बुद्धिजीवियों के बीच संविधान पर सार्थक बहस होनी चाहिए
देश में संविधान के 75 साल के सपर पर पिछले दिनों (संसद के शीतकालीन सत्र में) जो दो दिन की बहस हुई, वह निश्चित रूप से एक स्वागत योग्य पहल थी, लेकिन संविधान के जिन जिन पहलुओं पर वहां बहस की गई वह देश के पालीटिकल थियेटर का एक महज एक स्टीरियोटाइप आख्यान ही था। दलीय लोकतंत्र के दबाव में पार्टी लाइन आधारित टाइप्ड भाषण और उबाऊ पालीटिकल नैरेटिव से भरे संवादों के इतर संसद के इस बहस में भारतीय संविधान की एक संपूर्ण, ईमानदार और समालोचनात्मक बौद्धिक विमर्श का इसमें सर्वथा अभाव था। संसद में सम्पन्न इस बहस में राजनीतिक पार्टियों के आरोपों-प्रत्यारोपों और राजनीतिज्ञों में अपने को इतिहास पुरूष तथा अपने प्रतिद्वंधी को गलत साबित करने की होड़ ही दिखायी पड़ी। हालांकि कुछ भाषण प्रभावशाली भी थे, लेकिन कुल मिलाकर ये सभी भाषण पालीटिकल करेक्टनेस की चासनी से ही सराबोर थे। इसलिए 76वें गणतंत्र के मौके पर देश में बुद्धिजीवियों के बीच संविधान पर सार्थक बहस होनी चाहिए।
क्योंकि पिछले दिनों देश ने अपनी सबसे बड़ी पंचायत (संसद) के पटल पर दुनिया के सबसे बड़े भारतीय संविधान की एक बेहतरीन मीमांसा का एक बेहद ख़ास मौका गवां दिया। देश के लोकतंत्र, बहुपहचानीय समाज और आधुनिक शासन पद्धति तथा उच्च कोटि की सुशासन व समावेशी राजव्यवस्था के मद्देनज़र भारतीय संविधान के कई पहलुओं पर नज़र डालना बेहद ज़रूरी था। मसलन भारत में असल व आधुनिक लोकतंत्र का प्रसार, इसका राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक विभिन्नता व भौगोलिक अखंडता, धर्म-निरपेक्षतावाद और सामाजिक न्याय व अवसर की समानता। मोटे सैद्धांतिक तौर पर भारतीय संविधान की व्याख्या इन चारों कसौटियों को ध्यान में रख कर की जा सकती थी। उपरोक्त चारों कसौटियों पर भारतीय संविधान की कार्यगत सफलता का पैमाना इस बहस के जरिये बड़े अच्छे तरीके से निर्धारित किया जा सकता था। मिसाल के तौर पर भारत में लोकतंत्र को लेकर ये बातें ज़रूर कही गई कि एक दल ने आपातकाल लाकर लोकतंत्र का गला घोंटा तो दूसरे ने कहा कि आपातकाल वह दौर तो एक निर्धारित समय के लिए ही था, लेकिन अभी तो एक दशक से देश में अघोषित आपातकाल लगा है।
दोनों बातें ठीक है परन्तु इसे लेकर दोनों ही पक्षों को यह भी आत्मावलोकन करना होगा कि हमारा लोकतंत्र देश के राजनीतिक दलों की कैद में क्यो है? हमारा दल आधारित लोकतंत्र देश में सभी लोगों की लोकतांत्रिक भागीदारी और सर्वथा योग्य उममीदवारी को कहीं से भी प्रोत्साहित क्यों नहीं नहीं करता? किसी भी लोकतंत्र में व्यक्ति पूजा और राजनीतिक दलों के एकाधिकार या द्वैधाधिकार के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। ठीक है कि अमरीका में भी दो दलीय प्रणाली अस्तित्व में है, पर वहां अच्छी बात यह है कि कोई कितना भी लोकप्रिय राष्ट्रपति क्यों न हो, उसे अधिकतम दो बार