विरोधाभासों के जादूगर बाबूराव पटेल

दिलीप कुमार अपने अभिनय के दम पर ही हीरोज़ के हीरो थे। इसलिए क्या कोई यह कह सकता है कि दिलीप कुमार को एक्टिंग नहीं आती थी? जी, आपने सवाल सही पढ़ा और ऐसा वास्तव में कहा गया। हुआ यूं कि 1944 में दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वारभाटा’ प्रदर्शित हुई। ‘फिल्म इंडिया’ के सम्पादक बाबूराव पटेल (1904-1984) ने इस फिल्म की समीक्षा की और दिलीप कुमार के बारे में लिखा, ‘यह नया हीरो खून की कमी का शिकार लगता है... दुबला पतला... जैसे लम्बी यातनाएं बर्दाश्त करने के बाद जेल से भागा हुआ कैदी। स्क्रीन पर उसकी उपस्थिति दोनों हंसी व निराशा उत्पन्न करती है। जहां तक इसकी एक्टिंग का प्रश्न है तो वह पूर्णत: शून्य है; इसे एक्टिंग आती ही नहीं है।’ अफसोस! इन पंक्तियों की सत्यता को जांचने के लिए ‘ज्वारभाटा’ का एक भी प्रिंट अब उपलब्ध नहीं है। इसके बाद बॉम्बे टॉकीज की ही ‘प्रतिमा’ (1945) आयी और वह भी बिना प्रभाव डाले थिएटरों से उतर गई। तीसरी फिल्म ‘मिलन’ (1946) को सफलता मिली और आलोचक दिलीप कुमार पर बतौर एक्टर ध्यान देने लगे। फिर ‘जुगनू’ (1947) आयी, जिस पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध भी रहा और फिर वह ब्लॉकबस्टर साबित हुई, जिससे दिलीप कुमार बतौर लीजेंड स्थापित हो गये। लेकिन बाबूराव पटेल प्रभावित नहीं हुए और उन्होंने इस फिल्म को ‘गंदी, वीभत्स व अश्लील’ बताया।
बाबूराव पटेल ने 1935 में ‘फिल्म इंडिया’ का प्रकाशन आरंभ किया था। यह पत्रिका 1960 तक बॉलीवुड की सबसे असरदार पत्रिका रही, जिसमें कलाकारों के करियर बनाने व बिगाड़ने की क्षमता थी। इसलिए हर कोई उससे सहमा-सहमा रहता था। इसे शुरू से अंत तक स्वयं बाबूराव पटेल ही लिखा करते थे, हां, कभी कभी वह इसमें ख्वाजा अहमद अब्बास को भी लिखने का अवसर प्रदान करते थे। बाबूराव की समीक्षा बिना लाग लपेट के एकदम स्पष्ट होती थी, जिसमें वह फिल्म या परफॉरमेंस की गुणवत्ता को व्यक्त करने के लिए न गोलमोल शब्दों का प्रयोग करते थे और न ही किसी को बख्शते थे। एक्टर्स की आयु, फीचर्स, एसेट्स आदि पर बेबाक टिप्पणी करने से बाज़ नहीं आते थे, इसलिए ‘ज़िद्दी’ (1948) अगर ‘स्टुपिड एंड बोरिंग’ थी तो ‘मिस कोकाकोला’ (1955) ‘अनअट्रेक्टिव’, लेकिन जब वह किसी कलाकार या फिल्म को अपने पैमाने पर योग्य पाते तो तारीफों के पुल बांधने में भी पीछे नहीं हटते थे। बाला सरस्वती का नृत्य पसंद नहीं आया तो लिखा, ‘जैसे आंखों में हाथी का बच्चा चक्कर काट रहा हो।’ एक अभिनेत्री के अभिनय पर उन्होंने लिखा, ‘वह उलटी शटलकॉक की तरह दिखायी देने लगी थी।’ अपने इन्हीं गुणों या अवगुणों के कारण ही ‘फिल्म इंडिया’ को फिल्म पत्रकारिता में संस्था बना दिया था और वह पहले फिल्म पत्रकार थे, जिनका पाली हिल पर बंगला था, जहां वह बड़े-बड़े निर्माताओं, निर्देशकों व एक्टर्स को एक दूसरे को चाय आदि सर्व करने पर मजबूर कर देते थे।
‘फिल्म इंडिया’ को बाबूराव ने केवल फिल्मों तक सीमित नहीं रखा। उसमें वह राजनीति, समाज, धर्म, घरेलू मामलों, वर्ल्ड अफेयर्स आदि सबके बारे में लिखते थे। पत्रिका का सवाल-जवाब का कॉलम विशेषरूप से विख्यात था, जिसमें स्कूल ड्रापआउट बाबूराव अपनी ही विशिष्ट शैली में उत्तर देते थे। जुलाई 1947 के अंक में एक पाठक ने सर्वश्रेष्ठ भारतीय राजनीतिज्ञ का नाम मालूम किया, बाबूराव ने जवाब दिया, ‘मुहम्मद अली जिन्ना। उन्हें वह मिला जो उनके पास नहीं था। अन्यों ने वह खो दिया जो उनके पास था।’ कुछ अन्य प्रश्न व जवाब देखिये- क्या गांधी जी कभी आपके सपने में आये हैं? उत्तर- मेरे सपने रंगीन होते हैं, गांधी जी उनमें आने का खतरा मोल नहीं ले सकते। एक बार एक पाठक ने मालूम किया कि बाबूराव आप इतने मशहूर हैं तो चुनाव में खड़े क्यों नहीं हो जाते? उन्होंने जवाब दिया, ‘सिर के बल खड़ा होकर पैरों से वोट करूं। नहीं सर, मैं इस तरह समय बर्बाद करने में विश्वास नहीं रखता।’ लेकिन इसके बावजूद वह 1957 में हिन्दू महासभा के टिकट पर ग्वालियर से लोकसभा का चुनाव लड़े, हार गये। फिर 1962 में अपने गृह प्रदेश गुजरात की एक सीट पर खड़े हुए, हार गये, लेकिन 1967 में शाजापुर से स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में लोकसभा पहुंचे।
बहरहाल, ‘बाबुल’ (1950) में अपने शानदार परफॉरमेंस व टैलेंट से दिलीप कुमार ने बाबूराव पटेल को भी अपना मुरीद बना लिया और उन्होंने अपनी समीक्षा में लिखा, ‘यह महान कार्य है और जिस सहजता से दिलीप कुमार ने अपना किरदार निभाया है उससे प्रतीत होता है कि इस व्यक्ति ने अपने निजी जीवन में इसी किस्म के दर्द व कुंठा भरे पल गुज़ारे हैं।’ ज़िंदगी ने पूरा चक्र लगा लिया था। बाबूराव पटेल ने 1951 में ‘फिल्म इंडिया’ के कवर पर दिलीप कुमार की रंगीन तस्वीर प्रकाशित की। दोनों गहरे दोस्त बन गये। यह दोस्ती उम्र भर चली और इतनी गहरी थी कि दिलीप कुमार ने अपने जीवन में केवल एक कमर्शियल विज्ञापन किया और वह बाबूराव पटेल मदर इंडिया प्रोडक्ट्स के लिए था, मुफ्त।
बाबूराव अजीब विरोधाभासों से भरे व्यक्ति थे। वह मुस्लिमों से बहुत नफरत करते थे, लेकिन उनके सबसे अच्छे दोस्त दिलीप कुमार, महबूब खान और मधुबाला थीं। देश विभाजन के बाद महबूब खान पाकिस्तान चले गये थे, लेकिन बाबूराव ने उन्हें वापस भारत बुला लिया। मधुबाला अंग्रेजी सीखना चाहती थीं तो उन्होंने अपनी तीसरी पत्नी सुशीला रानी को यह ज़िम्मेदारी सौंप दी। उनकी एक बेटी ने जावेद नामक व्यक्ति से शादी की तो बाबूराव ने खुशवंत सिंह से कहा, ‘सभी मुस्लिम बुरे नहीं होते हैं, जावेद बहुत अच्छा लड़का है।’ बंजारा बाबूराव का सारस्वत ब्राह्मण सुशीला रानी और उनकी गायकी पर दिल आ गया। उन्हें पटाने के लिए उनके लिए फिल्म ‘द्रौपदी’ बनायी, जो सफल रही, लेकिन विवाह के बाद सुशीला रानी को न फिल्मों में काम करने दिया और न ही गाने दिया।


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