भारत में जैव विविधता पर मंडराता खतरा

विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी तथा वनस्पति एक.दूसरे की जरूरतों को पूरा करते हैं, जिनका जीवन एक-दूसरे पर ही निर्भर रहता है। सही मायनों में जैव विविधता की समृद्धि ही धरती को रहने तथा जीवनयापन के योग्य बनाती है किन्तु विड़म्बना है कि निरन्तर बढ़ता प्रदूषण रूपी राक्षस वातावरण पर इतना खतरनाक प्रभाव डाल रहा है कि जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं। अगर भारत में कुछ जीव.जंतुओं की प्रजातियों पर मंडराते खतरों की बात करें तो जैव विविधता पर दिसम्बर 2018 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (सीबीडी) में पेश की गई छठी राष्ट्रीय रिपोर्ट से पता चला था कि गंभीर रूप से लुप्तप्राय: और संकटग्रस्त श्रेणियों में भारतीय जीव प्रजातियों की सूची वर्षों से बढ़ रही है। इस सूची में शामिल प्रजातियों की संख्या में वृद्धि जैव विविधता तथा वन्य आवासों पर गंभीर तनाव का संकेत है। 2009 में पेश की गई चतुर्थ राष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार उस समय ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ  नेचर’ (आईयूसीएन) की विभिन्न श्रेणियों में गंभीर रूप से लुप्तप्राय: और संकटग्रस्त श्रेणियों में भारत की 413 जीव प्रजातियों के नाम थे किन्तु 2014 में पेश पांचवीं राष्ट्रीय रिपोर्ट में इन प्रजातियों की संख्या का आंकड़ा बढ़कर 646 और छठी राष्ट्रीय रिपोर्ट में 683 हो गया। भारत में इस समय नौ सौ से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियां खतरे में बताई जा रही हैं। यही नहीं, विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की सूची में दुनिया भर में भारत का चीन के बाद सातवां स्थान है। भारत का समुद्री पारिस्थितिकीय तंत्र करीब 20444 जीव प्रजातियों के समुदाय की मेजबानी करता है, जिनमें से 1180 प्रजातियों को संकटग्रस्त तथा तत्काल संरक्षण के लिए सूचीबद्ध किया गया है। अगर देश में प्रमुख रूप से लुप्त होती कुछेक जीव.जंतुओं की प्रजातियों की बात करें तो कश्मीर में पाए जाने वाले हांगलू की संख्या सिर्फ  200 के आस-पास रह गई है, जिनमें से करीब 110 दाचीगाम नेशनल पार्क में हैं। इसी प्रकार आमतौर पर दलदली क्षेत्रों में पाई जाने वाली बारहसिंगा हिरण की प्रजाति अब मध्य भारत के कुछ वनों तक ही सीमित रह गई है। वर्ष 1987 के बाद से मालाबार गंधबिलाव नहीं देखा गया है। हालांकि माना जाता है कि इनकी संख्या पश्चिमी घाट में फिलहाल दो सौ के करीब बची है। दक्षिण अंडमान के माउंट हैरियट में पाया जाने वाला दुनिया का सबसे छोटा स्तनपायी सफेद दांत वाला छछूंदर लुप्त होने के कगार पर है। एशियाई शेर भी गुजरात के गिर वनों तक ही सीमित हैं।देश में हर साल बड़ी संख्या में बाघ मर रहे हैं, हाथी कई बार ट्रेनों से टकराकर मौत के मुंह में समा रहे हैं, इनमें से कईयों को वन्य तस्कर मार डालते हैं। कभी गांवों या शहरों में बाघ घुस आता है तो कभी तेंदुआ दहशत का माहौल बन जाता है। यह सब वन क्षेत्रों के घटने और विकास परियोजनाओं के चलते वन्य जीवों के आश्रय स्थलों में बढ़ती मानवीय घुसपैठ का ही परिणाम है कि वन्य जीवों तथा मनुष्यों का टकराव लगातार बढ़ रहा है और वन्य प्राणी अभ्यारण्यों की सीमा पार कर बाघ, तेंदुए इत्यादि वन्य जीव अब अक्सर बेघर होकर भोजन की तलाश में शहरों का रुख करने लगे हैं, जो कभी खेतों में लहलहाती फसलों को तहस-नहस कर देते हैं तो कभी इंसानों पर जानलेवा हमले कर देते हैं। देश के जलक्षेत्र में भी 13 हजार लुप्तप्राय: प्रजातियों की गणना की गई है, जिसका एक बड़ा कारण 8 हजार किलोमीटर तटरेखा के आस-पास बंदरगाह तथा बिजलीघरों जैसी विकास परियोजनाएं मानी जा रही हैं। ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ  नेचर’ (आईयूसीएन) के मुताबिक भारत में पौधों की करीब 45 हजार प्रजातियां पाई जाती हैं और इनमें से भी 1336 प्रजातियों पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इसी प्रकार फूलों की पाई जाने वाली 15 हजार प्रजातियों में से डेढ़ हजार प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं।
वन्य जीव संरक्षण के लिए कानून व परियोजनाएं
