सेवा शुल्क
शहर के सरकारी दफ्तर में बड़े बाबू की ईमानदारी के चर्चे दूर-दूर तक फैले थे। कहा जाता था कि वह रिश्वत नहीं लेते, हर काम पूरी निष्ठा से करते हैं और नियमों का कड़ाई से पालन करते हैं लेकिन जो लोग उनके साथ रोज़ काम करते थे, वे इस ‘ईमानदारी’ की हकीकत अच्छी तरह समझते थे। बड़े बाबू रिश्वत से सख्त परहेज़ ज़रूर करते थे लेकिन छोटी रकम की रिश्वत से। बड़ी रकम देखकर उनकी ईमानदारी खुद-ब-खुद ‘सुविधा शुल्क’ में बदल जाती थी।
इसी दफ्तर में एक दिन राजू नाम का एक सीधा-सादा आदमी पहुंचा। उसके पिता की पुश्तैनी जमीन के कागजात बनवाने थे, जिसके बिना वह बैंक से लोन नहीं ले सकता था। वह पिछले कई दिनों से दफ्तर के चक्कर काट रहा था लेकिन हर बार उसे यह कहकर लौटा दिया जाता कि ‘तुम्हारी फाइल में कुछ कमी है।’
राजू हर सुबह दफ्तर पहुंचता, लंबी लाइन में खड़ा होता और घंटों इंतजार करने के बाद बाबूजी से मुलाकात होती लेकिन हर बार उसे कोई न कोई बहाना देकर टरका दिया जाता। उसने दूसरे लोगों से पूछा कि आखिर उसका काम क्यों नहीं हो रहा। तभी किसी ने उसे सलाह दी।
‘बिना तेल डाले सरकारी मशीन नहीं चलती, भाई! बाबूजी की जेब गर्म कर दो, फिर देखना काम कैसे चुटकियों में हो जाता है!’
राजू को रिश्वत देने का कोई अनुभव नहीं था, न ही उसकी ऐसी आदत थी। लेकिन मजबूरी थी, पिता की जमीन के कागजात के बिना वह कुछ नहीं कर सकता था। उसने सोचा, ‘अगर सौ रुपये देने से काम हो जाता है, तो यह रिश्वत नहीं, बस ‘फीस’ समझ लो!’
हिम्मत जुटाकर राजू फिर से बाबूजी के पास गया। जैसे ही बड़े बाबू ने फाइल खोली, राजू ने धीरे से सौ रुपये का नोट फाइल के ऊपर रख दिया।
बड़े बाबू की नज़र जैसे ही नोट पर पड़ी, उनका चेहरा अचानक लाल हो गया। उन्होंने ज़ोर से अपनी फाइल बंद की और कुर्सी पर थोड़ा पीछे हटते हुए बोले-
‘क्या बदतमीजी है ये? तुम मुझे रिश्वत देने आए हो? क्या समझते हो कि मैं बेईमान हूं? यह सरकारी दफ्तर है, कोई बाज़ार नहीं! यहां हर काम नियम-कायदे से होता है!’
राजू हक्का-बक्का रह गया। उसका चेहरा पीला पड़ गया और आवाज़ कांपने लगी।
‘म... माफ करिए बाबूजी, मैंने तो बस... मेरा मतलब... काम जल्दी हो जाए, इसलिए...’
बड़े बाबू ने गुस्से में नोट उठाकर उसकी ओर बढ़ाया और बोले-
‘ले जाओ ये पैसे! मैं रिश्वत नहीं लेता। मेरी ईमानदारी पर शक मत करो। मैं नियमों के हिसाब से काम करता हूँ, समझे?’
राजू को यह देखकर राहत महसूस हुई कि बाबूजी सच में ईमानदार हैं। उसे लगा कि अब उसका काम जल्दी हो जाएगा लेकिन अगले ही पल, बाबू ने उसकी फाइल फिर से पलटते हुए गंभीर स्वर में कहा-
‘तुम्हारे कागज़ अधूरे हैं। इसमें कई गलतियां हैं। पहले उन्हें सही करवाएं, फिर आना!’
राजू घबरा गया। उसने धीरे से पूछा, ‘पर बाबूजी, आपने तो पहले कहा था कि सब ठीक है। अब अचानक क्या गलती मिल गई?’
बाबू ने एक गहरी सांस ली और मुस्कुराकर बोले- ‘पहले ध्यान से देखा नहीं था। अब देखा तो समझ आया कि कागज़ पूरे नहीं हैं। जाओ, जब सब कुछ सही हो जाए, तब आना!’
राजू समझ नहीं पाया कि बाबूजी की नज़र कागज़ों पर थी या सौ रुपये की रकम पर। राजू परेशान होकर बाहर आया और बगल में खड़े दफ्तर के चपरासी से पूछा, ‘अब क्या करूं? ये बाबूजी तो काम ही नहीं कर रहे!’
चपरासी मुस्कुराया और धीरे से बोला, ‘छोटी रकम से इनका काम नहीं चलता, भाई! अगर सच में काम करवाना है तो कम से कम पांच रुपये दो, फिर देखो फाइल कैसे हवा से भी तेज चलती है!’
राजू के चेहरे पर निराशा थी लेकिन अब उसे सरकारी दफ्तर के नियम समझ आ चुके थे। उसने जेब से पांच सौ रुपये निकाले और चपरासी को थमा दिए। अगले ही पल, चपरासी अंदर गया, बाबूजी से धीरे से कुछ फुसफुसाया और फिर बाबूजी ने राजू को इशारा किया।
‘अच्छा, अब तुम्हारी फाइल देखी... सब सही है। मैं इसे आगे बढ़ा रहा हूँ!’
राजू ने अपनी फाइल पर मुहर लगते हुए देखा और समझ गया कि सरकारी दफ्तर में ईमानदारी भी ‘रकम की मात्रा’ पर निर्भर करती है। बड़े बाबू ने सौ रुपये की रिश्वत को ठुकराकर ईमानदारी का भाषण ज़रूर दिया था लेकिन जब रिश्वत की रकम पांच सौ रुपये हो गई, तो उनकी नियमप्रियता और ईमानदारी हवा हो गई। राजू को एक सीख मिली- ‘सरकारी दफ्तरों में छोटे नोट ‘रिश्वत’ होते हैं, और बड़े नोट ‘सेवा शुल्क’।’ और इस तरह बाबूजी की ‘ईमानदारी’ कायम रही, बस रकम थोड़ी बढ़ गई थी।
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