कनाडा के चुनाव में एक बार फिर हुआ पंजाबियों के उभार का प्रदर्शन
इसमें कोई संदेह नहीं कि कनाडा के चुनाव परिणाम पूरे विश्व की राजनीति को प्रभावित करेंगे। ये परिणाम प्रत्यक्ष रूप में अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों के खिलाफ कैनेडियन लोगों द्वारा दिया गया एक स्पष्ट जवाब है, परन्तु हमारा विषय विश्व राजनीति नहीं। हमारा विषय इस चुनाव में सिख तथा पंजाबी ताकत का उभार है। इस बार कैनेडियन संसदीय चुनाव ने कैनेडियन लोगों ने जहां रिकार्ड संख्या में पंजाबियों को विजयी बनाया है, वहीं जगमीत सिंह की खालिस्तान पक्षीय सोच को भी बड़ी ठेस पहुंचाई है। ये परिणाम एक ओर पंजाबियों और विशेष रूप में सिखों की कनाडा में शानो-शौकत का प्रदर्शन करते हैं, वहीं उनकी समझदारी का सुबूत भी हैं। इन परिणामों ने सिखों की भीतरी नारेबाज़ी तथा मार्केबाज़ी वाली सोच की बजाय क्रियात्मक तथा ज़रूरत के अनुसार स्थितियों को इस्तेमाल करने की समझ को विजय दिलाई है।
उल्लेखनीय है कि चाहे कनाडा में सिख आबादी लगभग 23 संसदीय क्षेत्रों में प्रभावशाली है, परन्तु सिखों की जीत का अर्थ यह हरगिज़ नहीं कि सिख अपनी संख्या के कारण विजयी हुए हैं। कुछ स्थानों पर इसलिए सिख विजयी हुए हैं, क्योंकि दोनों प्रमुख पार्टियों के उम्मीदवार ही सिख थे, परन्तु इस जीत का वास्तविक कारण सिखों का अपने देश के साथ प्यार तथा हर कठिन समय में अपने लोगों की मदद के लिए आगे आना है, जिस कारण स्थानीय ईसाई आबादी भी सिखों के विरुद्ध नहीं है। नहीं तो ध्यान देने वाली बात यह है कि कनाडा में मुस्लिम आबादी 4.9 प्रतिशत है, जो सिखों से लगभाग अढ़ाई गुणा है, परन्तु मुस्लिम उम्मीदवार 13 ही विजयी हुए हैं जबकि पंजाबी 22, जिनमें सिख शायद 20 हैं, परन्तु शेष दो भी सिखों में रचे-मिले पंजाबी ही हैं जबकि कनाडा में सिख आबादी सिर्फ 2.1 प्रतिशत ही है। दो अन्य पंजाबी मूल के लोग भी इन चुनावों में विजयी रहे हैं। इस बार चार गुजराती भी चुनाव मैदान में उतरे थे और उन्हें कुछ संस्थाओं की गुप्त एवं खुली मदद भी थी, परन्तु वे चारों हार गए। उल्लेखनीय है कि कनाडा में हिन्दू आबादी भी 2.3 प्रतिशत है, परन्तु पंजाबियों को छोड़ कर सिर्फ दो हिन्दू ही जीत सके हैं। यहां यह बात भी विशेष रूप से नोट करने वाली है कि कनाडा का पंजाबी तथा सिख डायसपोरा व प्रवासी भाईचारा किसी एक पार्टी के साथ नहीं जुड़ा हुआ। वह एक वोट बैंक की तरह नहीं है। सिख तथा पंजाबी वहां की प्रत्येक पार्टी में आगे बढ़ कर हिस्सा लेते हैं। इस बार के चुनाव में लगभग 65 पंजाबी उम्मीदवार थे। यहां यह उल्लेखनीय है कि सिख विश्व के कई अन्य देशों की राजनीति में भी धीरे-धीरे अपनी भूमिका बढ़ा रहे हैं, विशेषकर ब्रिटेन में इस समय 11 सिख सांसद हैं।
जीने का हुनर मरने की अदा
जिस कौम को आती है उस से,
कोई मंज़िल भी कुछ दूर नहीं
बस होश-ब-कायम लाज़िम है।
(लाल ़िफरोज़पुरी)
