बहते लोर

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

आरती...आरती..!’ उधर बासु चीखा था।
‘क्या हुआ? अरे, आप तो काम पर गये थे। कब लौट आए...?’
‘मैं पूछता हूँ, रात का बचा हुआ यह खाना कब से मां को दे रही है? जबकि तुम्हें मालूम है। इन्हें गठिया रोग है और डॉक्टर ने इसे बासी चींजें खाना से मना किया हुआ है।’
आरती ने कोई जवाब नहीं दिया। उसे तत्काल कोई उत्तर नहीं सूझा। निरूत्तर खड़ी रही। बहुत कम को पता था। आरती मां की पसंद से ही इस घर में बहू बन कर आई थी। और बेटे ने उसे मां का परसाद समझ ग्रहण कर लिया था। इसके पहले सास-बहू में कभी कोई तकरार हुई हो, घर में क्या, मुहल्ले में भी किसी को पता नहीं था। आरती सास की चहेती बहू थी। इस घर में आकर उसने आज तक ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिससे सास-बहू में मुंह ठोना-ठानी हुई हो, या दोनों के बीच कभी मुंह बजा हो। एक स्वाभिमान सास की एक आदर्श बहू के रूप में वह पूरे गांव में जानी जाती थी। यह बासी सब्जी-रोटी की बात अगर बाहर निकली नहीं कि उस ‘इमेज पर‘पर दाग लगना निश्चित था-‘इकलौती आदर्श बहू सास को बासी खाना देने लगी।’
गांव वालों को मुंह बजाने का सुनहरा मौका मिलना तय था। जो आज तक नहीं मिला था। आरती को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसकी आंखों में आंसू आ गए। इससे पहले कि सावित्री महतवाईन कुछ बोले। आरती ने आगे आकर कहा ‘सॉरी बासु, मैं डॉक्टर वाली बात भूल गई थी। आगे से ऐसी गलती नहीं होगी-आई प्रोमिस..!’
‘आंसू, आज भी मैं तुम्हें बहुत चाहता हूँ। लेकिन हमारे प्यार से कहीं अधिक ऊंचा मां का प्यार है, इसका घर संसार है। इनके बगैर मैं जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता हूं। उसी मां की आंखों में आंसू...मैं देख नहीं सकता हूँ आंसू!’
‘बासु क्षमा कर दो...।’  आरती बासु से लिपट गई थी।
मां बोली-‘रहने दो न बेटा, इसमें बहू का कोई दोष नहीं है। जो बच जाता था, ओ फेंका न जाए सो कभी-कभार खा लेती थी। रोज़ थोड़े न खाती हूं...।’
‘अब रात को उतनी ही रोटी-सब्जी बनाओ जितना में हम तीनों का पूरा-पूरा हो जाए।’
इस तरह बासी सब्जी-रोटी का गर्भपात होने से पहले सास-बहू ने मूल घाव का ही इलाज कर दिया था। फिर एक बार गांव वाले एक चटपटी खबर सुनने से वंचित रह गए थे।
सावित्री महतवाईन की तरह खैरी गैया भी बासु के जीवन में अहम स्थान रखती थी। दोनों में लगाव ही ऐसा हो गया था। लगातार ढाई साल से वह दूध देती चली आ रही थी। सुबह-शाम, दोनों टाइम। कभी एक किलो तो कभी डेढ़ किलो। दूध देने से कभी उसने मना नहीं किया। कभी किसी को लात नहीं मारी। कोई भी उसका दूध निकाल ले, उसने कभी कोई आपत्ति नहीं की। उसका ढ़ाई साल का बेटा मंगरा अब दूसरी गाय-बाछियों के पीछे दौड़ने लगा था। कभी-कभी उसकी मां उसका कान-कपार चाटती और शायद समझाने की कोशिश करती, ‘अभी से ही इस तरह मत दौड़ा करो, गिर बजर जाओगे, शरीर का नुकसान होगा।’
