सरकारी माफियागिरी पर लगाम लगाता उच्चतम न्यायालय का फैसला  

9 नवम्बर कानूनी साक्षरता दिवस के रूप में मनाया जाता है। जब ऐसी घड़ी आती है, जब अपने हितों की रक्षा के लिए अदालत की तरफ मुंह करना पड़ता हो तो ऐसे वकील की खोज होती है जो पैरवी कर न्याय दिलाने में सक्षम हो। मतलब यह कि संविधान और उसके अंतर्गत गढ़े कानून आम आदमी की समझ में आना आसान नहीं है। कुछ दांव पेच पल्ले पड़ जायें इस बात को ध्यान में रख कर यह दिन मनाये जाने की शुरुआत हुई थी। 
सरकार की माफियागिरी पर लगाम 
उच्चतम न्यायालय में दसियों वर्ष से बहसबाज़ी में उलझा मुकद्दमा अब समाप्त होने के कगार पर है। हमारे देश में एक ओर प्राकृतिक रूप से प्राप्त स्रोतों का खज़ाना है और दूसरी ओर नागरिकों द्वारा अपनी बुद्धि, सामर्थ्य, कार्य कुशलता और परिश्रम से अर्जित विशाल कारोबार, व्यवसाय और एक एम्पायर है। बहुत-से लोभी, स्वार्थी, दबंग तथा देश-द्रोही जल, जंगल, ज़मीन जैसे संसाधनों और नदी के मीठे और समुद्र के खारे पानी तक को कब्ज़ा लेते हैं। कानून का डर नहीं, आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे नेताओं और सरकार का तो कतई नहीं। सांठगांठ, मिलीभगत पर कोई रोकटोक नहीं। इसी कारण वन विनाश, नदियां प्रदूषित और वायुमंडल ऐसा कि सांस लेने में भी तकलीफ हो। 
नकली समाजवाद को संविधान का अंग बना लेने के बाद से तो उन लोगों की पौ बारह हो गई जो देश की दौलत अपने वोट बैंक में बांटने की जुगत में लगे रहते हैं। उदाहरण यह है कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह देश से प्रकृतिक स्रोतों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक होने की बात करते हैं। कांग्रेस के राहुल गांधी कैसी भी सम्पत्तियां हों, निजी हों, सरकारी हों, सार्वजनिक हों या प्राकृतिक, सभी को जातियों की संख्या के आधार पर बांटने की बात गरीब से करने लगते हैं। 
कुछ उनके बहकावे में आ भी जाते हैं और यहां तक कि जब पुरुष और महिलाएं उनकी वाणी को सत्य मानकर अपना हिस्सा लेने पहुंचते हैं तो उनकी हालत नींद से जागने जैसी होती है जिसमें उन्हें अपने अमीर हो जाने का सपना दिखाई देने लगा था। उनके मित्र सैम पित्रोदा तो अमरीकी कानून भारत में लागू करने की सलाह देते हैं, जहां मरने के बाद आधी दौलत सरकार की हो सकती है। 
दुरुपयोग की व्याख्या 
जिस कानून की अब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उचित व्याख्या की है, उसके पहले हुए दुरुपयोग पर नज़र डालें तो सामने ऐसे दृश्य आने लग जाते है जिन्हें आप आंख फाड़कर देखने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश में अपने दल के महापुरुषों और यहां तक कि परिवार के सदस्यों की सबसे महंगे पत्थरों की मूर्तियां लगाने के लिए बेशकीमती ज़मीन हथिया कर स्मारक बनाने का काम है। उसके बाद आप दिल्ली में राजघाट के इलाके का दौरा कर लीजिए। महात्मा गांधी की समाधि तो समझ में आती है लेकिन बाकी किसी की भी मृत्यु के बाद लम्बे चौड़े क्षेत्रफल पर बने स्मृति स्थलों को देखने की जिज्ञासा शायद ही किसी आम आदमी में होती होगी। 
छलावे का खुलासा 
देखा जाये तो सार्वजनिक सम्पत्ति को किस तरह अपना बनाया जा सकता है उसमें सब से पहले राष्ट्रीयकरण आता है। अच्छे-खासे मुनाफे में चल रहें बैंकों का सरकारीकरण ही देख लीजिए। लगभग सब ही घाटे में चल रहे हैं। उनके काम करने का तरीका ऐसा है कि ग्राहक किसी सुविधा के मिलने या मज़बूरी या फिर कोई घोटाला करने की नीयत से उनमें खाता खोलता है। उसके बाद सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हैं जो पहले निजी लोगों की मल्कियत थे और उन्हें सरकारी संस्थान बना दिया गया। बहुत-से लोग इसके खिलाफ अदालतों में भी गये लेकिन ‘समर्थ को नहीं दोष गुसाईं’ (अर्थात समर्थ को दोष न दें) की कहावत का असर देखकर चुप हो गये। गिनती के पीएसयू (पब्लिक सैक्टर अंडरटेकिंग) हैं जो देश की शान कहे जा सकते हैं, बाकी सब तो देश की धरती पर बोझ समान हैं। 
दूसरा तरीका है सरकार द्वारा अपनी बनाई किसी विकास नीति पर अमल करने के लिए ग्रामवासियों, किसानों या जिसकी ज़मीन बीच में आये, उसका अधिग्रहण कर लिया जाये और अपनी मनमज़र्ी से मुआवज़ा दिया जाये। कोई खुश नहीं होता और बरसों तक बैठकें और अदालती कार्यवाहियां चलती रहती हैं। उस ज़मीन का कोई इस्तेमाल न होने से वह बंजर, पथरीली और हरियाली विहीन हो जाती है। इसके बाद आता है राजा की तरह राजदंड का उपयोग कर कानूनन कब्ज़ा कर लेना जिसकी न सुनवाई हो सकती है और न अपील। कुछ सम्पत्तियां हैं जिन्हें वाजिब दाम और आपसी समझौते के आधार पर सरकारें खरीद सकती हैं। देखा जाये तो यही एक तरीका न्यायसंगत है जिसमें क्रेता और विक्रेता दोनों की सहमति होती है। अंतिम उपाय है कि अपनी चल और अचल सम्पत्ति देश में किसी भलाई के काम के लिए स्वेच्छा से दान कर दी जाये। यहां बड़े पैमाने पर चलाये गये भू-दान आन्दोलन की सफलता का ज़िक्र किया जा सकता है। पंडित मदन मोहन मालवीय तथा अन्य महापुरुषों का स्मरण हो आता है जिन्होंने झोली फैलाकर दान मांगा ताकि कोई शिक्षण संस्थान, चिकित्सालय या किसी सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाए की योजना पर अमल ही सके। भीख मांगने की सीमा लांघ गये, दुरदराने का भी बुरा नहीं माना। 
सच का सामना 
देश में दो ही तरह से धन दौलत का संग्रह हो सकता है। एक सरकार के स्वामित्व में और दूसरा निजी हाथों में। उम्मीद है कि नई व्यवस्था से इन दोनों में संतुलन बनाया जा सकेगा। कुछ मुट्ठी भर उद्योगपतियों के हाथों में इसका भंडारण होने पर लगाम लग सकेगी। इसी तरह राजनीतिज्ञों और उनके सत्ताधारी होने पर वे कोई ऐसा फैसला नहीं कर पायेंगे जिससे राष्ट्रीय हितों को क्षति पहुंचे। हो सकता कि घोटालों के जन्म पर तथा निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर गलत काम करने की योजना बनाने पर रोक लगे। 
जब कोई सत्ताधारी या विपक्षी देश की सम्पत्ति अपनी इच्छानुसार बांटने की बात करे तो लोग इस कानून का हवाला देकर उसके विरोध में खड़े हो जाएं। अपने अधिकार पाने की लड़ाई पीढ़ी दर पीढ़ी न लड़नी पड़े। कभी भी कहीं भी किसी माफिया के पैदा हो जाने की संभावना की जड़ पर ही प्रहार संभव हो। दूसरे की कमाई प्रतिष्ठा, नेकनामी और औद्योगिक साम्राज्य को जनता की भलाई के नाम पर कब्ज़ाने की मानसिकता पनप न पाये। 

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