इस चुनाव ने यह भी सिद्ध किया है कि कनाडा के लोग सिखों द्वारा किए जा रहे जन-कल्याण कार्यों तथा मुश्किल समय में आगे बढ़ कर नेतृत्व करने के गुणों को पसंद करते हैं, परन्तु अलगाववादियों को अधिक महत्व नहीं देते। कनाडा तथा ब्रिटेन में सिखों के एक राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने ने भारत सरकार को भी एक संदेश दिया है कि सिख धर्म अब विश्व-व्यापी धर्म बन चुका है। इसलिए भारत में भी सिखों या पंजाबियों के अधिकारों पर डाका मारना आसान नहीं होगा। यदि ऐसा होता है तो विश्व भर में इसके खिलाफ आवाज़ उठेगी, परन्तु यह भारत के लिए संतोष की बात भी है कि इसने फिर सिद्ध किया है कि सिख एक देश-भक्त कौम हैं। वे जहां भी रहते हैं, उस देश के कायदे-कानून में रहते हैं और देश-भक्त हैं, परन्तु पता नहीं भारत में प्रत्येक केन्द्र सरकार चाहें वे कांग्रेस की सरकारें थीं, चाहे वे संयुक्त सरकारें थीं या भाजपा की पहली वाजपेयी सरकार थी या फिर वर्तमान नरेन्द्र मोदी सरकार की तीन सरकारें हैं, वे पंजाब के साथ सामूहिक अन्याय करती रही हैं। पंजाब की लम्बी अवधि से लम्बित मांगों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। बेशक इन सरकारों की ओर से समय-समय पर सिखों को गले लगाने तथा विश्वास में लेने के यत्न भी किए जाते हैं। मोदी सरकार भी ऐसा करती है, परन्तु कभी-कभी कुछ ऐसा भी कर देती है जो सिखों में बेगानेपन की भावना पैदा करता है। वैसे भी जब पंजाब के साथ अन्याय होता है तो सिख मानसिकता इसे स्वयं से अन्याय मानती है, क्योंकि सिख तथा पंजाब एक ही हैं, दो अलग-अलग इकाइयां नहीं हैं। वैसे भी भाजपा तथा आर.एस.एस. की ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ की सोच सिख धर्म के ‘सरबत दा भला’ की सोच से बार-बार प्रत्यक्ष रूप से टकराते हुए दिखाई देती है।
पानी के मामले की लड़ाई
इस समय नदियों के पानी के मामले पर पंजाब तथा हरियाणा में टकराव एक बार फिर शिखर पर है। केन्द्र के इशारे पर भाखड़ा ब्यास मैनेजमैंट बोर्ड के हरियाणा के लिए निश्चित किए गए पानी से अतिरिक्त पानी देने के फैसले का पंजाब सरकार तथा आम आदमी पार्टी द्वारा खुल कर विरोध करना अच्छी बात है, परन्तु नोट करने वाली बात है कि बेशक हम इस विरोध तथा पंजाब सरकार के स्टैंड का समर्थन करते हैं, परन्तु पंजाब सरकार को सचेत भी करना चाहते हैं कि यह पैंतरा कि हरियाणा को उसके लिए निश्चित पानी से अधिक पानी नहीं देना कहीं हरियाणा, राजस्थान तथा दिल्ली को जा रहे पानी पर उनका अधिकार स्वीकार करने वाली बात न बन जाए। सिर्फ अधिक पानी देने के विरोध से बात नहीं बनेगी क्योंकि यह पानी रिपेरियन कानूनों के विपरीत पंजाब पुनर्गठन एक्ट में जबरन डाली गई धाराएं 78,79 तथा 80 के तहत आदेशों तथा जबरन करवाए गए समझौतों के आधार पर ही दिया जा रहा है। पंजाब को हर हाल में रिपेरियन कानून के अधीन पंजाब के हिस्से की तीन नदियों के पानी पर अपना अधिकार लेने के लिए कानूनी एवं राजनीतिक लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी। उल्लेखनीय है कि पानी की रायल्टी या कीमत तो पंजाब अंग्रेज़ी शासन के समय से भी लेने का हकदार था, अब तो नरेन्द्र मोदी जो स्वयं को सिखों तथा पंजाबियों का हमदर्द होने का दावा करते हैं, की सरकार है। सो, हम प्रधानमंत्री से न्याय की मांग करते हैं।
मुझे दोस्त कहने वाले ज़रा दोस्ती निभा दे,
