कितनी उचित है अधिक बच्च्े पैदा करने की अपील ?

पिछले महीने आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने अपने प्रदेश के लोगों से ज़्यादा बच्चे पैदा करने की अपील की थी। इस खबर पर जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, उतनी हुई नहीं। ये बयान लोकतंत्र के भीड़तंत्र वाले स्वरूप को प्रकाश में लाते हैं। लोकसभा सीटों का परिसीमन हो रहा है। परिसीमन आबादी के अनुपात में होगा। 
दक्षिण भारत के राज्यों में साक्षरता का प्रतिशत उत्तर भारत की तुलना में अधिक है। जब साक्षरता बढ़ती है, तो जन्म दर घटती है। पढ़ा-लिखा आदमी सोचता है कि अपने बच्चों को अच्छा जीवन एवं अच्छी शिक्षा देनी है, तो यह तभी सम्भव होगा, जब बच्चों की संख्या न्यूनतम हो। लेकिन लोकतंत्र गुणतंत्र नहीं, भीड़तंत्र है। इसमें संख्याबल की तूती बोलती है। जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।
आबादी के अनुपात में लोकसभा सीटों का परिसीमन होगा तो उत्तर भारतीयों के पास ज़्यादा सीटें होंगी, दक्षिण भारतीयों के पास कम। राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर भारतीयों की आवाज़ बुलंद होगी, दक्षिण भारतीयों की नहीं। दक्षिण का कोई दल दिल्ली में अपना दमखम तभी दिखा सकेगा, जब उसके पास ज़्यादा सीटें होंगी। लोकसभा में 16 सीटों के दम पर ही तो चन्द्रबाबू नायडू केन्द्र में गठबंधन सहयोगी बन बैठे हैं और पुरस्कार के रूप में अपने प्रांत के लिए विशेष पैकेज लेकर आए हैं। दूसरे राज्य ऐसा क्यों न करना चाहेंगे? आप सोच सकते हैं कि आज जब बढ़ती आबादी और उससे पृथ्वी के संसाधनों पर पड़ रहे दबाव से प्रकृति, पर्यावरण और स्वयं मनुष्य जाति पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है, तब कोई भी नेता लोगों से ज़्यादा बच्चे पैदा करने की अपील कैसे कर सकता है? लेकिन चुनावी लोकतंत्र में पार्टियों का इकलौता ध्येय सत्ता में अधिक से अधिक सहभागिता करना होता है।
उनकी योजना अगले पांच साल की होती है, अगले पचास साल की नहीं और उनकी चिंता के दायरे में उनका निर्वाचन क्षेत्र होता है, देश व समाज नहीं। एक कस्बे का चुनाव जीतने के लिए दुनिया में आग लगाने की भी ज़रूरत आन पड़े तो इससे सियासत के खिलाड़ी परहेज़ नहीं करते। जाति जनगणना की मांग के पीछे भी संख्याबल का गणित है। ओबीसी वोटों के लिए मारा-मारी है।
दक्षिण भारत के राज्यों की जो सोच है, वही सोच आज भारतीय मध्यवर्ग के भीतर भी पनप रही है। वे सोचते हैं कि क्या यह हमारा दोष था जो हम शिक्षित हुए, हमने परिवार नियोजन किया और बेहतर भविष्य की चिन्ता की? ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाला ज़्यादा प्रतिनिधित्व के दम पर वोटों की सियासत पर दबदबा कायम कर लेता है। 
आज के ज़माने में अधिक आबादी को राजनीतिक हथियार बनाया जा रहा है। ज़्यादा बच्चे पैदा करके ज़्यादा ज़मीनों पर कब्ज़ा करो, लोकतंत्र में अपना दबदबा बनाओ,  चुनावों के समीकरणों को बदलो, अब ये फार्मूला बन गया है।
आन्ध्र प्रदेश और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों ने अपने पढ़े-लिखे वोटरों से आबादी बढ़ाने की जो अपील की है, उसमें छिपी जनतांत्रिक विडम्बना को ध्यान से देखना होगा। (अदिति)

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