बचपन को भी  झकझोर दिया है कोरोना ने!

अब तक जो अध्ययन आये हैं, उनसे यही मालूम होता है कि कोरोना वायरस बच्चों को बहुत हल्के में छोड़ देता है। वे इससे या तो बीमार नहीं पड़ते या उन्हें बहुत ही मामूली लक्षण होते हैं, जिनका आसानी से उपचार हो जाता है। लेकिन इस अध्ययन में एक अति चिंताजनक तथ्य छुप जाता है कि कोविड लॉकडाउन व अन्य पाबंदियों का बच्चों पर जबरदस्त मानसिक कुप्रभाव पड़ रहा है।  अगर इस समय सामान्य स्थितियां होतीं तो बच्चे स्कूल में होते लेकिन इस महामारी ने वर्ष 2020 में दोनों स्कूल व बचपन को स्थगित कर दिया है। यह सही है कि बच्चों की ऑनलाइन क्लासेज चल रही हैं, लेकिन क्लासरूम की वो शरारतें, वो खेल, वो हंसी मजाक, वो सुबह की असेंबली और वो डिबेट, नाटक, गायन, नृत्य आदि की प्रतियोगिताएं कहां हैं? यही सब तो बचपन की सुनहरी यादें बनती हैं और इनका ही बच्चों के मानसिक विकास में जबरदस्त योगदान रहता है।भारत में लॉकडाउन का बच्चों के मन पर क्या प्रभाव पड़ा है, कहना कठिन है क्योंकि कोई अध्ययन तो है नहीं, लेकिन इस संदर्भ में विदेशों में जो अध्ययन हुए हैं, उनसे एक मोटा अनुमान तो लगाया ही जा सकता है, विशेषकर इसलिए कि बच्चा चाहे मेरठ में हो या मराकश में, उसका स्वभाव तो एक सा ही होता है और लॉकडाउन की स्थितियां भी हर देश में लगभग समान ही रही हैं। मसलन, स्पेन में जहां सख्त लॉकडाउन के दौरान पूरे छह सप्ताह तक बच्चों को घर से निकलने नहीं दिया गया। 90 प्रतिशत पेरेंट्स ने अपने बच्चों में भावनात्मक व व्यवहारगत परिवर्तन देखे, जिनमें एकाग्रता में कठिनाई, चिड़चिड़ापन, एंग्जायटी आदि शामिल हैं। ऐसा न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेख में कहा गया है  लेकिन इटली में बच्चों को अपने घर के पास कम दूरी की चहलकदमी की अनुमति दी गई थी, वहां यह समस्या इतनी गंभीर नहीं है। भारत में शहरी क्षेत्रों में देशव्यापी लॉकडाउन का सख्ती से पालन कराया गया था। पैरेंट्स ने खुद भी अपने बच्चों को घर से एहतियातन निकलने नहीं दिया, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में लॉकडाउन इतना सख्त नहीं था। इसलिए यह अनुमान शायद गलत नहीं है कि अपने शहरी क्षेत्र के बच्चों पर स्पेन जैसा प्रभाव पड़ा और ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों पर इटली जैसा। साइकोलॉजी टुडे की रिपोर्ट से मालूम होता है कि चीन के सख्त लॉकडाउन में भी बच्चों पर स्पेन जैसा प्रभाव पड़ा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 230 मिलियन बच्चों पर ‘लम्बे समय तक स्कूलों के बंद रहने और घर में ही बंद रहने से मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बढ़ गया है’। सर्वे में यह भी कहा गया है कि जिन बच्चों को क्वारंटाइन किया गया, उन पर यह खतरा सामान्य रूटीन रखने वाले बच्चों की तुलना में चार गुना अधिक था।दरअसल, तीन माह के लॉकडाउन ने समस्या को अधिक जटिल बना दिया है। अब बात सिर्फ  बच्चों को बाहर खेलने के लिए भेजने की नहीं रह गई है। मेरठ में एक गृहिणी का कहना है, ‘लॉकडाउन से पहले मेरा किशोर बेटा स्कूल से लौटने के बाद स्पोर्ट्स स्टेडियम क्रिकेट खेलने के लिए जाया करता था, लेकिन अब वह इतना डरा हुआ है कि घर से बाहर कदम भी नहीं रखता है। उसे लगता है कि बाहर निकलने का अर्थ है संक्रमित हो जाना, लम्बा बीमार पड़ना, जिसमें मौत भी हो सकती है।’ यह ट्रामा का क्लासिक केस है, जिसे अमरीकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन ‘भयंकर घटना पर भावनात्मक प्रतिक्रिया’ कहती है। इसके मुताबिक जज्बात जिनका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, फ्लैशबैक, तनावपूर्ण संबंध और भौतिक लक्षण जैसे सिरदर्द या जी मितलाना हो सकते हैं। भावनाओं को नियंत्रित करने में खेल, विशेषकर आउटडोर स्पोर्ट्स की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जो लोग नियमित कोई स्पोर्ट्स खेलते हैं, उनके ब्रेन के उस हिस्से में कम गतिविधियां होतीं हैं जो निरंतर नकारात्मक भावनाओं पर फोकस करता है।दैनिक रूटीन से तनाव भी नियंत्रित रहता है लेकिन जब लॉकडाउन कर दिया गया तो बच्चे न स्कूल जा सके और न पड़ोस के दोस्तों के साथ खेल सके। इसका कुप्रभाव तो होना ही था। इससे भी चिंताजनक ‘द लांसेट’ के अनुसार यह है कि मीडिया व सोशल संपर्क के कारण बच्चों का कोविड-संबंधी जानकारी के प्रति एक्सपोजर अत्यधिक हो गया है। अनेक परिवारों में कोरोना वायरस टेबल टॉक का विषय है और अक्सर बच्चे जो सुनते हैं, वह उनकी समझ से परे होता है, जिसका अर्थ वे भावनात्मक संकेतों से निकालने का प्रयास करते हैं, लेकिन अब वह भी नकारात्मक है क्योंकि पेरेंट्स चिंतित व तनावग्रस्त हैं।न्यूयॉर्क टाइम्स का कहना है कि दस में से आठ मामलों में बच्चों का तनाव स्तर अपने पेरेंट्स के तनाव के साथ बढ़ जाता है। ‘क्वारंटाइन अवधि में जिन पेरेंट्स ने अपने आपको अधिक तनावपूर्ण महसूस किया, उन्होंने रिपोर्ट किया कि उनके बच्चों को ज्यादा भावनात्मक समस्या थी’। बहरहाल, इस संकट में दोनों पेरेंट्स व बच्चे बराबर के असहाय हैं क्योंकि इसके मानसिक पहलू पर सरकारें खामोश हैं। यह रोग कैसे फैलता है, शरीर पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है और इससे किस तरह सुरक्षित रहा जाये, इस पर तो भरपूर जानकारी दी गई, लेकिन तनाव कम करने में बच्चों की किस तरह मदद की जाये, इसके बारे में सूचना का अभाव रहा।‘द लांसेट’ का कहना है कि छोटे बच्चों (4-7 वर्ष आयु वर्ग) की सोच जादुई होती है। वे मानते हैं कि उनके विचार, इच्छाएं या हरकतें बाहरी घटनाओं जैसे बीमारी का कारण बन सकती हैं। इसलिए यह आशंका बनी रहती है कि छोटे बच्चे रोग के लिए अपने आपको दोषी मान लें। यह वह आयु होती है जब बच्चे अपने बोध को विकसित कर रहे होते हैं। चूंकि वे यह नहीं जानते कि कोरोना वायरस कैसे फैलता है, इसलिए परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर उन्हें अंदर ही अंदर अपराधबोध होने लगता है।  किशोरावस्था (दस वर्ष से ऊपर की आयु) में दोस्त परिवार से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। यह विकास का महत्वपूर्ण चरण है क्योंकि इसमें ही दूसरों के मन व दृष्टिकोण को समझा जाता है। लॉकडाउन ने उन्हें इसी अवसर से वंचित रखा है।

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