देश की सबसे भीषण आर्थिक समस्या बनी बेरोज़गारी

जब से विश्व के अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यांकन संस्थानों ने यह घोषित करना शुरू किया है कि भारत विकट आर्थिक मन्दी में गिरफ्तार हो गया है, तब से सरकारी अर्थशास्त्री इसकी भीषणता को कम बताने के लिए यह कह देते हैं कि यह विश्व व्यापी मन्दी का प्रभाव है, और अभी भी दुनिया के सम्पन्न देशों की विकास दर की तुलना में भारत की विकास दर अधिक है। परन्तु सबसे पहले पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह ने भारत की बीते वर्ष की आर्थिक विकास दर को 4.5 प्रतिशत तक गिर गया बताया था। इसके बाद विश्व बैंक के आंकड़े आये जिसमें भारत की आर्थिक विकास दर लगभग पांच प्रतिशत बताई गई, और इस वर्ष सन् 2020 में भी इसमें आश्चर्य वृद्धि की उम्मीद नहीं रखी गयी अर्थात यह छ: प्रतिशत से कम रहेगी। इसके साथ अच्छी अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमाणित आंकड़े आये हैं, जिसमें बताया गया कि बीते वर्ष में भारत की विकास दर पांच प्रतिशत से नीचे अर्थात् 4.8 प्रतिशत रह गई है। चाहे अभी यह मान लिया गया कि इस वर्ष अगर भारत अपने मूलभूत आर्थिक ढांचे में तरक्की और कोर उद्योगों की वृद्धि दर बढ़ा लेता है, तो भारतीय अर्थव्यवस्ता तरक्की की राह पर चल निकलेगी।लेकिन इस तर्क में कोई वज़न नहीं है, क्योंकि अन्य अपेक्षाकृत सम्पन्न देशों की विकास दर भी चार प्रतिशत के आसपास है। इसलिए यह कोई असाधारण बात नहीं, और सरकार अपने नये बजट की उदार निवेश नीतियों के साथ इस आर्थिक दुष्चक्र से बाहर आ जायेगी। आर्थिक मंदी को विश्वव्यापी मंडी का ही एक भाग कहकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता। इसका पहला कारण तो यह है कि जब सन् 2018 की पहली तिमाही में भारत की आर्थिक विकास दर 8.1 प्रतिशत हो गयी थी, अब एक ही वर्ष में यह गिर कर आधी क्यों रह गयी?दूसरी बात यह कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी दूसरी शासन पारी शुरू करते हुए घोषणा की थी कि वह अगले पांच वर्ष अथवा सन् 2024 तक देश के सकल घरेलू उत्पादन अथवा आय को बढ़ा कर 500 अरब डॉलर तक ले जायेंगे, जबकि वह उस समय 297 अरब डॉलर थी। आर्थिक मंदी के आंकड़ों की जानकारी के बाद मोदी जी ने फिर दोहराया है कि वह पांच वर्ष में भारत की आय को दुगना करने अथवा 500 अरब डॉलर तक पहुंचा देने के अपने संकल्प पर दृढ़ है। परन्तु देश के प्रमुख आर्थिक नीति नियामक और निर्धारक प्रो. नागराजन ने बताया कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें कम से कम 9 प्रतिशत आर्थिक विकास दर की ज़रूरत रहेगी। जबकि अन्य विदेशी अर्थशास्त्री तो इस अपेक्षित विकास दर को 10 से 12 प्रतिशत बता रहे हैं। अब भला इससे वास्तविक आधी विकास दर को बढ़ा कर एकदम दुगना कैसे किया जा सकता है?कुछ अर्थशास्त्री यह भी कहते हैं कि इस कम विकास दर का कारण घटती हुई उत्पादकता, निवेश दर की कमी है और इसको सस्ती ब्याज़ दर अथवा उदार मौद्रिक नीति अपना कर पूरा किया जा सकता है। लेकिन यह विडम्बना है कि मोदी काल में बार-बार ब्याज़ दर के कम करने के बावजूद निवेश बढ़ नहीं रहा, बल्कि एक विसंगति नज़र आ रही है कि एक ओर वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही हैं और दूसरी ओर आय के घटने के साथ-साथ मांग भी घटती जा रही है। अब ऐसी हालत में नये निवेश से बढ़ते हुए लाभ की उम्मीद कैसे की जा सकती है। जब तक निवेश अथवा उत्पादन प्रक्रिया सक्रिय ही नहीं होगी, तो मंडियों में आपूर्ति कम हो जायेगी, घटती आय और बेकारी के साथ मांग तो पहले ही कम है। आपूर्ति उससे भी कम, तो नतीज़ा महंगाई होगा, आम आदमी की दुर्दशा होगी, कमी का मनोविज्ञान पैदा होगा और देश की आर्थिक अवस्था और भी अवसादग्रस्त हो जायेगी। लेकिन इस विडम्बना का मूल कारण समझने के लिए मूल तथ्य को समझें कि यह सब आर्थिक विकास दर के आधा रह जाने के कारण पैदा हुआ है। विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी से भारत की आर्थिक मन्दी की विलक्षणता की पहचान करनी होगी। यहां जब भारत की आर्थिक विकास दर इस प्रकार आधी रह गयी और देश के प्रमुख सात सैक्टरों में जिसमें टैक्सटाइल, आटो क्षेत्र और रीयल एस्टेट भी शामिल था, इससे अर्थव्यवस्था में एक चक्रीय बेकारी की स्थिति पैदा हो गयी अर्थात् मुख्य निर्माण क्षेत्र में तो रोज़गार के अवसर तो कम हुए ही, उसके साथ सभी सहयोगी धंधों में भी अवसर कम हो गये। नतीज़ा भयावह बेकारी था, जिसने एक ओर मांग में भारी कमी की, दूसरी ओर लाभ कमाने की सम्भावना में। जब मांग नहीं तो उत्पादन कैसा, इसलिए इस चक्रीय बेकारी के कारण देश आर्थिक सुस्ती की एक धरातल से निचले धरातल तक उतरता चला गया, इसलिए अल्प विकास का एक ऐसा माहौल पैदा हो गया कि इसमें से सकल घरेलू आय को दुगना करने की सम्भावना कैसे पैदा होती?ऐसी स्थिति का समाधान आर्थिक नीति में सामंजस्य है। अर्थात् बड़े पूंजी गहन और स्वचालित उपकरणों वाले भारी निवेश के साथ कि जिसकी प्राप्ति त्वरित आर्थिक विकास दर होती है, श्रम गहन लघु और कुटीर उद्योगों के बढ़ते निवेश का संतुलन भी रखा जाये। पिछले कुछ वर्षों में त्वरित आर्थिक विकास की दौड़ में लघु और कुटीर उद्योगों की उपेक्षा ही नहीं, उनका पतन ही हो गया है। इसी कारण बेकारी उतनी बढ़ी कि जिसने देश को आर्थिक मन्दी के गड्ढे में धकेल दिया। इस त्रुटि का निराकरण यूं ही हो सकता है कि देश में बड़े उद्योगों की तरक्की के साथ लघु और कुटीर उद्योगों के विकास की ओर भी पूरा ध्यान दिया जाए, ताकि बेरोज़गारी मिटे, आय और मांग बढ़े और इस प्रकार नये निवेशक भी प्रोत्साहित होकर अपने स्वर्ण दिवसों के लौटने की उम्मीद कर सकें।