सभी पक्ष सर्वोच्च् न्यायालय का फैसला मानने के लिए पाबंद हों

अंतत: देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी 160 वर्ष से चलते आ रहे राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के बारे में संबंधित पक्षों की 40 दिन तक चली लम्बी दलीलें सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया है। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने इसके लिए कड़ी मेहनत की और विस्तृत रिपोर्टों को पूरी तरह जांचा-परखा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस संबंध में वर्ष 2010 में अपना फैसला सुनाया था कि विवाद वाली 2.77 एकड़ भूमि को राम लल्ला विराज़मान, निर्मोही अखाड़ा तथा सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच तीन हिस्सों में बांट दिया जाए। इस फैसले से सभी पक्ष संतुष्ट नहीं थे, जिस कारण सर्वोच्च न्यायालय को यह फैसला अपने हाथों में लेना पड़ा। 
अयोध्या के इस विवाद ने दशकों तक देश की साम्प्रदायिक स्थिति बेहद गम्भीर बनाये रखी है। इस विषय को कुछ कट्टरवादी संस्थाओं, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा भाजपा जैसी पार्टी ने समय-समय पर उछाले रखा। भाजपा ने तो हमेशा इससे राजनीतिक लाभ लेने का भी प्रयास किया। विश्व हिन्दू परिषद्, बजरंग दल के साथ-साथ भाजपा के बहुत सारे नेता इसमें शामिल होते रहे। कभी लाल कृष्ण अडवानी ने पार्टी के अध्यक्ष होते हुए देश भर में इस मामले को लेकर रथ यात्रा की थी, जिसकी बेहद चर्चा हुई थी। चाहे उस समय के बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बिहार में पैदा हुए साम्प्रदायिक तनाव के आधार पर लाल कृष्ण अडवानी को गिरफ्तार कर लिया था, जिससे यह यात्रा तो ठुस हो कर रह गई थी। परन्तु तत्कालीन केन्द्र सरकार इस मामले पर गम्भीर संकट में फंस गई थी। जब वर्ष 1992 के दिसम्बर में भीड़ द्वारा एकत्रित होकर इस मस्जिद पर धावा बोल कर इसके ढांचे को गिरा दिया गया था। इससे देश में बड़े स्तर पर साम्प्रदायिक दंगे हुए थे, जिनमें सैकड़ों ही लोग मारे गये थे। उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी और उत्तर प्रदेश में भाजपा का शासन था। यदि इसके पिछले इतिहास की ओर जाया जाए तो मस्जिद के इस ढांचे में जून 1949 में राम लल्ला की मूर्तियां रख दी गईं थी। उसके बाद वर्ष 1985 में केन्द्र की राजीव गांधी की सरकार के समय यहां पूजा करने की अनुमति भी दे दी गई थी। इस मामले के संबंध में ठोस ऐतिहासिक तथ्य तो कभी भी सामने नहीं आ सके, परन्तु यह मामला श्रद्धा और विश्वास से जुड़ा होने के कारण इसकी चर्चा लगातार होती रही है। इस संदर्भ में यह बात तो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है कि वर्ष 1526 में अ़फगानिस्तान से हमलावर के रूप में आए बाबर ने दिल्ली में म़ुगल सल्तनत कायम कर ली थी। उसके बाद म़ुगल सरकार के अधीन काफी स्थानों पर मंदिरों को तोड़ दिया गया था और कई स्थानों पर उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण भी कर दिया गया था। परन्तु जिस तरह भाजपा के नेतृत्व में एकत्रित की गई भीड़ और कट्टरवादी संगठनों द्वारा मस्जिद को गिराया गया था, वह जहां कानून का बड़ा उल्लंघन था, वहीं यह मामला साम्प्रदायिक तनाव के कारण भी बहुत भावुक बन गया था। इससे देश में दो बड़े समुदायों में ऩफरत का माहौल पैदा हो गया था, जिसका असर आज तक भी दिखाई दे रहा है।  मस्जिद के इस ढांचे को तोड़ने के अपराध में भाजपा के लाल कृष्ण अडवानी सहित अन्य वरिष्ठ नेताओं पर मुकद्दमें चल रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने सभी पक्षों को एकजुट होकर आपसी हल निकालने का अवसर भी दिया था, जिसमें अधिक सफलता नहीं मिली थी, परन्तु अब यह मामला उस मुकाम पर पहुंच गया है, जिसके बाद देश की बेहतरी के लिए इसका हल निकलना निश्चित हो गया है। इसलिए सभी पक्षों को ही सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानना आवश्यक होगा। इसी तरह ही कानून का शासन कायम रखा जा सकेगा। इसी में ही हमारे संविधान की आन और शान बरकरार रह सकेगी।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द