त्यौहारों में कोरोना से बेफिक्री हो सकती है घातक

भारत में कोरोना महामारी के बीच लाकडाउन के सात  महीने बीतते-बीतते रिकवरी रेट भले ही बेहतर है और मरने वालों की संख्या की दर भी अपेक्षाकृत रूप से बहुत कम है। इसके बावजूद आबादी के विशाल आकार को देखते हुए यह अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है कि देश में खतरा कायम है और नए नए इलाके संक्र मण की जद में आ रहे हैं। खतरों के बीच यह भी देखा जा रहा है कि लोग महामारी से बचाव को लेकर बेफिक्र  से भी हो चले हैं। मास्क पहनने से लोग कतरा रहे हैं। कहीं मास्क को मजबूरी की तरह तो कहीं लापरवाही से पहने हुए देखा जा सकता है। फिजिकल डिस्टेंसिग के प्रति भी कई लोग अब सचेत नजर  नहीं आते हैं । सड़कों पर थूकना व कूड़ा फेंकना जारी है और लगता नहीं है कि ये वही आशंकित, भयभीत और थाली पीटते लोग हैं जो कोरोना वायरस को भगाने के लिए कुछ भी करने को तत्पर नज़र आते थे। एक आम नैरेटिव यह चल पड़ा है कि अब इसके साथ ही रहना है। महामारी के खिलाफ अभियान में यह रवैया घातक और दूरगामी नुकसान पहुंचाने वाला माना जा रहा है। इन दिनों ऐसे शहरों में जो लाकडाउन और अन्य पाबंदियों से उबर चुके हैं, वहां सुबह शाम वाक के लिए सड़कों पर निकले या सब्जी या किराने की दुकानों पर सामान खरीदने के लिए आते-जाते अधिकांश लोगों को मास्क न पहने हुए और भौतिक दूरी रखने की सावधानी को नज़रअंदाज़ करते हुए देखा जा सकता है। मास्क से जुड़ी प्रशासनिक और चिकित्सकीय हिदायतों को लोग न सिर्फ भुला रहे हैं बल्कि कई लोगों ने तो इन हिदायतों का यह कहकर पालन करने से मना कर दिया है कि इनसे कुछ होने वाला नहीं। कई बार लोगों को निवेदन करना पड़ता है कि वे मास्क पहन लें या थोड़ा दूरी बरतें लेकिन कोई भड़क न उठे, इसका भी डर है । अगर संक्र मण होना है तो होकर रहेगा, नहीं होगा तो नहीं होगा, एक नैरेटिव यह है। दूसरा तर्क यह चल पड़ा है कि हमें नहीं होगा क्योंकि हमारा तो खानपान ठीक है। हमारा शरीर मज़बूत है आदि आदि। लोग एक तरह से खुश हैं कि वे उससे बचे हैं लेकिन इस बात से शायद अनजान हैं कि उसका दायरा उन तक बढ़ता ही जा रहा है. और जरूरी सावधानियां ही उन्हें बचाए रख सकती हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री ने अपने 12 मिनट के सम्बोधन में लोगों को भीड़ से बचने और दो गज की दूरी अपनाने की हिदायतें दोहराईं लेकिन उनके इस सम्बोधन के बाद सरकारी तंत्र पर सवालिया निशान लगाते कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न भी खड़े हुए हैं।  मसलन, क्या कोरोना संक्र मण को रोकने के लिए जारी किए जाने वाले तमाम दिशा-निर्देश केवल आम जनता के लिए ही हैं? प्रधानमंत्री को कोरोना प्रोटोकोल की लगातार धज्जियां उड़ाते रहे राजनीतिक लोगों की जमात के लिए भी कुछ सख्त शब्द बोलने चाहिए थे। एक तरफ जहां अपने परिजनों के अंतिम संस्कार या वैवाहिक आयोजनों में गिनती के लोगों को शामिल होने की छूट है, वहीं तमाम राजनीतिक दल विभिन्न आयोजनों में सैंकड़ों-हज़ारों लोगों की भीड़ जुटाते देखे जाते रहे हैं। आम जनता पर कोरोना प्रोटोकाल का जरा भी उल्लंघन होने पर कानून का डंडा बरस पड़ता है, उन्हें हर कदम पर जुर्माना भरना पड़ता है लेकिन राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों को हर बंदिशों से छूट है। उन पर किसी का कोई जोर नहीं। देश में इस समय एक अजीब-सा माहौल है। एक ओर कोरोना से बचने के लिए बार-बार दो गज की दूरी अपनाने की सलाह दी जाती रही है, वहीं तमाम रेलगाड़ियां, बसें तथा सार्वजनिक यातायात के अन्य साधन किसी बिना सार्वजनिक दूरी का पालन कराए यात्रियों की पूरी क्षमता के साथ दौड़ रहे हैं। आखिर ऐसे में कोई दो गज की दूरी के सिद्धांत को अपनाए भी तो कैसे? बिहार तथा मध्य प्रदेश में चुनावी दौर में राजनीतिक दलों द्वारा मनमानी भीड़ जुटाई गई। क्या ऐसे में कहीं से भी ऐसा लगता है कि हम उस कोरोना संक्र मण के दौर से गुजर रहे हैं जिसके लिए प्रधानमंत्री आमजन को एहतियात बरतने की सलाह दे रहे हैं?फिलहाल त्यौहारी सीजन में जिस प्रकार लोग कोरोना से पूरी तरह बेफिक्र  होकर बगैर मास्क के सार्वजनिक स्थानों पर घूमने लगे हैं, वह आने वाले दिनों में वाकई काफी खतरनाक साबित हो सकता है। विशेषज्ञों की तमाम चेतावनियों पर गौर करने के बाद हमें समझ लेना चाहिए कि जब तक कोरोना की वैक्सीन नहीं आ जाती, तब तक कोरोना संक्र मण से बचाव के लिए मास्क का इस्तेमाल सबसे प्रभावी उपाय है। सर्दियों में कोरोना का संक्रमण तेजी से बढ़ने की जिस तरह की रिपोर्टें आ रही हैं, ऐसे में बेहद ज़रूरी है कि हम लापरवाही बरतकर अपने साथ-साथ दूसरों को भी मुश्किल में डालने से परहेज करें। यदि हमने सामाजिक दूरी और मास्क पहनने जैसी हिदायतों को दरकिनार किया तो संक्र मण का स्तर काफी ऊपर जा सकता है और हालात बिगड़ सकते हैं।

(अदिति)