प्रेरक प्रसंग - राबिया का मानव प्रेम

एक दिन संत राबिया एक धार्मिक पुस्तक पढ़ रही थी। अचानक उनकी निगाह एक पंक्ति पर गयी- ‘बुरों से घृणा करो’, वे कुछ पल के लिए वही रूक गयी। फिर कुछ सोचकर उस पंक्ति को काट दिया। कुछ दिनों बाद एक संत कहीं से घूमते हुए उनके आश्रम में आये। उन्होंने संत राबिया से कोई धर्मग्रंथ पढ़ने को मांगा। संयोगवश राबिया ने उन्हें वही धर्मग्रंथ पढ़ने को दे दिया, जिसमें संशोधन किया था। अचानक संत की निगाह उस कटी हुई पंक्ति पर गयी। उन्होंने क्रोध मिश्रित वाणी में राबिया से पूछा -‘इस पंक्ति को किसने काटा है?’
राबिया शांत स्वर में बोली- ‘मैंने ही।’
इतना सुनते ही संत गुस्से से राबिया पर उबल पड़े और कहा- ‘आपको किसने अधिकार दिया है, धर्मगं्रथ में संशोधन करने का। धर्मग्रंथ में संशोधन करना कोई पुण्य का काम नहीं है। फिर आपने ऐसा क्यों किया?’ राबिया गम्भीर स्वर में बोली- ‘महात्मन्! मैं भी कुछ समय तक यही सोचती थी कि बुरों से घृणा करनी चाहिए, किन्तु जब मेरे हृदय में प्रेम की व्यापक बाढ़ उमड़ आयी तो मुझे अब पता ही नहीं चलता कि घृणा को कहां स्थान दूं!’ राबिया का उत्तर सुनकर संत निरूत्तर हो गये।

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