मेरा भारत महान

यहां ज़माना नायकों का नहीं, खलनायकों का है। समय देख कर रंग बदल लेने वाले लोगों का है। विनम्रता नहीं गाली देने का है। फिर गाली दे सकने की अपनी ताकत पर गर्व करने का है। देखते ही देखते सब कुछ बदल गया। अब नेता वह है जो आपके लिए ख्याली पुलाव पकाने में माहिर हो। समय पड़ने पर आपको आसमान से तारे भी तोड़ कर लाने का वायदा कर सके। समय गुज़र जाये तो आसमान को तह करके वह अपने थैले में डाल ले, तारे जो तोड़े हैं, उन्हें सलम सितारों की तरह अपने अंमरखे में टांकने में मस्त रहता है।
वैसे आजकल वर्दियां बदलने का ज़माना है। क्रांतिवीर वह जो क्रांति को बदलाव बना अपने घर की फुनगी पर टांग ले, और वीरता यह कि अपना वचन आपके मुंह पर ही तोड़ दे। फिर बेपरवाह हो कर आपके वचनों के पूरा होने की उम्मीद को आपका स्मृति भ्रम बता दे। पहले लोग जब राजनीति में आते थे, तो घोषणा करते कि हमने जन-सेवा के लिए, दलितों के उद्धार के लिए, उत्पीड़न के उन्मूलन के लिए अपना जीवन न्यौछावर करने का संकल्प लिया है, या कि राजनीति को देश और समाज के कायाकल्प का माध्यम बनाएंगे। परन्तु जा रे ज़माना! अब तो सब प्राथमिकताएं बदल गईं। अपनी और अपनी नई पीढ़ी की सेवा से फुर्सत मिले तो जन-सेवा का संकल्प करें। हां हां, बातूनी संकल्पों की यहां कमी नहीं है। बेशक परिवारवाद को जड़ मूल से उखाड़ देने का पक्का संकल्प है, लेकिन अपना नहीं पड़ोसी के परिवारवाद का क्योंकि सच यही है कि उसे जड़ से नहीं उखाड़ेंगे तो खुद अपने को उखड़ा हुआ पाओगे। जी हां, साधारण जन का कष्ट देखो, उसकी ज़िन्दगी को खुशनुमा बनायेंगे, लेकिन उद्दम नहीं, अनुकम्पा की घोषणा के साथ। यहां राजनीति का शीर्ष पुरुष बनने के लिए अकुम्पा की बारात सजाने या रियायतों की रेवड़ियां बांटने की मैराथन हर चुनावी घोषणा से पहले सजती है। उन आर्थिक ज्ञानियों को कतार से बाहर कर दिया जाता है, जो कहते हैं बन्धु, घोषणा करने से पहले यह तो देख लो कि तुम्हारे खजाने में दाम है या नहीं। वैसे वायदे जो कभी वफा नहीं होते, उन्हें कर देने में कोई दाम नहीं लगता। पुराना गीत था ‘कसमेें वायदे, प्यार वफा, सब बाते हैं बातों का क्या?’ अब इसी बात को बार-बार दुहराने का मौसम आ गया। कल उनको पटाने के लिए जो मीठी बात कही थी, उसे याद रखने की ज़रूरत क्या? हर नई सुबह नया नारा, नया प़ैगाम रचने की प्रेरणा मिलती है। मंचों से बातों का यह सैलाब आसमान की ओर उछाला जाता है, तालियों की गड़गड़ाहट में यह उछाल कहीं गुम हो जाती है, और आदमी इंतजार करता है, नई सवेर का जब कोई नारा, नया लुभावना फिकरा आसमान की ओर उछाला जाएगा, लेकिन वही कहीं गुम हो जाएगा। नीचे कभी इस वायदे को इस फटीचर धरती को संवारने के लिये उतरते देखा नहीं जाता।
बहुत सब्र करते हैं, इस धरती के लोग। उन्हें कण्ठस्थ है ‘वज़ीर का बेटा वज़ीर, अफसर का बेटा अफसर और फटीचर का बेटा फटीचर’ होता है। बेशक मुहाविरा या यह सब्र बाक्स बहुत पुराना है, लेकिन आपको तो खबर है न कि नया नौ दिन, और पुराना सौ दिन। बहुत अभिमान है हमें अपने बीते युग की सांस्कृतिक गरिमा पर। आजकल तो वैसे भी खोद-खोद कर पुरातन के सच को निकाला जा रहा है। इसे संस्कृति का पुनरुत्थान कह दिया जाता है। प्रतिबद्ध रहें अपने उस अतीत से, उस गुज़रे ज़माने से, जो आपके कल का महिमामण्डन करके आपके आज को बड़प्पन का ताज पहना रहा है।
याद रखो दुनिया का गुरुदेव बनना है हमें, हज़ारों साल पहले के अपने सांस्कृतिक गौरव का बखान करते आप थकें नहीं। हां बीच में बीते मध्ययुग की बात न करना, जब विदेशियों ने हमें अपनी जंज़ीरों से बांध रखा था। दासता के बंधन, जिन्हें काटने के बलिदानी संघर्ष में न जाने कितने रणबांकुरे शहीद हो गये थे, लेकिन बीच का यह अन्तराल रुचिकर नहीं। सीधे आज पर आ जाओ। आधुनिक बनता हुआ देश है हमारा। चुनिन्दा लोगों के पर्स से लेकर उनकी बहु-मंजिली इमारतों तक को भरा-पूरा करती है अपनी तरक्की। दस बरस पहले यह देश आर्थिक शक्तियों की दसवीं पायदान पर था, आज पांचवीं पर आ गया। शीघ्र ही इसका नम्बर तीसरा होगा, और खुदा खैर करे, आज़ादी का शतकीय उत्सव मनायएंगे, तो प्रभु कृपा से हमारी आर्थिक शक्ति बढ़ कर नम्बर एक पर चली जाएगी।
नि:संदेह इस नई शक्ति ने दानवीरता के वही आयाम स्थापित किये हैं। देश में अस्सी करोड़ लोगों को रियायती अनाज खिलाने का यह रिकार्ड बना रहेगा। भाई जान, देश का आर्थिक विकास एक तरफ, और गरीब को रोटी खिलाने का दया-धर्म दूसरी तरफ। आखिर बड़े लोगों को ़गरीबों को रोटी खिला कर पुण्य भी तो कमाना है। हम महंगाई पर काबू पायेंगे, लेकिन तुलनात्मक रूप से। यह अवश्य बता देंगे कि पिछले साल के मुकाबिले हमारे यहां महंगाई कम है। ये लोग जो न खाने को, न जीने को और न रहने का सच झेल नहीं पाते। वह लौट कर अपने आपको नशों की किसी लुटिया में डूबे उसे नशे का समुद्र कहते हैं। लेकिन ‘मज़र् बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’, के सच की तरह विदेशों से नामंजूर ये आधे-अधूरे लोग जब लौट आते हैं तो अवैध नशे के सागर में डुबकी लगा लेने के बावजूद अध:-पतन ही छू पाते क्योंकि मंज़िलें और भी हैं। यहां बीच में खड़े रहते हैं, नशा प्रसार रोकने वाले जायज़-नाजायज़ अलम्बदार। अब इनको कौन कहे कि आप आस-पास झांक कर देख लीजिये। शून्य में अटके हुए लोगों को एक ऐसा भविष्य मिलेगा जब सब लोग अपना आदर्श बघारते हुए ही एक कण्ठहार अपने गले में पहन कर चिल्लायेंगे, ‘मेरा भारत महान।’