पर मंगरा मां की बात नहीं मानता और उल्टे वह मां की गर्दन पर ही अपने दोनों पैर लाद देता और ‘ओं ! ओं !’ करने लगता था। मां उसे झिड़क देती थी।
पिछले माह से वही खैरी गैया ने दूध देना बंद कर दियै था। और ठीक उसके चार दिन बाद भूतनिया ने एक बछड़े को जन्म दिया। भूतनिया खैरी गैया की ही बेटी थी। पर उसका मन-मिजाज बिल्कुल ही अलग था। मां को आंख और सिंग दिखाती ‘दूर-दूर’ कह भगाती। बेटी होकर भी मां को अपने साथ खाने नहीं देती थी। फिर क्या, आरती ने पागहा (जोरंड़) और जगह दोनों को बदल दिया। जहां पहले खैरी गैया बंध कर लपसी-कुटी खाया करती थी, अब उस जगह और खान-पान भूतनिया ने हथिया ली और खैरी गैया को बाहर जाना पड़ा था। और यह सब दूध का लेन-देन को लेकर हुआ था। तभी से खैरी गैया उदास-उदास रहने लगी थी। बाहर चरने भी जाती तो बाकियों को उधर ही छोड़कर अकेले घर लौट आती थी। और दरवाजे के बाहर खड़ी होकर टुकुर-टुकुर ताकती रहती और अच्छे दिन को याद कर मन ही मन रोती रहती। परन्तु उसका रोना घर में अब किसी को नहीं दिखता। अगर बासु घर में होता तो तुरंत उसे नमक-पानी पीने को मिल जाता। वह एक ही सांस में सारा पानी पी जाती और तब सामने खड़े बासु के हाथ खुशी-खुशी चाटने लगती थी। यह सब बासु को बहुत अच्छा लगता। खैरी गैया को वह भी बहुत पसंद करता था। यदा-कदा अपने हाथों उसे कुछ न कुछ खिलाते रहता था। कभी रोटी, कभी जूठन भात। खैरी गैया मजे से खाती। आखिर बासु ने भी तो मंगरा जैसा उसका दूध कई बरसों से पीता आ रहा था। सो खैरी गैया के प्रति बासु का लगाव मां जैसा ही था। लेकिन बासु हर वक्त घर में नहीं होता। काम से लौटकर वह संध्या घूमने चला जाता था। ऐसे में घर लौटी खैरी गैया की आंखें अक्सर बासु को ढूंढती, उसकी तलाश करती थी। लेकिन बासु को ना पाकर वह यदा कदा निराश भी हो जाती थी।
थोडी देर बाद आरती भी बाहर गयी और खैरी गैया की झर-झर बहते आंसू को देख आयी। फिर घर आकर उसने बासु से कहा-‘सचमुच खैरी गैया रो रही है! पुआल तो उसने खाया ही नहीं..!’
बासु से खड़ा रहा नहीं गया। उसे लगा बाहर खैरी गैया नहीं-मां रो रही है! मां की कही बात याद आने लगी ‘माय और गाय को कभी रूलाना नहीं, बड़का जबर हाय लगेगा...!’ 
खैरी गैया में बासु को मां चेहरा दिखने लगा। वह बाहर की ओर दौड़ पड़ा। खैरी गैया ने ड़बड़बाई आंखों से बासु को आते देखा। वह पूंछ हिलाने लगी और पैर आगे-पीछे करने लगी। बासु दौड़ जाकर गैया से लिपट गया। वह भी रो पड़ा। उसने झट से गैया को बंधन मुक्त कर दिया और घर ले आया। पहले उसने अलग से एक तसले में कुटी डाला, फिर बची हुई मकई लपसी उसमें डाल कर मिला दिया। खैरी गैया मजे से उसे गबर-गबर खाने लगी। उसका बहता लोर (आँसू) और भी बहने लगा। यह खुशी का लोर था। 
बसु अपनी झिलमिलाती आंखों में खैरी गैया के रूप में मां को देख रहा था...! (सुमन सागर) (समाप्त)

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