राजनीतिज्ञों की वास्तविकता जानते हुए भी लोग खामोश क्यों ?

अन्य व्यवसायों की तरह राजनीति भी एक व्यवसाय है। व्यापार, रोज़गार या स्वयं स्थापित उद्यम का उद्देश्य निजी आवश्यकताओं की पूर्ति और धन तथा मान-सम्मान, प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है। इसके विपरीत राजनीति को अपना जीवन समर्पित करने के लिए अपनी जिन आकांक्षाओं को पूरा करना होता है, उनके लिए पहली शर्त है कि व्यक्ति संवेदनशील हो, अपने परिवार से ऊपर उठ कर समाज के प्रति दायित्व निर्वाह करने की क्षमता रखता हो और किसी भी कठिन परिस्थिति में अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे न हटे चाहे उसके लिए कितना भी त्याग करना पड़े। राजनीति में व्यक्तिगत स्वार्थ या अपार धन वैभव और विलासिता के साधन जमा करने के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता क्योंकि ऐसा जीवन एक सन्यासी की भांति या सांसारिक वस्तुओं में लिप्त न होने का नाम है। 
राजनीति की दूसरी शर्त यह है कि इसमें सफलता की कोई गारंटी नहीं है, आपके कामों को सराहा जाएगा या यश बढ़ेगा, गुणगान होगा या आपको कोई लाभ या पद मिलेगा, उसकी कोई व्यवस्था नहीं है। कभी लगेगा कि ज़मीन से आसमान की बुलंदियों तक पहुंच गए हैं, दूसरे ही क्षण नीचे फर्श पर भी पटके जा सकते हैं। यही राजनीति का सत्य है। 
राजनीति और राजनीतिज्ञ 
राजनीति में आने का सबसे बड़ा फायदा यही है कि आप अपने स्वार्थ से हटकर दूसरों की भलाई के लिए सोचने लगते हैं। चाहते हैं कि जो आपके संपर्क में आए, वह अपने विवेक का इस्तेमाल कर समझदारी से अपनी समस्याओं का स्वयं हल निकाले। उसमें वैज्ञानिक सोच के अनुसार कुरीतियों और बुराइयों से लड़ने का साहस हो। 
राजनीति में जब व्यक्ति विद्वान बनने लगता है तो वह राजनीतिज्ञ होने लगता है। इसकी दो श्रेणियां हैं। एक उन लोगों की जो अपने क्षेत्र, समाज, प्रदेश और देश के सामने जो चुनौतियां हैं, समस्याएं हैं, गरीबी, बेरोज़गारी जैसे मूल मुद्दे हैं, उन पर चर्चा और निर्णय लेता है। अपने सामर्थ्य, विवेक से नीतियां बनाता या बनवाता है और अमल करवाता है। दूसरी श्रेणी उनकी है जो पब्लिक को विवेक शून्य बनाने का काम करते हैं, मतलब जो नेताजी कहें, वही करो। वे सरकारी खज़ाने जो टैक्स से बनता है, उसमें से उन्हें मुफ्त अनाज, राशन, नकद पैसा, बिना परिश्रम या धन कमाए घर बैठ कर सभी सुविधाएं दिलवाने में लग जाते हैं। अधिकतर लोग राजनीति में इसलिए आने लगे हैं कि लोग उन्हें अपना पालनहार मान लें। मतलब यह कि उनके दिमाग पर नेता का कब्ज़ा हो और स्वयं निर्णय करने की शक्ति न आए।  चलिए कुछ उदाहरणों से बात समझते हैं। पूरा देश आज वायु, जल और पर्यावरण प्रदूषण से ग्रस्त होता जा रहा है। सांस लेने में दिक्कत है, फेफड़ों में संक्रमण फैल रहा है और हम सरकार और प्रशासन से यह मांग तक नहीं करते कि देश में ही विकसित टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर स्वच्छ हवा और निर्मल पानी मिलना सुनिश्चित करें। सरकार की नज़र में तो यह प्राथमिकता है ही नहीं और जनता कुछ कहती नहीं इसलिए गंदगी और कूड़े के पहाड़ खड़े हो जाते हैं। सत्ताधारी नेता और उनके समर्थक लोगों को बताते हैं कि मुंह पर मास्क लगा लो, उबालकर पानी पिओ और बाहर निकल कर दिखाओ कि प्रदूषण तो विपक्ष का फैलाया हुआ झूठ है। 
दूसरा उदाहरण देखिए, जब देश में उद्योगों और कल-कारखानों की स्थापना हो रही थी तब बड़े पैमाने पर देहात से शहरों में लोग नौकरी करने आ रहे थे। वे रहेंगे कहां तो बजाय इसके कि उद्योगपति या उद्यमी उनके रहने का इंतज़ाम करें और यह बात सरकार से ज़मीन और दूसरी सुविधाएं लेते हुए उन्होंने मानी भी थी कि वे मज़दूरों, कामगारों, श्रमिकों तथा अन्य कर्मचारियों के रहने की व्यवस्था करेंगे, उन्होंने कथित रिश्वत और कमीशन देकर अधिकारियों को इस तरफ से आँखे बंद कर लेने को कहा और दूसरी ओर झुग्गी मफिया खड़ा कर इस काम पर लगा दिया कि वह खाली पड़ी सरकारी भूमि पर गैर-क़ानूनी रूप से झुग्गी बस्तियां बसा कर उनकी फैक्टरी में काम करने वालों को बसा दें। बाद में यहां कांटा डालकर मुफ्त बिजली लेने की तरकीब बता दी। इसी तरह पानी आदि का इंतज़ाम किया और क्योंकि यह सब बिना किसी मंज़ूरी और योजना के हुआ था तो चारों तरफ बदबू और गंदगी फैलने लगी, बीमारियां होने लगीं और एक तरह से आलीशान कॉलोनियों के बीच नासूर बन कर यह समस्या पैदा हो गई। नेता जी आते और कहते कि हम उनकी रक्षा करेंगे, बस उनका वोट चाहिए। 
अदालतें और कानून की घुटन 
हमारे देश की अदालतों में पांच करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं और कोई नहीं जानता कि कितने समय में सुनवाई होगी और कब फैसला आएगा। इसी तरह देश की जेलों में केवल एक चौथाई कैदी सज़ा पाए हुए हैं और बाकी सब अभी अंडर ट्रायल हैं या बिना किसी अपराध के जेल में बंद हैं। उनकी सुध लेने वाला या ज़मानत देने वाला कोई नहीं है। विडम्बना यह है कि कुछ नेता तो गिरफ्तार होने को उतावले रहते हैं। वहां उनकी खातिर होने के सभी प्रबंध किए जाते हैं। ज़मानत पर रिहा होने पर बाजे बजाते हुए एक भीड़ उसका स्वागत करती है। 
यह कैसा कानून है जो किसी गम्भीर आपराधी को जेल से चुनाव लड़ने की छूट दे सकता है लेकिन किसी बंदी को वोट देने के अधिकार से वंचित रखता है। इसे जनता को अपनी मज़र्ी से हांकने की कुटिलता कहें या योग्यता कि वास्तविकता जानते हुए भी नागरिक चुप रहते हैं, ज़्यादती सहते हैं और अपनी ज़ुबान बंद रखने में ही कुशल समझते हैं। पढ़े लिखे हों या शिक्षित अनपढ़, अमीर हो या गरीब, नौकरीपेशा हो या कारोबारी, व्यापारी हो या उद्योगपति, सब यही सोचते रहते हैं कि जैसे भी हो अपना काम निपटाओ और अपनी राह इस तरह चलो कि घर पहुंच जाओ। सरकार की आलोचना या कमी निकालने का अर्थ नेताजी से जीवन भर की शत्रुता मोल लेना है। 
लूट-खसोट का बाज़ार 
एक उदाहरण देखिए, हमारा देश प्राकृतिक और हर्बल संपदा से मालामाल है। कोई इस बात पर न तो आंदोलन करता है और न ही इसे चुनाव का मुद्दा बनाता है कि आखिर प्राकृतिक खज़ाना तस्करी के ज़रिए विदेशों तक कैसे पहुंच जाता है, उसकी ज़िम्मेदारी किसकी है और कैसे इसकी रोकथाम हो सकती है? पब्लिक सेक्टर कंपनियों में से कुछ को छोड़कर अधिकतर में घाटा क्यों हो रहा है? हमारे टैक्स का पैसा किन लोगों की विलासिता पर खर्च हो रहा है और हमारी युवा शक्ति का दुरुपयोग क्यों हो रहा है? उन्हें नौकरी क्यों नहीं मिलती, उद्यमी बनने के इच्छुक लोगों को समय पर आर्थिक मदद क्यों नहीं मिलती, बिना अधिकारियों की मुट्ठी गर्म किए कोई फाइल क्यों नहीं आगे बढ़ती? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब मांगने का साहस सामान्य नागरिकों में क्यों नहीं होता, जो बेहद ज़रूरी है। 
इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के कुछ ईमानदार नेताओं ने देशवासियों की भलाई के लिए काम करने के प्रयत्न किए और देश का मान-सम्मान बढ़ाया और विश्व में भारत को गौरवशाली स्थान दिलाया, लेकिन उनकी संख्या नगण्य है। अधिकतर ने अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक संपत्ति बढ़ाने का काम किया है। सरकारी अर्थात् जनता के धन को अपनी तिजोरियों में भरने के लिए अनेक एनजीओ या फाउंडेशन बना लिए हैं। इनमें कितना और कहां से धन का प्रवाह होता है, कोई नहीं जानता। चुनाव लड़ने के लिए पैसा जनता द्वारा दिया बताते हैं, लेकिन असल में यह उगाही का धन है जो चुनाव में बेहिसाब खर्च होता है और क्योंकि किसी को इसका स्रोत जानने का अधिकार नहीं है। इसलिए यह पैसा कहां से आया कोई नहीं जान पाता। क्या यही लोकतंत्र है, जरा सोचिए।

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