सावधान, आगे आग है!

हाल ही में रामनवमी की शोभायात्रा को लेकर जो दु:खद और साम्प्रदायिक घटनाएं घटी हैं, उनसे देश के सभी लेखक, बुद्धिजीवी व पत्रकार चिंतित हैं। अंधश्रद्धा कितनी घातक और नुक्सानदेह है, इसका पता हमें बार-बार चलता रहा है। हम प्रकाश युग या विज्ञान युग की जगह क्या किसी अंधकार युग में शामिल हो गये हैं? उधर राजनीतिक परिदृश्य देखें कहीं कोई राजनेता झाड़फूंक करने वालों के बीच जा रहा है। कभी किसी प्रांत में बारिश नहीं हो रही तो यज्ञ करवाया जाता है और यज्ञ के आयोजन में सरकारी खजाने का प्रयोग हो रहा है। डा. नरेन्द्र दाभोलकर  के खिलाफ संघर्ष में ही शहीद हुए थे। उन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात करते हुए कहा था- ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मायने दुनिया की तरफ एक अलग नज़र से देखना है।’
कोपर्निकस जैसे महान वैज्ञानिक के पहले लोग समझते थे कि सूर्य पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमता है। जबकि उसने गणितीय ज्ञान के आधार पर बताया कि दरअसल पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द घूमती है। कोपर्निकस की इस खोज़ के चलते दुनिया का केन्द्र बिन्दु बदल गया जिसके बाद विज्ञान के क्षेत्र में भारी परिवर्तन आये और दुनिया को अपने युग छोड़कर उन परिवर्तनों को स्वीकार करना पड़ा। स्टीफन हाकिंग ने बहुत सुंदर कहा है ‘ज्ञान का सबसे बड़ा दुश्मन अनभिज्ञता नहीं है, बल्कि ज्ञान का विभ्रम है।’ जब हम यह कहते हैं कि सभी धर्म इंसानियत का पाठ ही पढ़ाते हैं, फिर धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता और मारकाट का क्या मतलब है? क्या यह इंसानियत का हनन नहीं है?  जाने माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा का एक सवाल है- एक योद्धा और शासक के तौर पर टीपू सुल्तान विवादास्पद है। पर हिन्दुत्ववादी इतिहासकार 18वीं शताब्दी के इस शासक को जिन वजहों से गुनाहगार मानते हैं, उनकी सज़ा 21वीं सदी में कानून का पालन करने वाले मुस्लिमों को क्यों मिलनी चाहिए? कहते हैं कि ब्रिटिश राज से पहले हिन्दु मुस्लिमों में सौहार्दपूर्ण संबंध थे। परन्तु वह कहते हैं कि हमारे इतिहास की बड़ी अवधि में ये दोनों समुदाय साथ-साथ रहते थे। उनके दैनिक जीवन में विवाद से ज्यादा सहअस्तित्व दिखता था और उनका आर्थिक जीवन एक दूसरे पर निर्भर था। अंतर धार्मिक विवाह का कल्पना तक नहीं की जा सकती थी और धर्मों के दायरे से बाहर इनमें गहरी दोस्ती भी दुर्लभ थी पर पिछली कई सदियों में उन्होंने गलियों, बाज़ारों और धार्मिक आस्था के स्थलों में भी एक दूसरे के साथ चलना सीखा था। किताब के एक भाग में उन तीर्थस्थलों का ज़िक्र है, जहां हिन्दू-मुस्लिम दोनों जाते रहे हैं। इनमें सड़क किनारे की एक मुस्लिम संत की दरगाह भी थी, जहां सभी ग्रामीण पीर को श्रद्धा सुमन चढ़ाने पहुंचते थे और अपने मुस्लिम भाइयों को देखकर अनेक हिन्दू कोई नया काम शुरू करने से पहले पीर का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते थे।
हिन्दू-मुसलमान भेदभाव के लिए अंगे्रज सरकार की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वे नहीं चाहते थे कि दोनों इकट्ठे होकर उनके विरुद्ध खड़े हो जायें, ताकि उन्हें भारत जल्दी छोड़ना पड़े। इसलिए उन्हें समानता समता की जगह भेदभाव पसंद था। शिक्षाविद कृष्ण कुमार ने भारत और पाकिस्तान में इतिहास की स्कूली पाठ्य पुस्तकों का एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। किताब प्रिज्यूडिस एंड प्राइड में उन्होंने जोर देकर कहा है कि हर समाज इस बात को लेकर चिंतित रहता है कि उनके बच्चे अतीत के बारे में क्या सोचेंगे क्योंकि अतीत का ज्ञान उन अभिवृत्तियों और विश्वासों से सीधे तौर पर जुड़ा होता है जो एक समाज के अस्तित्व के लिए ज़रूरी होते हैं। ऐसे में होता यह है कि बच्चों की शिक्षा में मुख्य बल उनके समग्र बौद्धिक विकास की बजाय राष्ट्र-निर्माण में उन्हें भागीदार बनाने और इसके लिए उन्हें तैयार करने पर ही होता है। बच्चों में राष्ट्रीय चेतना का विकास करने के लक्ष्य को हासिल करने के फेर में अक्सर इतिहास को अपेक्षित विचारधारा में ढालने का एक साधन बना दिया जाता है। कृष्ण कुमार को लगा कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही जगहों पर इतिहास के पाठ्यक्रम और पुस्तकें तैयार करते हुए बच्चों के दृष्टिकोण, उनके बौद्धिक विकास और अतीत में उनकी रुचि जगाने की कोई परवाह ही नहीं की जाती।
राष्ट्रवाद की ऐसी व्यवस्था गलत परिणाम की तरफ ले जा सकती है। हम भारतीय जितना अधिक से अधिक हो सके, बच्चों को साम्प्रदायिकता की ज्वाला से दूर रख सकें, उतना ही बेहतर होगा। राजनीति जहां भी साम्प्रदायिकता की आग में जलाने की कोशिश करे, उससे एक होकर समझदारी से निपटें।