राष्ट्र-हित की भावना से ही होगा देश का विकास 

इतिहास के पन्नों में जहां भारत की गौरव गाथा दर्ज है, वहीं अतीत की राजनीति से वर्तमान की राजनीति का स्वरूप क्या है? और क्या होना चाहिए इसका आकलन भी निष्पक्ष रूप में अंकित है। कोई माने या न माने परंतु राजनीति की स्टीक व सार्थक परिभाषा यही है कि देश में काल व परिस्थितियों के आईने से यही परिभाषा उभर कर सामने आती है और अतीत में भी आती रही है कि राजनीति मोटे तौर पर व्याख्ति है कि किसी भी राष्ट्र के लिए आर्थिक नीति, विदेश नीति और राज करने पर नीति ही सार्थक राजनीति है। शासक कोई भी हो जनता के हितों को सर्वोपरि ध्वनि मत से स्वीकार किया जाता है। भारत मेरा देश है, जहां कभी डाल-डाल पर सोने की चिड़िया बसेरा करती थी और आज स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् राजनीति के स्वरूप में  जो परिवर्तन जनता जनार्दन के सामने वर्तमान तक आये हैं, वह जगजाहिर हैं। भारत लोकतांत्रिक राष्ट्र है जिस पर प्रत्येक भारतवासी को गर्व है और होना भी चाहिए क्योंकि संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के तहत धर्म-निरपेक्ष का स्वरूप लिखने व पढ़ने की स्वतंत्रता व विचारों की अभिव्यक्ति करने का पक्ष जनता जनार्दन को प्राप्त है।  भारत की संस्कृति व सभ्यता तो इतनी समृद्ध है कि यहां नदियों तक को मां का दर्जा देकर पूजा जाता है जैसे गंगा मां, यमुना मां। भारत ने पश्चिम को शून्य का ज्ञान दिया जिस पर उसका विज्ञान टिका है कि सत्यता को नकारा नहीं जा सकता।
इतनी समृद्ध संस्कृति व सभ्यता के देश में जो कुछ पाश्चात्य संस्कृति व सभ्यता के चलते घटित होता है, वह नारी जाति का अपमान है। राष्ट्र कोई ईंट गारे का मकान नहीं अपितु राष्ट्रवासियों की भावना और जज्बा, उसकी एकता, अखंडता व प्रभुसत्ता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए अपनी जान की बाजी लगाने से भी नहीं चूकता, जिसका साक्षी भारतीय  सेना की गौरवशाली परम्परा व इतिहास है।  राष्ट्र से हम हैं, हम से राष्ट्र है और किसान व जवान का भी नारा जय जवान, जय किसान स्वर्गीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने लाल किले की प्राचीर से इसलिए बुलन्द किया था कि किसान की जय इसलिए हो कि राष्ट्रवासियों का पेट खाद्यान्न उत्पन्न कर भरता है और जवान की जय इसलिए हो कि सीमाओं के प्रहरी जागरूक रह कर देश के निवासियों को मुस्तैद रहकर सुरक्षित रखे हुए हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि समय हाथ आया है कि देश के कर्णधारों को दलदल राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रहितों को सर्वोपरि रूप में स्वीकार कर निर्णय लेना होगा कि वह देश को किस ओर ले जाना चाहते हैं? विकास की ओर या पत्नोमुखी रास्ते पर अग्रसर होकर निजी स्वार्थ के चलते जाति, धर्म, सम्प्रदाय सभी से ऊपर उठकर जनहित, समाजहित व राष्ट्रहित की भवना को फलते-फूलते देखना चाहते हैं। निर्णय सुधी पाठकों व देश के कर्णधारों पर छोड़ना श्रेष्ठकर है। ऐसा मेरा मानना है।