तीन लड़कों की दोस्ती
उत्तर भारत के एक छोटे से शहर में तीन समान आयु के लड़के रहते थे। वे आपस में गहरे दोस्त थे। महेश, सुरेश व रमेश एक ही स्कूल में और एक ही कक्षा में पढ़ते थे। वे 12वीं कक्षा के छात्र थे। वे साथ स्कूल जाते और साथ ही लौटते थे। उनकी दोस्ती विशिष्ट थी। वे एक-दूसरे की मदद के लिए हरदम तैयार रहते थे। तीनों दोस्त प्रत्येक गतिविधि में अन्य छात्रों से आगे थे, चाहे वह खेल का मैदान हो, डिबेट व ड्रामा हो या फिर पढाई हो। महेश व सुरेश के घरों की आर्थिक स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं थी। उन्हें तो अच्छी शिक्षा प्राप्त करके ही कुछ करना था और अपने-अपने परिवारों का सहारा बनना था। वे जीवन, पैसा और गरीबी से अच्छी तरह परिचित थे, समझदार थे और अपनी ज़िम्मेदारी को भी समझते थे।
इसलिए वे अपनी शिक्षा पर अधिक मेहनत करने के अतिरिक्त अपने घरों के कामों में भी हाथ बंटाते थे। स्कूल से लौटने के बाद वह घरों पर अपने पैरेंट्स की भी मदद किया करते थे। स्कूल की छुट्टियों के दौरान वे दूसरों की दुकानों पर काम करने के लिए भी चले जाते थे ताकि अपने खर्चों को स्वयं वहन कर सकें और अपने गरीब पैरेंट्स पर बोझ न बनें। रमेश के घर की आर्थिक स्थिति बेहतर थी। उसके पास वैसी जिम्मेदारियां नहीं थीं जैसी कि उसके दो दोस्तों के पास थीं। इसलिए वह यह नहीं जानता था कि गरीबी क्या है, पैसे का मूल्य क्या है और जीवन की कठिनाई क्या है? कड़ी मेहनत करना उसे पसंद न था। वह पढ़ाई में अच्छा ज़रूर था, लेकिन अधिक मेहनत करने से बचता था। उसके लिए इतना ही पर्याप्त था कि वह बस परीक्षा में पास हो जाये।
तीनों दोस्तों ने 12वीं कक्षा पास करके कॉलेज में तो प्रवेश कर लिया। लेकिन अब सवाल यह था कि आगे जीवन में क्या करना है? तीनों ने तय किया कि वह डॉक्टर बनेंगे। इसलिए नीट परीक्षा की तैयारी करने लगे। महेश व सुरेश के पास तो कोई विकल्प ही न था, सिवाय इसके कि वह कड़ी मेहनत करें, टॉप रैंक लायें ताकि सरकारी मैडीकल कॉलेज में उन्हें प्रवेश मिल सके, जिसकी फीस वह बर्दाश्त कर सकते थे और स्कॉलरशिप के लिए भी प्रयास कर सकते थे। इसलिए उन्होंने जी-तोड़ मेहनत की, नीट परीक्षा में टॉप रैंक हासिल की और उन्हें अपनी पसंद के मैडीकल कॉलेज में सीट मिल गईं। प्राइवेट मैडीकल कॉलेज में प्रवेश मिलने पर वह वहां की फीस, जो लाखों रुपयों में होती है, को अदा ही नहीं कर सकते थे। उनका लक्ष्य तो सरकारी मैडीकल कॉलेज था जो उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से प्राप्त कर लिया।
रमेश ने नीट परीक्षा को गंभीरता से नहीं लिया। वह फेल हो गया। समय बीतता गया। महेश व सुरेश डॉक्टर बन गये और सरकारी अस्पताल में उनकी नौकरी भी लग गई। उधर रमेश के घर की आर्थिक स्थिति निरंतर कमज़ोर होती चली गई। व्यापार में घाटा भी हो जाता है और सब दिन समान नहीं होते हैं। अब रमेश के सामने यह समस्या थी कि वह जीविकोपार्जन के लिए क्या करे? ऐसे में उसके दोनों दोस्त काम आये और उन्होंने उसे अपने अस्पताल के सामने मैडीकल स्टोर स्थापित करने में मदद की।
इस कथा का सार ये है कि हर चीज़ संभव है अगर आपमें उसे हासिल करने की इच्छाशक्ति हो और आप निरंतर प्रयास करने के लिए तैयार हों। ईमानदारी व लगन सफलता की कुंजी हैं। अगर सिर्फ बैठकर खाते रहोगे तो आपका सोने का पहाड़ भी पिघलकर लुप्त हो जायेगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर