विधेयकों से उपजे संशय

कृषि विधेयकों के संबंध में चर्चा निरन्तर ज़ोर पकड़ती जा रही है। इनका लोकसभा में पास होने के बाद राज्यसभा में पास होना कुछ मुश्किल अवश्य है परन्तु बहुत कठिन नहीं। आज राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार जिस स्थिति में है, उसके लिए यह विधेयक राज्यसभा में भी पास करवाना असम्भव नहीं है। दूसरी ओर पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश के किसानों में सरकार के इस रवैये के प्रति क्रोध बढ़ता दिखाई देता है। किसान यूनियनेें इन विधेयकों के प्रति अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने हेतु दृढ़-प्रतिज्ञ दिखाई दे रही हैं। यहां तक कि चिरकाल से भाजपा की सहयोगी पार्टी अकाली दल (ब) की सांसद हरसिमरत कौर बादल ने भी उपज रहे इस माहौल में सरकार की ओर से उठाये गये इन पगों पर नाराज़गी प्रकट करते हुये अपना त्याग-पत्र दे दिया है, जो राष्ट्रपति की ओर से स्वीकार भी कर लिया गया है। अकाली दल (ब) के प्रतिनिधि दोनों ही सदनों में इनके प्रति अपना विरोध प्रकट कर चुके हैं। कांग्रेस सहित कुछ अन्य दल भी इन विधेयकों के विरोध में आ खड़े हुये हैं परन्तु इसी काल में केन्द्रीय कृषि मंत्री एवं प्रधानमंत्री की ओर से जिस प्रकार के बयान दिये गये हैं, उनसे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार इन विधेयकों को कानून बनाने के लिए दृढ़ है। चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन विधेयकों को किसान समर्थक जताते हुये कहा है कि ये किसानों के हित के लिए हैं तथा इनसे किसानों की आय बढ़ेगी तथा यह धंधा समृद्ध होगा, परन्तु जिस प्रकार के विस्तार सामने आये हैं, उनसे अधिकतर छोटे किसानों का भविष्य अनिश्चित प्रतीत होने लगा है। आज देश भर में 80 प्रतिशत से भी अधिक ऐसे किसान हैं जिनके पास भूमि बहुत ही सीमित मात्रा में रह गई है। इसी प्रकार पंजाब में भी बड़ी संख्या छोटे किसानों की है। यदि उन्हें मंडीकरण के बाद अपने उत्पादन का भाव निश्चित तौर पर सही समय पर न मिला, तो उनके लिए दैनिक जीवन चलाना अतीव कठिन हो जाएगा। छोटा किसान बड़े व्यापारियों एवं बड़ी कम्पनियों से किस प्रकार ठेका आधारित कृषि करेगा, यह बात पकड़ में नहीं आती। यदि स्थापित मंडियां एवं आढ़ती नहीं रहेंगे तो उनके लिए समय-समय पर अपनी एवं अपने परिवार की आवश्यकताएं पूर्ण करने में भारी मुश्किलें आएंगी। एक प्रकार से चलता हुआ जन-जीवन प्रवाह थम जाएगा। गेहूं एवं धान के मामले में भी स्थिति अन्य कृषि उत्पादों, सब्ज़ियों एवं दूध वाली बन जाएगी। सरकार की योजना के अनुसार यदि किसान को एक समय पर अपनी फसल से लाभ होगा, उसकी आय बढ़ेगी तो यह बात निश्चय के साथ नहीं कही जा सकती कि दूसरी बार भी उसकी स्थिति ऐसी ही रहेगी। वह एक स्थापित मंडी में अपना बचा हुआ अनाज बेच कर अपना जीवन निर्वाह करना चाहेगा अथवा अपनी छोटी-मोटी उपज को लेकर भिन्न-भिन्न मंडियों में घूमता फिरेगा। कल को यदि व्यापारियों की ओर से हालात को देखते हुये उसके साथ ठेका करने से इन्कार कर दिया जाएगा तो उसकी स्थिति क्या होगी, इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन नहीं है। केन्द्र सरकार अनाज की इस खरीद की ज़िम्मेदारी से बचना चाहती है तथा ऐसी मंशा से वह छोटे किसान को बड़े व्यापारियों एवं कम्पनियों के रहमो-करम पर छोड़ देगी जबकि सरकार का लक्ष्य  प्रत्येक स्थिति में छोटे किसान के जीवन के प्रति बेहतरी वाला होना चाहिए। आज देश में छोटे किसानों का परिवार बड़ा है। इस बड़े परिवार में गांवों में बढ़ रही बेरोज़गारी भी खप जाती है। कल यदि ऐसी बेरोज़गारी खपत न हुई तथा बेरोज़गारों की सेना में वृद्धि होती चली गई तो सरकार इसके लिए कैसा एवं किस प्रकार का समाधान पेश करेगी, इसका जवाब वर्तमान में उसके पास नहीं है। यदि वह ऐसे प्रश्नों को हल नहीं कर सकती तो वह इस स्थापित व्यवस्था में प्रसार करके समाज में और भी गड़बड़ पैदा करने की भागीदार बनेगी। इन अत्यधिक संवेदनशील विधेयकों को पास किये जाने से पहले इनकी विस्तृत रूप में प्रत्येक दृष्टिकोण से जांच-पड़ताल किया जाना बहुत ज़रूरी है। सरकार को जल्दबाज़ी में इन्हें पास कराने के लिए कतई बज़िद नहीं होना चाहिए क्योंकि कल को इनसे होने वाले हर तरह के नुकसान की भरपाई कर पाना उसके लिए अत्यधिक कठिन हो जाएगा।


—बरजिन्दर सिंह हमदर्द