ही इस पद को पाने का मौका मिलता है। भारत में लोकतंत्र की असलियत यह है कि कोई भी अपराधी, अज्ञानी, सामंत, भ्रष्टाचारी अपने सभी कुकृत्यों को इसकी आड़ में छिपा सकता है, यदि वह सत्ताधारी दल में शामिल हो जाता है। यह ठीक है कि संसद में सम्पन्न इस बहस में उस राजनीतिक वंशवाद पर भी चर्चा हुई, जिसमे संलग्न तमाम दलीय नेता इस आधुनिक काल में भी भारत के मध्ययुगीन सामंतों की याद दिलाते हैं। बहस के दूसरे आधारभूत पहलू राष्ट्रवाद को लेकर बात की जाए तो भारत के राष्ट्रवाद की एक व्यापक रूपरेखा व सहमति संविधान के ज़रिये भारत के सभी दलों में अनुगूंजित व मान्य होनी चाहिए। मिसाल के तौर पर एक दल जहां भारत माता की जय लगाकर राष्ट्रवाद को पोसने की बात कर इतने गंभीर मसले का सरलीकृत कर देता है, वहीं दूसरा दल देश के सांप्रदायिक विभाजन को स्वीकृति प्रदान करने के उपरांत भी देश में समावेशी लोकतंत्र के नाम पर भौगालिक विखंडता को पनपाने की प्रवृति प्रदर्शित करता है। भारतीय संविधान में यह बात साफ-साफ उच्चरित होनी चाहिए कि देश का विभाजन एक भयानक भूल थी जिसमें अब यह नयी बात उद्घोषित होनी चाहिए की इसे हम बाद में भी ठीक करेंगे और देश में अलगाववाद की किसी भी प्रवृति को किसी भी सूरत में पनपने से पहले कुचल देंगे।
भारतीय संविधान को लेकर तीसरा आधारभूत बिंदु धर्मनिरपेक्षता को लेकर है जिसका सभी दल अपनी-अपनी सुविधा के मुताबिक मीमांसा करते आए हैं। असल में धर्मनिरपेक्षता संविधान के एक ऐसे मजबूत मूल सिद्धांत के रूप में सभी लोकतांत्रिक दलों में मान्य होनी चाहिए जो किसी भी तरह से चुनाव और सार्वजनिक बहस में दोबारा उल्लिखित नहीं होनी चाहिए। देश में आज़ादी के उपरांत ही धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांतों से जो खिलवाड़ किया जाता रहा है और फिर उसके प्रत्युत्तर में धर्मनिरपेक्षता के विचार का जो मज़ाक बनाया जाता रहा है, इन दोनों ही नैरेटिव के ज़रिये संविधान का उल्लंघन किया जाता है। इस मामले में सबसे बड़ा अपराध उनका है, जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता को असल स्वरूप में लागू न करके सामुदायिक तुष्टीकरण को उसका विकल्प बना दिया। ऐसे में ‘स्यूडो सेकुलरिज़्म’ या छद्म धर्मनिरपेक्षता की परिपाटी का जो आगमन हुआ, वह इस महान शब्द के खिलवाड़ के साथ भारतीय संविधान का भी अपमान करता रहा है।
इस तुष्टीकरण की सबसे बड़ी मिसाल मौलिक अधिकारों में अल्पसंखयकों को अपने धार्मिक शिक्षण चलाने के मिले मौलिक अधिकार से दिखती है। एक तरह से धर्मनिरपेक्षता का सबसे बड़ा अपमान संविधान में दर्ज है। विख्यात इतिहासकार इरफान हबीब भी मानते हैं कि अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान चलाने का मौलिक अधिकार मिला है, परन्तु इस संवैधानिक अधिकार का तकाज़ा यह है कि इसका पाठयक्रम भी धर्मनिरपेक्ष हो।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर