लंबी ग्रीष्मकालीन निंद्रा लेने वाली दलदल की ईल
दलदल की ईल को अंग्रेजी में स्वैम्प ईल कहते हैं। यह दलदल वाले क्षेत्रों में रहती है और ईल जैसी दिखती है। इस ईल की लगभग दस जातियां हैं। ये भारत में भी पायी जाती है। भारत में इसे कुचिया कहा जाता है। बिहार और बंगाल के सदाबहार तालाबों में ये काफी बड़ी संख्या में देखी जा सकती है। दलदल की ईल अद्भुत विशेषताओं वाली मछली है। इसने सामान्य मछलियों की तरह एक लंबे समय तक, सांस लेने के लिए अपने गलफड़ों का उपयोग नहीं किया। परिणाम स्वरूप इसके गलफड़ों समाप्त हो गए। इस प्रकार यह हवा से सांस लेने वाली मछली बन गयी। दलदल की ईल दलदल, कीचड़, गंदेपानी एवं कम ऑक्सीजन वाले पानी में रहती है तथा बार-बार सतह पर आकार हवा से सांस लेती है। कभी-कभी इसे दलदली सतह पर रेंगते हुए भी देखा जा सकता है। दलदल की ईल प्रकाश से दूर रहना पसंद करती है। यही कारण है कि यह दिन में दिखाई नहीं देती।
दलदल की ईल की एक प्रमुख विशेषता यह है कि ये अपने शरीर की कार्बनडाइऑक्साइड अपनी त्वचा से बाहर निकालती है। भारत में पायी जाने वाली दलदल की ईल कुचिया के फेफड़ों की तरह के दो थैले होते हैं, इन्हीं से यह सांस लेती है। ये दलदल के भीतर कम रहती है। ये अपने जीवन का अधिकांश बड़ा पानी के बाहर कीचड़ अथवा गीली घास में भोजन की तलाश में रेंगते हुए गुजार देती है। कुचिया गर्मी में कीचड़ के भीतर मांद बनाकर लंबी र्ग्रीष्मकालिन निंद्रा लेती है। यह प्रकाश से दूर रहती है। दिन के समय जलीय पौधों के बीच छिपी रहती है और रात में शिकार की खोज में बाहर आती है। दलदल की ईल का प्रमुख भोजन छोटे-छोटे रीढ़धारी जीव हैं। यह एक दिन में अपने शरीर के वजन के बराबर का भोजन चट कर जाती है। यह पेटू होती है।
दलदल की ईल के अंडों की सुरक्षा का काम भी नर ही करता है। यह दलदल अथवा पानी में लहरें उत्पन्न करके अंडों तक ऑक्सीजन पहुंचाता है और शत्रुओं से भी अंडों की रक्षा करता है। इतना ही नहीं, अंडों बच्चों के निकलने पर नर उनकी भी रक्षा करता है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर