी घोषणा-पत्रों को मतदाताओं द्वारा गंभीरता से नहीं लिया जाता। लेकिन हाल फि लहाल में जिस तरह का दबाव विशेषकर बेरोजगारी और किसानों की आर्थिक स्थिति का बना है, उसके चलते यह मानना निरानिर संवेदनहीनता होगी कि आने वाली सरकारें घोषणा-पत्र को चुनाव जीतते ही हिंद महासागर में फेंक देंगी। 
अब ऐसा नहीं होगा क्योंकि सोशल मीडिया के इस दौर में लोगों की याद्दाश्त कितनी भी कम होती हो, मगर भाषणों और वायदों की वीडियो क्लिपें आसानी से न भूलती हैं न गायब होती हैं। वह रह रहकर हम सबके सामने आती रहती हैं। यही वजह है कि कांग्रेस के घोषणा-पत्र को देखकर भाजपा के वरिष्ठ नेता और सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली काफी विचलित हैं। सिर्फ  जेतली ही नहीं, पार्टी के रूप में भी भाजपा इस आशंका से घिर गई है कि कहीं ये लोक-लुभावन वायदे उसके भावुक राष्ट्रवाद पर भारी न पडं़े। इसलिए विशेषज्ञों का अनुमान है कि जल्द ही आने वाला भाजपा का घोषणा-पत्र किसी हद तक कांग्रेस के लोकलुभावन वायदों का विकल्प होगा। अगर विकल्प नहीं भी होगा तो भी अगर भाजपा की दोबारा से सरकार बनती है तो उसे अपने अगले पांच वर्षीय कार्यकाल में राहुल गांधी की कई घोषणाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सरकार का कामकाजी हिस्सा बनाना पड़ेगा।
बहरहाल, कांग्रेस के घोषणा-पत्र में जो बातें खास तौर पर अलग से नोटिस की जा रही हैं और जिन्होंने भाजपा सहित दूसरी पार्टियों को भी चिंता में डाला है, वे घोषणाएं हैं गरीबों के खाते में सालाना 72,000 रुपये डालना, देश में खाली पड़े सरकारी नौकरियों के 22 लाख से ज्यादा पदाें को भरना और आम आदमी के लिए कानूनी पेचीदगियों को आसान बनाना ताकि कानून उनका दयालु संरक्षक साबित हो, किताबी शुभचिंतक नहीं। कई राजनीतिक और आर्थिक विशेषज्ञों को लगता है कि कांग्रेस के घोषणा-पत्र में विश्वविख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की सोच की छाया है, जो व्यवहारिक कम आदर्शवादी ज्यादा हैं। हालांकि राहुल गांधी ने पूरे विश्वास से कहा है कि उनके साथियों ने व्यवहारिक घोषणा-पत्र तैयार किया है और जो उन्होंने इसमें घोषणाएं की हैं, उन सबको वह सरकार बनते ही जल्द से जल्द पूरा करेंगे। 
लेकिन चूंकि पिछले कई दशकों से घोषणा-पत्र एक गैर-जरूरी पोथन्ना की तरह रहे हैं, इसलिए यकीन नहीं होता कि इस पर व्यवहारिक अमल होगा। मगर यदि वाकई किसी भी तरह के राजनीतिक दबाव के चलते चाहे फिर वह अपने वैचारिक अस्तित्व के चलते पैदा हुआ दबाव ही क्यों न हो, यह लागू होता है तो इसमें कई दूसरी व्यवहारिक परेशानियां भी सामने आयेंगी। 
कहना आसान है कि अतिशय गरीब को 72000 रुपये सालाना मदद देकर गरीबों का रातों-रात उत्थान कर दिया जायेगा। लेकिन सच्चाई इतनी श्याम-श्वेत नहीं होगी। वास्तव में इस देश की गरीबी न खत्म होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि हम लगातार गरीबों को इस अवतारवादी आशा में गाफि ल रखते हैं कि कोई ऐसा दिलदार शासक आयेगा, जो उन्हें एक झटके में गरीबी से खींचकर अमीरी की रेखा के पार ले आयेगा। 
यह भी एक किस्म के झूठ का नशा है और कहीं न कहीं गरीबों के उस संबल को तोड़ने का काम करता है, जिसकी बदौलत वह खुद अपनी लड़ाई लड़ने की हिम्मत जुटा पायें। सुनने में भले यह बहुत आकर्षक लगता हो, लेकिन देश के वास्तविक 20 फीसदी सबसे गरीबों का चयन कभी भी ईमानदारी से संभव नहीं होगा। जैसे देश की तमाम सुविधाओं के मामले में पहुंच और पैसा खर्च करने वाले इनके लिए तय पात्रता को ऐनकेन प्रकारेण जुटा लेते हैं और वास्तविक पात्र अंधेरे में पड़े रह जाते हैं, वही सब 72000 रुपये की योजना में भी होगा। इससे गरीबों का भला भले संदिग्ध हो, लेकिन भ्रष्टाचार का परवान चढ़ना सुनिश्चित है। जहां तक 30 लाख सरकारी नौकरियां सृजित करने की बात है, जिसमें 20 लाख विभिन्न सरकारी पद और 10 लाख ग्राम पंचायतों में नौकरियों के विकास की बात है, अगर वास्तव में यह व्यवहारिक रूप से कर लिया जाए तो इससे देश का भला होने की बजाय और नुकसान होगा; क्योंकि सरकारी नौकरियों का बढ़ावा देने का मतलब है गैर-बराबरी को बढ़ावा देना।
आजादी के बाद के अब तक के इतिहास से हम सब इस बात को भली-भांति जानते हैं कि सरकारी महकमें बाजार के हिसाब से उत्पादक नहीं हैं। जबकि आम आदमी का जीवन बाजार द्वारा तय किये गये मूल्य से चलता है। आम आदमी को गैर-सरकारी नौकरियों में इसी के मूल्य के आधार पर पारिश्रमिक मिलता है। जबकि सरकारी कर्मचारियों पर उत्पादकता की कोई जिम्मेदारी नहीं है। सिर्फ  यही नहीं उनकी कार्य संस्कृति भी निराश करने वाली है। जबकि उन्हें वेतन सबसे अच्छा और सुनिश्चित है। वास्तव में इस विशेषता ने उन्हें यानी सरकारी कर्मचारियों को समाज का अभिजात्य वर्ग बना दिया है और इसलिए हर नौजवान हिंदुस्तानी के दिल में यह इच्छा जागृति कर दी है कि वह करे तो सरकारी नौकरी ही करे। सरकारी नौकरी को बढ़ावा देने का मतलब है देश को उद्यमिता और परिश्रम के बदौलत कमाने की सोच के संबंध में हतोत्साहित करना। फि र यह कौन भूल सकता है कि 30 लाख सरकारी कर्मचारियों को अगर देश के ऊपर बोझ की तरह लादा जायेगा तो यह बोझ अंतत: देश के आम लोगों को ही उठाना पड़ेगा। यह तभी न्यायसंगत हो सकता है जब सरकारी कर्मचारियों को उतना ही वेतन मिले जितना बाजार में निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए तय है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर