स्नेह-दीप

दीपावली अर्थात् दीपों का त्यौहार, मन की उमंगों का त्यौहार, खुशियां मनाने व बांटने का त्यौहार, पूरे वातावरण को प्रकाशमय करने का त्यौहार, अपने अन्तर का तम हरने का त्यौहार है। तभी तो इस त्यौहार का नाम आते ही हर त्यौहार-प्रेमी के मन में नया उत्साह भर जाता है। लोग कितने दिन पहले से ही घर की साफ-सफाई, रंग-रोगन तथा सजावट में लग जाते हैं।
शताब्दियां बीत जाने पर भी आज भी हमारी आस्था, हमारी परम्पराएं कायम हैं तभी तो सतयुग से लेकर आज तक हम प्रतिवर्ष यह त्यौहार मनाते आ रहे हैं। श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर जैसे अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाकर उनका स्वागत किया था, ठीक वैसे ही गुप्ता परिवार भी अपने लाडले बेटे के स्वागत के लिए आतुर था। क्योंकि कई वर्षों पश्चात् वह भी एक तरह का वनवास काटकर अपने घर वापस आ रहा था, वह भी दीपावली के त्यौहार पर।
पुत्र के आगमन पर माता-पिता तो अति उत्साहित थे ही, मनीष के भाई-बहन भी पूरे जोश के साथ भाई के स्वागत की तैयारियां कर रहे थे। मनीष धनतेरस को आने वाला था इसीलिए गुप्ता जी ने एयरपोर्ट से उसे रिसीव करने के लिए टैक्सी भी बुक कर दी थी। मनीष अमरीका में एक बड़ी आईटी कम्पनी में सीनियर मैनेजर था, पिछले पांच सालों से वह एक बार भी घर नहीं आया था। गुप्ताजी चाहते थे कि वह वापस भारत आ जाए और यहां शादी करके अपनी गृहस्थी बसा ले। लेकिन जब उन्हें दूसरे लोगों से पता चला कि उनके लड़के ने ग्रीनकार्ड होल्डर बनने के लिए वहां की एक लड़की से शादी कर ली है और अब वह वहीं सेटल हो गया है तो उन्होंने उसे एक बार बहू को साथ लेकर घर आने को कहा।
गुप्ताजी के बार-बार आग्रह करने पर वह दीपावली पर अपनी पत्नी के साथ भारत आने को राजी हो गया था और उसके इस फैसले से पूरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई थी। बेटा-बहू पहली बार घर आ रहे है और वह भी दीवाली के त्यौहार पर तो सभी उनकी हैसियत के अनुसार उनकी आवभगत में कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहते थे। चाहे इसके लिए उन्हें स्वयं कितनी ही तकलीफ क्यों न उठानी पड़े।
गुप्ताजी एक साधारण व्यापारी थे। व्यापार के नाम पर उनकी कपड़े की एक छोटी सी पुश्तैनी दुकान थी, उसी से उनके घर का खर्च चलता था। एक तो यह महंगाई और ऊपर से बैंक का कर्ज, जो उन्होंने मनीष की पढ़ाई के लिए लिया था, चुकाते-चुकाते उनकी तो कमर ही झुक गई थी। सोचा था कि पढ़-लिखकर मनीष जब नौकरी करने लगेगा तो अपनी पढ़ाई के लिए लिया हुआ लॉन चुका देगा। लेकिन उसने तो अमरीका जाकर घरवालों से ऐसा मुंह फेरा जैसे कोई उसका अपना है ही नहीं। कभी भी उसने ये नहीं पूछा- ‘पिताजी! आपने मेरी पढ़ाई के लिए जो लॉन लिया था, उसे कैसे चुका रहे हैं और बाकी भाई-बहनों की पढ़ाई कैसी चल रही है?’
इन सबके बावजूद मिसेज गुप्ता बेटा-बहू के आगमन की खुशी में ढेर सारे पकवान बनाना चाहती थी। नए पर्दे और कालीन खरीदना चाहती थी। पूरे घर को दीयों की रोशनी से जगमग करना चाहती थी। पर हाय री महंगाई! उनको हर चीज की खरीददारी के लिए संकोच करना पड़ा। और तो और मिट्टी के दीए जो कल तक उनकी पहुंच के भीतर थे आज अचानक इतने महंगे हो गए कि उनको खरीदने में भी संकोच करना पड़ा और चाइनीज दीए और फैन्सी बल्बों से ही काम चलाना पड़ा।
गुप्ता जी के बेटा-बहू धनतेरस के दिन ही आने वाले थे तो मिसेज गुप्ता चाहती थीं कि बहू के लिए एक नया सोने का सेट खरीदेंए, उसे मुंह दिखाई में देने के लिए। परन्तु सोने के भाव सुनकर तो उन्हें जैसे लकवा ही मार गया। इस भाव में तो एक अंगूठी खरीदना ही मुश्किल था। तब उन्होंने निश्चय किया कि वे अपना वही सेट बहू को दे देंगी जो उन्होंने पाई-पाई जोड़कर अपनी बेटी के लिए खरीदा था, जब सोने के भाव अब की तुलना में आधे थे।
धनतेरस के दिन सभी सुबह से ही मनीष और उसकी पत्नी का बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। गुप्ताजी टैक्सी वाले को फोन करने ही वाले थे कि इतने में उनके फोन की घण्टी बजी। फोन मनीष का ही था, वह कह रहा था- ‘हैलो पापा! सॉरी, आई काण्ट कम। मेरे ऑफिस में एक बहुत ज़रूरी काम आ गया है। एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट मिला है और उसका डायरेक्टर मैं ही हूं। अगर मैंने ये प्रोजेक्ट छोड़ दिया तो ऑफिस वालों का बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा और मेरी नौकरी भी जा सकती है। प्लीज पापा! मुझे समझने की कोशिश कीजिए। आइ एम सॉरी पापा!’ कहकर उसने फोन काट दिया। 
इधर गुप्ताजी के हाथ से भी फोन छूट गया। वे धम्म से कुर्सी पर बैठ गए। किसी अनहोनी की आशंका में सब घबरा गए और गुप्ताजी से पूछने लगे। लेकिन गुप्ताजी का चेहरा देखकर मिसेज गुप्ता बिना पूछे ही सब कुछ समझ गई। उन्हें पहले ही कुछ-कुछ सन्देह हो गया था जब उनके बेटे ने फ्लाइट के रवाना होने के टाइम से अब तक फोन नहीं किया। लेकिन शायद वे एक मां के दिल को तसल्ली दे रही थी कि उनके बेटे को मां-बाप और भाई-बहन की याद यहां तक खींच लाए। परन्तु सच्चाई अब शीशे की तरह साफ थी। उन्हें अब इस बात का पूर्ण अहसास हो गया कि उनका बेटा पैसे की चकाचौध में, अपनी ऐशो आराम की जिन्दगी में अपने मां-बाप को भूल चुका है। वह वापस इस साधारण घर में रहने के लिए कभी नहीं आएगा। प्रोजेक्ट तो एक बहाना है न आने का, हो सकता है उसने टिकटें ही बुक न कराई हों।
कहां तो वह धनतेरस के दिन इतने उत्साह से बेटा-बहू का स्वागत करने को बेताब थीं, कहां अब उनका पूरा जोश और उत्साह ठण्डा पड़ चुका था। उन्होंने दीए जलाए परन्तु लगा कि दीयों की रोशनी मद्धिम पड़ती जा रही है, उसमें वह चमक नहीं है, जो पहले हुआ करती थी। दीवाली के दिन भी उन्होंने दीए जलाकर पूरे घर को जगमगाना चाहा परन्तु तेज़ हवा के थपेड़े खाकर वे शीघ्र ही बुझ गए। इधर मिट्टी के दीयों की रोशनी ठण्डी पड़ गई थी, उधर संबंधों की ऊष्मा भी ठण्डी पड़ गई थी। दोनों के बीच चाइनीज बल्बों की लड़ियां शान से जगमगा रही थीं। अब तो दीवाली उनके लिए परम्परा का निर्वाह मात्र बनकर रह गई थी। अपने आगमन की झूठी सूचना देकर उनके बेटे ने न केवल उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई थी अपितु हमेशा के लिए उनके हृदय में रोशन ‘स्नेह-दीप’ को भी बुझा दिया था। **