अपने अंत की ओर बढ़ रहा माओवादियों का हथियारबंद आंदोलन
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) अपने वजूद के इक्कीस रक्तरंजित साल पूरे कर चुकी है। इस समय सुरक्षा बलों की लगातार कामयाब होती कार्रवाइयों के कारण यह राजनीति अपने खात्मे की तरफ जा रही है। दरअसल, यह हथिरबंद क्रांति का यह प्रारूप एक सैद्धांतिक, रणनीतिक और कार्यनीतिक सूत्रीकरण की लम्बी छलांग का नतीजा था। इसके ज़रिये इस पार्टी ने संघर्ष के खुले (जन-कार्रवाइयां) व गोपनीय (हथियारबंद कार्रवाइयां) के बीच समन्वय करने की उस निहायत पेचीदा उलझन से खुद को मुक्त कर लिया था जो नक्सलवाद को जन्म से ही सता रही थी। पार्टी ने तय कर लिया था कि भारत की मौजूदा परिस्थितियों में इस पेचीदगी की कोई ज़रूरत नहीं है। देश भर की जनता क्रांति चाहती है, और माओवादी पार्टी का काम उसे क्रांति थमाना है। यह छलांग केवल दस्तावेज़ों के स्तर पर ही नहीं, संगठन के स्तर पर भी लगाई गई जिसके माध्यम से माओवादियों ने नक्सलवाद के समूचे इतिहास को एक-दूसरे से 37 वर्ष दूर घटित हुए दो क्षणों के परस्पर मिलन में सीमित कर दिया। उनके अनुसार पहला क्षण वह था जब 1969 में पहली बार देश के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों द्वारा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओविचार) और माओवादी कम्युनिस्ट केंद्र (एमसीसी) का गठन किया गया था। दूसरा क्षण तब आया जब 2004 में पीपुल्स वार (पीडब्ल्यू) और माओवादी केंद्र ने यूनिटी कांग्रेस करके भाकपा (माओवादी) का गठन किया। इसके महासचिव मप्पला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति ने दावा किया कि ‘साढ़े तीन दशक, सही-सही कहें तो 37 साल, के बाद भारत के माओवादी संघर्ष के इतिहास में यह निर्णायक क्षण आया है जब भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की दो प्रमुख माओवादी धाराओं के विलय से भारतीय क्रांति का मार्गदर्शन करने के लिए एकल केंद्र की रचना हुई है।’
अस्सी के दशक के आखिरी सालों में नक्सलवादी आंदोलन और उसके अंतर्विरोधों का विस्तृत अध्ययन करते समय मैंने कुछ बातों के बारे में सोचा भी नहीं था। मैंने अंदाज़ा नहीं लगाया था कि कभी इस आंदोलन के कुछ धड़े (पीपुल्स वार और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर) मिलकर एक माओवादी पार्टी भी बना सकते हैं। दरअसल, माओ त्से तुंग के विचारों से बेहद प्रभावित होने के बावजूद अधिकतर नक्सलवादी संगठन माओ के किसी ‘वाद’ की मौजूदगी से इंकार करते थे। दूसरे, उस समय अनुमान लगाना भी नामुमकिन था कि हथियारबंद क्रांति का यह प्रोजेक्ट इतनी जल्दी (केवल 21 साल में) अपने ़खात्मे के कगार पर पहुंच जाएगा। आज स्थिति यह है कि बस्तर, बीजापुर, सुकमा, दांतेवाड़ा और नारायणपुर जैसे माओवाद प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों की लगातार मुहिम के कारण माओवादी पार्टी का आधार बेहद सिकुड़ चुका है। उसकी केंद्रीय कमेटी के 22 सदस्य घट कर 7 या उससे भी कम रह गये हैं। कुछ का वृद्धावस्था के कारण देहांत हो गया है, और कुछ मुठभेड़ों में मारे गये हैं। ज़ाहिर है कि पार्टी में अपना नवीकरण करने की क्षमता नहीं दिख रही है। उसके पास नेतृत्वकारी शक्तियों का अभाव हो चुका है। सुरक्षा बल बड़े-बड़े ऑपरेशनों के ज़रिये एक-एक बार में 25-30 माओवादियों को आसानी से मौत के घाट उतार दे रहे हैं। केंद्र सरकार पूरे य़कीन से कह रही है कि उसे सिर्फ एक साल और चाहिए। यानी, मार्च, 2026 तक माओवादी राजनीति का पूरी तरह से सफाया हो जाएगा।
