अजीब दास्तान
भारत में अंग्रेज़ों के पंजाब पर कब्ज़े के बाद अ़फगानिस्तान भारत का हमेशा पड़ोसी देश रहा है। म़ुगलों के शासन के समय महाराजा अकबर का शासन अ़फगानिस्तान के बहुत-से हिस्सों तक फैला हुआ था। म़ुगलों का शासन कमज़ोर होने के बाद केन्द्रीय एशिया और अ़फगानिस्तान के शासकों ने भारत पर लगातार हमले किये और उनकी मार दक्षिण तक भी होती रही। नादिर शाह दिल्ली को फतेह करके बेशुमार धन-दौलत और पुरुष-महिलाओं को गुलाम बना कर अ़फगानिस्तान ले गया था। म़ुगलों के समय अमूल्य कोहिनूर हीरा और शाहजहां द्वारा बनाए गए तख्त-ए-हाऊस को भी उखाड़ कर वह अपने साथ अ़फगानिस्तान ले गया था। उसके बाद अहमद शाह अब्दाली ने लगातार भारत पर हमले करके इसे बुरी तरह से लूटा। अ़फगानों का शासन पाकिस्तान के ज़िला मुल्तान और गुजरात के बाद लाहौर और कश्मीर तक भी कायम रहा। उनके बनाये गए गवर्नर ही यहां शासन करते रहे। पंजाब में मिसलों के समय सिख जरनैल लगातार उन्हें चुनौती देते रहे। दिल्ली के म़ुगलों के कमज़ोर होने के बाद और अहमद शाह अब्दाली और उसके उत्तराधिकारियों के निरुत्साहित होने के बाद सिख मिसलों ने उस समय के लगभग पूरे पंजाब पर कब्ज़ा कर लिया था। महाराजा रणजीत सिंह ने दरा-़खैबर तक अपना शासन स्थापित कर लिया था। वहां जमरौद का किला भी बनाया, जिसके बाद अ़फगानों के भारत पर सैकड़ों वर्ष से होते हमले थम गए। महाराजा रणजीत सिंह ने पूरे पंजाब के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर के बाद लद्दाख पर भी अपना शासन स्थापित कर लिया था। 1947 में भारत के विभाजन के बाद महाराजा रणजीत सिंह के शासन का बड़ा भाग पाकिस्तान के पास चला गया। पाकिस्तान के प्रांत खैबर प़ख्तूनख्वा की सीमाएं अ़फगानिस्तान के साथ लगती हैं।
अ़फगानिस्तान लगभग पिछले 55 वर्ष से बेहद राजनीतिक कशमकश में फंसा रहा है। 1973 में वहां राजा ज़हीर शाह का तख्ता पलट कर दिया गया था। 1979 में प्रत्यक्ष रूप से वहां सोवियत यूनियन की सेनाएं दाखिल हो गईं थीं और उसने वहां अपनी समर्थक सरकार स्थापित कर ली। इसके बाद अमरीका और पश्चिमी देशों के समर्थन से अ़फगानी सोवियत यूनियन के विरुद्ध लड़ते रहे। इस समय के दौरान तालिबान ब़ािगयों को अमरीका और पश्चिमी देशों द्वारा वित्तीय और हथियारों की सहायता दी जाती थी। अमरीकी हथियारों से पाकिस्तान में प्रशिक्षण देकर उन्हें अ़फगानिस्तान में लड़ने के लिए भेजा जाता रहा। 1988-89 में सोवियत सैनिक अ़फगानिस्तान से निकल गए। वर्ष 1996-2001 के बीच तालिबान ने पहली बार सोवियत यूनियन की समर्थक सरकार का तख्ता पलट करके देश पर कब्ज़ा कर लिया। इस संघर्ष में अल-कायदा के प्रमुख ओसामा-बिन-लादेन भी तालिबान के साथ था, परन्तु इसी दौरान अरब देशों में मुस्लिम मूल के आतंकवादी संगठन मज़बूत हुए, जो शरीयत के कानून विश्व भर में लागू करना चाहते थे। अल-कायदा के नेता ओसामा-बिन-लादेन ने इस सिद्धांत को मुख्य रखते हुए अमरीका को चुनौती दे दी, क्योंकि