ये मुतालबा है हक का कोई इल्तिजा नहीं है।
(शकील बदायूनी)
युद्ध कि शांति
पहली बात तो यह है कि चाहे भारत व पाकिस्तान की बीच युद्ध का माहौल है और मीडिया तथा सोशल मीडिया यह प्रभाव बना रहा है कि युद्ध लगा कि लगा, परन्तु हमारी समझ तथा हिसाब से भारत-पाकिस्तान ‘पूरे युद्ध’ के आसार बहुत कम हैं, परन्तु हां, भारत द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई निश्चित है, जिसका आभास उस रिपोर्ट से होता है, जिसके अनुसार भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अब तक लगभग 12 बड़े-बड़े देशों के प्रमुखों के साथ सीधी बातचीत कर चुके हैं और 100 से अधिक देशों के राजदूतों से विदेश मंत्रालय द्वारा बात की जा चुकी है। यह भी बताया जा रहा है कि भारत किसी देश से न तो कोई मदद मांग रहा है और न ही किसी को मध्यस्थ बनने के लिए कह रहा है, अपितु कहा यह जा रहा है कि भारत अपनी रक्षा तथा प्रभुसत्ता के लिए कदम उठाना हक-ब-जानब है। यह स्थिति साफ एहसास करवाती है कि भारत पाकिस्तान के खिलाफ या पाकिस्तान में कोई बड़ी कार्रवाई जैसे आतंवादियों के ठिकानों या पाकिस्तानी एजेंसियों पर स्ट्राइक के अतिरिक्त पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में कोई बड़ी कार्रवाई कर सकता है, जिसके बारे वह बार-बार बयान भी दे चुका है। यह ठीक है कि भारत सीमित कार्रवाई करेगा, परन्तु लड़ाई कभी एकतरफा नहीं होती और न ही किसी एक पक्ष के अनुसार ही होती है। रूस तथा यूक्रेन का युद्ध हमारे सामने है। अब यदि पाकिस्तान भारत की सीमित कार्रवाई के जवाब में सीमित जवाब देकर चुप कर जाता है तो दोनों पक्ष अपनी-अपनी कार्रवाई को मीडिया में बढ़ा-चढ़ा कर बता कर सबक सिखा देने के प्रचार करके अपनी-अपनी पीठ थपथपाने तक ही सीमित रहते हैं तो हाल की घड़ी जंग नहीं होगी। जैसे ईरान ने इज़रायल पर दो बार हमला किया और इज़रायल ने भी एक बार ईरान के सैन्य ठिकानों पर हवाई हमला करके जवाब दे दिया, पर भारत और पाकिस्तान की ज़मीनी सरहद सांझी है, ईरान और इज़रायल की सांझी नहीं। यदि पाकिस्तान भारत के सीमित हमले के जवाब में हमलावर रवैया अपनाता है तो फिर ‘पूर्ण जंग का रुकना’ मुश्किल हो जाएगा। नि:संदेह भारत के पूर्व जनरल कह रहे हैं कि पाकिस्तान के पास 5 से 15 दिनों के अधिक लड़ाई की सामर्त्य नहीं, परन्तु ऐसा तो रूस भी कहता था। वास्तव में क्या होता है, यह तो समय ही बताएगा। इस समय समाचार हैं कि चीन और तुर्की पाकिस्तान को मदद दे रहे हैं। वास्तव में चाहे चीन को अमरीकी टैरिफ के चलते भारत के साथ व्यापार की बहुत ज्यादा ज़रूरत है, पर पाकिस्तानी कश्मीर में उसका बड़े निवेश और उसकी सामरिक (सैन्य) ज़रूरत उसको भारत द्वारा पीओके पर कब्ज़े को रोकने के लिए उकसाएगी। इसलिए हम तो दुआ ही कर सकते हैं कि दोनों देशों में कार्रवाई सीमित ही रहे और पहलगाम के दोषियों को उचित सज़ा देकर थम जाए क्योंकि यही दुनिया, देश और पंजाब के हक में है।
जो दोस्त वो मांगते हैं सुलाह की दुआ,
दुश्मन ये चाहते हैं आपस में जंग हो।
(माधव राम जौहर)
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