पिछली शताब्दी के आखिरी बीस सालों में नक्सलवादी संगठनों के बीच एक ज़बरदस्त बहस चली। उसके केंद्र में यह सवाल था कि क्या भारतीय राज्य का तख्ता हथियारबंद कार्रवाई से पलटा जा सकता है। दो सबसे बड़े संगठनों (लिबरेशन गुट और पीपुल्स वार गुट) ने इस विवाद में परस्पर टकराते हुए रवैयों की नुमाइंदगी की। विनोद मिश्र के नेतृत्व वाला लिबरेशन गुट बिहार के मैदानी इल़ाकों में अपने लम्बे तजुर्बे से इस निष्कर्ष पर पहुंचते दिख रहा था कि हथियारबंद गतिविधियों का नतीजा ़गरीब जनता से कट जाने में निकलता है। इसलिए कथित छापामार लड़ाई बंद करके लोकतांत्रिक राजनीति में भाग लेने की तरफ जाना चाहिए। इसके उलट तत्कालीन आंध्र के एजेंसी एरिया (पहाड़ और जंगल) में सक्रिय सीतारमैया की अगुवाई वाले पीपुल्स वार की मान्यता थी कि चीन की शैली में ‘रेड बेस एरिया’ बना कर सरकार के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध चलाना ही एकमात्र सही तरीका है। इस बहस का व्यावहारिक नतीजा इस समय सबके सामने है। लिबरेशन गुट इस समय सीपीआई-एमएल के रूप में कानूनी रूप धारण करके बिहार के विपक्षी महागठबंधन का महत्वपूर्ण अंग है। वह चुनाव लड़ता है और बहुत धीरे-धीरे ही सही पर संसदीय राजनीति के धरातल पर अपने कदम आगे बढ़ा रहा है। पीपुल्स वार माओवादी पार्टी के भूमिगत रूप में भारतीय राजनीतिक जीवन के सभी पक्षों से कटने के बाद सुरक्षा बलों से लड़ते हुए अपने खात्मे की तरफ तेज़ी से बढ़ रहा है।
लिबरेशन गुट ने उस समय पीपुल्स वार की जो आलोचनाएं की थीं, वे आज अक्षरश: सही साबित हो रही हैं। हथियारबंद कार्रवाइयों में सीमित हो जाने कारण 2004 में बनी माओवादी पार्टी ने कुछ बहुत बड़ी गलतियां कीं। पहली, उसने उन छात्र आंदोलनों से खुद को पूरी तरह से काट लिया जो रैडिकल स्टूडेंट यूनियन के नेतृत्व में देश के कई विश्वविद्यालयों में चल रहे थे। दूसरे, उन रैयतु कुली संघमों औक किसान सभाओं की गतिविधियां भी ठंडी पड़ गईं जिनके ज़रिये भूमिहीन और छोटे किसानों के अधिकारों को बुलंद करने के कारण 70 के दशक से ही ग्रामीण समाज में प्रभावी ढंग से कमज़ोर वर्गों का राजनीतिकरण किया जा रहा था। धीरे-धीरे सभी तरह के कस्बाई और शहरी तबकों से यह पार्टी कटती चली गई। वामपंथ की ओर झुके पत्रकारों, कवियों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों को लगने लगा कि निरंतर मुठभेड़, हत्या, हथियार जमा करने और रंगदारी वसूलने वाली यह राजनीति उनके किसी काम की नहीं है। स्पष्ट रूप से इस माओवादी राजनीति में न तो किसी तरह के लोकतांत्रिक पहलू थे, न ही इसके सांस्कृतिक और सामाजिक आयाम थे। यह पूरी तरह से एक विचारविहीन और प्रेरणाविहीन गतिविधि थी जो चीनी क्रांति के मॉडल को यांत्रिक तरीके से भारत में लागू करने पर आमादा दिखाई पड़ रही थी। 30 व 40 के दशक के चीन और 21वीं सदी के भारत में ज़मीन-आसमान का अंतर था। भारत के माओवादी पराजित होने के लिए अभिशप्त थे।
इसी से जुड़ी तीसरी बड़ी गलती भारतीय माओवादियों ने यह की कि वे भारतीय सुरक्षा बलों से भिड़ने के चक्कर में पहाड़ों और जंगलों में सिमटते चले गए। मैदानों से उनका नाता पूरी तरह से टूट गया। उनका ख्याल था कि वे झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, और उड़ीसा के अत्यंत घने सीमाई पर्वतीय और वन क्षेत्रों में पनपते रहेंगे। सुरक्षा बलों को वहां उनसे लड़ने में बहुत मुश्किलें आएंगी। शुरू में लगा भी कि शायद उनके मंसूबे सही साबित हो रहे हैं। लेकिन, प्रारम्भिक विफलताओं के बाद सुरक्षा बलों ने माओवाद प्रभावित इलाकों में 290 ़फॉरवर्ड ऑपरेटिंग बेस (एफओबी) स्थापित किये। इनमें से 58 ए़फओबी 2024 में और 88 इसी वर्ष सक्रिय किये गये हैं। इन्होंने ड्रोन्स और व्हील ऑपरेटिड प्लेटफॉर्मों की मदद लेकर घने जंगलों और दुर्गम पहाड़ियों से होने वाले लाभों से माओवादियों को वंचित कर दिया। 80 मिलीमीटर के मोर्टारों को दागने की कला बीएसएफ से सीख कर सीआरपीएफ ने पिछले तीन महीनों में माओवादियों का खेल पूरी तरह से पलट दिया है। माओवादी उस इतिहास के कैदी हैं जिसके बताये गये रास्ते पर आज चीन भी नहीं चल रहा है। हथियारबंद क्रांति का मुहावरा पुराना पड़ चुका है। उनके ‘छापामार’ कैडरों के पास हथियार डाल कर समाज और राजनीति की मुख्यधार में लौटने के अलावा कोई और चारा नहीं बचा है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।