एक हैं तो सेफ हैं : नारा प्रधान राष्ट्र
प्रारंभ से ही हमारा देश नारा प्रधान राष्ट्र रहा है। हालांकि बदलते वक्त के साथ इन नारों का अर्थ और उद्देश्य भी बदलता रहा है। शांति, स्वतंत्रता से स्वार्थ अथवा सत्ता के निहितार्थ अशोक की ‘जीयो और जीने दो’ सुभाष की ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ से लेकर अच्छे दिन, खेला हौवे आदि सभी नारें समय-समय पर धूम मचाते हुए अपने उद्देश्य को हासिल करने में सफल रही है। भारतीय नर-नारियों के लिए नारे जारी कर व्यावसायिक प्रतिष्ठान अथवा राजनीतिक पार्टियां नकद नारायण और नवरस का आनंद लेने का मोक्ष प्राप्त करते हैं।
‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ का वैश्विक स्लोगन देकर टेलीकॉम कंपनियों द्वारा मानव जीवन को दिन-रात मोबाइल और इंटरनेट के मायाजाल और भूल-भुलैया में भटकाने का, तो जुबां केसरी के नाम पर केसरयुक्त कैंसर की बिक्री बढ़ाने तक में भारतीय नारों के योगदान को भूलाया नहीं जा सकता है। जिस देश में डीयो लगाने से युवतियां बेरोज़गार लड़कों के पास खींची चली आती है और कोल्डड्रिंक पीने से डरा हुआ मनुष्य जीत के लक्ष्य तक पहुंचा पाता है, वैसे पावन भूमि पर यदा-कदा राजनीतिक पार्टियां भी मोहक स्लोगन देकर अपने कस्टमर मेरा मतलब कष्ट से मर रहे जनता को मामू और अपनी सरकार बनाने में सफलता हासिल कर लेती हैं।
वैसे भी जनता तो जन्मजात मासूम होती है। कभी जात और बात में पिघल कर किसी की सरकार बना देते हैं, तो कभी पौवा और पैसा पर अपने मत का मूल्यांकन कर लेते हैं। वैसे भी हमारे स्लोगन शोषित देश की तथाकथित मासूम जनता काफी आशावादी होती हैं। ऐसे व्यक्ति जिनकी आज तक अपने पड़ोसियों से भी नहीं बनी-पटी वो सुनक के ब्रिटेन का पीएम बनने और ट्रंप के पुन: अमरीकी राष्ट्रपति बनने पर भी अच्छे दिन की उम्मीद पाल लेते हैं।
कभी ‘फील गुड’ के नाम पर बनने वाली सरकार में गुड अनफील होने पर सरकार बदल देती है, तो ‘कभी अच्छे दिन आने वाले हैं’ की आस में बारंबार उसी सरकार का चुनाव कर लेती है।
‘खेला हौवे’ का उद्धोष कर राजनीतिक मदारी मूकदर्शक बनी जनता की भावनाओं के साथ-साथ जमकर राजनीति का खेल भी खेलते हैं। इस खेल में चैंपियन ट्रॉफी रुपी कुर्सी का स्वामित्व हमेशा खेल दिखाने वाले मदारी के पास ही रह जाता है। बंदर अथवा भालू सदृश कार्यकर्ता ‘खेला हौवे’ की डुगडुगी पर मतमस्द झूमते तो जनता ताली, थाली और सिर पीटकर मदारी को ताकते रह जाते हैं।
चुनाव आते ही नया-नया स्लोगन बाजार में लांच कर दिया जाता है। इन दिनों मार्केट में जैसे ही ‘बंटोगे तो कटोगे’ और ‘एक है तो सेफ है’ लांच हुआ, तो हमारे पड़ोस के सरकारी क्लर्क छब्बू जी भी अपने स्टेटस पर इस स्लोगन को चिपका मारें, यह और बात है कि विवाह के एक महीने बाद ही महंगाई और अपने निजी परिवार की दुहाई देकर वो अपने माता-पिता और भाईयों का साथ छोड़ पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के पश्चात इकलौती बीवी के साथ बंटा और कटा हुआ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इसी तरह हमेशा से हटकर और कटकर रहने वाले गुप्ता जी ने भी इस स्लोगन को स्थायी स्टेटस बना लिया है, जिनका संपूर्ण जीवन काल रिश्तेदारों की बुराई करने में निकल गया। एक है तो सेफ है स्लोगन से हमारे विभाग के सुपरवाइजर दत्ता साहब यह उम्मीद पाल बैठे हैं कि अब घरवाली के साथ-साथ बाहर वाली सेटिंग को रखने पर कोई खतरा नहीं। नारा देने वाले का उद्देश्य राजनीति से प्रेरित हो सकता है लेकिन नारों को नागरिक अपने जीवन में किस रुप में लेती है यह उन पर निर्भर करता है।
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