भारत में वन्य जीवों को विलुप्त होने से बचाने के लिए पहला कानून ‘वाइल्ड एलीकेंट प्रोटेक्शन एक्ट’ ब्रिटिश शासनकाल में 1872 में बनाया गया था। 1927 में ब्रिटिश शासनकाल में ही ‘भारतीय वन अधिनियम’ बनाकर वन्य जीवों का शिकार तथा वनों की अवैध कटाई को अपराध की श्रेणी में रखते हुए दंड का प्रावधान किया गया। 1956 में एक बार फिर ‘भारतीय वन अधिनियम’ पारित किया गया और वन्य जीवों के बिगड़ते हालातों में सुधार के लिए 1983 में राष्ट्रीय वन्य जीव योजना’ की शुरूआत की गई, जिसके तहत कई नेशनल पार्क और वन्य प्राणी अभ्यारण्य बनाए गए। हालांकि नेशनल पार्क बनाने का सिलसिला ब्रिटिश काल में ही शुरू हो गया था, जब सबसे पहला नेशनल पार्क 1905 में असम में बनाया गया था और उसके बाद दूसरा नेशनल पार्क ‘जिम कार्बेट पार्क’ 1936 में बंगाल टाइगर के संरक्षण के लिए उत्तराखण्ड में बनाया गया था लेकिन आज नेशनल पार्कों की संख्या बढ़कर 103 हो गई है और देश में कुल 530 वन्य जीव अभ्यारण्य भी हैं, जिनमें 13 राज्यों में 18 बाघ अभ्यारण्य भी स्थापित किए गए हैं।
पक्षियों की सेहत पर प्रदूषण का असर
पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि चूंकि पक्षी आसमान में ज्यादा समय तक रहते हैं और ज्यादा तेज सांस लेते हैंए इसलिए इंसानों की अपेक्षा प्रदूषण का दुष्प्रभाव पक्षियों की सेहत पर ज्यादा पड़ता है। आसमान में उड़ान भरते समय वायु में घुले प्रदूषण कणों के उनके शरीर में प्रवेश करने की संभावना बहुत ज्यादा रहती है। सर्दियों में तो हजारों किलोमीटर दूर से विदेशी परिंदे हर साल दिल्ली सहित भारत के कई हिस्सों का रूख करते हैं किन्तु दिल्ली तथा आसपास के इलाकों में तो सर्दियों के दौरान प्रदूषण अब इस कदर बढ़ जाता है कि परिंदों में अब इस मौसम में दिल्ली से पलायन करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। पर्यावरण वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि हजारों किलोमीटर दूर से दिल्ली के लिए चलने वाले पक्षी अब अपना रास्ता भी भूल रहे हैं, जिसके कारण अब यहां विदेशी पक्षियों की संख्या काफी कम देखने को मिलती है। दरअसल वातावरण में प्रदूषण के चलते विदेशों से आने वाले पक्षी अपने पर्यावास की सही पहचान नहीं कर पाते और इसी कारण गलत जगहों पर उतर जाते हैं। प्रदूषण के कारण अब पक्षियों के पूरे जीवन चक्र पर इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है। कुछ वर्षों से यह भी देखा गया है कि दिल्ली पहुंचने वाले विदेशी पक्षी यहां सर्दी के मौसम में अक्सर बढ़ने वाले प्रदूषण के कारण दिल्ली छोड़कर चंबल नदी के किनारे पर पहुंच जाते हैं और कुछ समय के लिए अपना ठिकाना वहीं बना लेते हैं। अगर विदेशी परिंदों के दिल्ली पहुंचने की ही बात करें तो इनकी संख्या साल दर साल किस कदर घट रही है, इसका अनुमान इन आंकड़ों से बखूबी लगाया जा सकता है।
भयावह खतरे की ओर बढ़ती मानव जाति
पर्यावरण वैज्ञानिक बताते हैं कि प्रदूषण तथा स्मॉग भरे वातावरण में कीड़े-मकौड़े सुस्त पड़ जाते हैं। प्रदूषण का जहर अब मधुमक्खियों तथा सिल्क वर्म जैसे जीवों के शरीर में भी पहुंच रहा है। रंग-बिरंगी तितलियों को भी इससे काफी नुकसान हो रहा है। यही नहीं, अत्यधिक प्रदूषित स्थानों पर तो पेड़-पौधों पर भी इसका इतना बुरा प्रभाव पड़ रहा है कि हवा में सल्फर डाईऑक्साइड,नाइट्रोजन तथा ओजोन की अधिक मात्रा के चलते पेड़-पौधों की पत्तियां भी जल्दी टूट जाती हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों का स्पष्ट कहना है कि अगर इस ओर जल्दी ही ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में स्थितियां इतनी खतरनाक हो जाएंगी कि धरती से पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। पृथ्वी पर पेड़ों की संख्या घटने से अनेक जानवरों और पक्षियों से उनके आशियाने छिन रहे हैं, जिससे उनका जीवन संकट में पड़ रहा है।अगर विकास के नाम पर वनों की बड़े पैमाने पर कटाई के साथ-साथ जीव-जंतुओं तथा पक्षियों से उनके आवास छीने जाते रहे और ये प्रजातियां धीरे-धीरे धरती से एक-एक कर लुप्त होती गई तो भविष्य में उससे उत्पन्न होने वाली भयावह समस्याओं और खतरों का सामना हमें ही करना होगा। आज अगर खेतों में कीटों को मारकर खाने वाले चिड़िया, मोर, तीतर, बटेर, कौआ, बाज, गिद्ध जैसे किसानों के हितैषी माने जाने वाले पक्षी भी तेजी से लुप्त होने के कगार हैं तो हमें आसानी से समझ लेना चाहिए कि हम भयावह खतरे की ओर आगे बढ़ रहे हैं और हमें अब समय रहते सचेत हो जाना चाहिए। हमें अब भली-भांति समझ लेना होगा कि पृथ्वी पर जैव विविधता को बनाए रखने के लिए सबसे जरूरी और सबसे महत्वपूर्ण यही है कि हम धरती की पर्यावरण संबंधित स्थिति के तालमेल को बनाए रखें।

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