अमरीका कई अरब देशों की सरकारों की सहायता करता रहा था। ओसामा-बिन-लादेन के नेतृत्व में वर्ष 2001 में न्यूयार्क के ट्रेड टावरों पर हमला किया गया, जिससे वहां भारी तबाही हुई। उसके बाद ओसामा-बिन-लादेन ने अ़फगानिस्तान में तालिबान के शासन में शरण ले ली थी। इसी कारण ही अमरीका ने पाकिस्तान की सहायता से अ़फगानिस्तान में तालिबान शासन का तख्ता पलट कर दिया। देश को बड़ी सीमा तक तबाह कर दिया और वर्ष 2001-2004 के दौरान अपनी पसंद की सरकार वहां स्थापित करवा दी। उसके बाद पाकिस्तान हर समय दोगली नीति पर चलता रहा। एक तरफ वह अल-कायदा और तालिबान की सहायता करता था और दूसरी ओर उसकी पूरी निर्भरता अमरीका पर थी। उसकी अपनाई हुई दोगली नीति अंतत उस समय सामने आई जब पाकिस्तान में ही हवाई हमला करके अमरीका के सुरक्षा बलों ने ओसामा-बिन-लादेन को मार दिया, जिससे पाकिस्तान की यह दोहरी नीति विश्व भर के सामने आ गई। अ़फगानिस्तान में जिस तरह पाकिस्तान अमरीका और पश्चिमी देशों की सहायता से अप्रत्यक्ष लड़ाई (प्रौक्सी वार) लड़ता रहा, बाद में उसने वही नीति भारत के विरुद्ध अपना ली। पाकिस्तान की सरकारें आतंकवादी संगठनों द्वारा भारत को लगभग पिछले 35 वर्ष से रक्त-रंजित करती आ रही हैं। इस नीति में वहां के सैन्य प्रमुखों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। पाकिस्तान की सहायता से ही अगस्त, 2021 को पुन: तालिबान अ़फगानिस्तान पर काबिज़ हो गया था। उस समय उन्होंने पाकिस्तान के साथ मिल कर भारत के विरुद्ध भी अपनी गतिविधियां जारी रखीं और इस कारण भारत को अ़फगानिस्तान में अपने विकास प्रोजैक्ट बंद करने पड़े, परन्तु आज अनेक कारणों के दृष्टिगत अ़फगानिस्तान की तालिबान सरकार पाकिस्तान की दुश्मन बन गई दिखाई देती है। उसकी ओर से ही पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान संगठन को वहां की सरकार के विरुद्ध लगातार कार्रवाइयां करने के निर्देश दिए गए हैं। आज चाहे अ़फगानिस्तान की तालिबान सरकार को पाकिस्तान के बिना विश्व भर में और किसी ने मान्यता नहीं दी हुई, परन्तु अपनी अनेकानेक आंतरिक समस्याओं के कारण तालिबान को अपनी नीतियां बदलने के लिए विवश होना पड़ा है। विगत दिवस पाकिस्तान की शह पर आतंकवादियों द्वारा पहलगाम में जिस तरह भारतीय नागरिकों की गोलियां मार कर हत्या की गई, उसके संबंध में भी अ़फगानिस्तान की तालिबान सरकार ने पाकिस्तान की कड़ी आलोचना की है। पाकिस्तान ने विगत अवधि में लाखों अ़फगान शरणार्थियों को ज़बरन अ़फगानिस्तान जाने के लिए विवश किया है। विगत दिवस अ़फगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुतकी ने भारत के विदेश मंत्री जयशंकर को इस संबंध में फोन किया है और उन्होंने यह भी कहा है कि भारत अ़फगानिस्तान में पहले छोड़े गए प्रोजैक्टों को पुन: शुरू करे। इस वर्ष जनवरी में भी दुबई में भारत के विदेश सचिव बिक्रम मिसरी की तालिबान के विदेश मंत्री मुतकी के साथ भेंट हुई थी।
हम इसे राजनीति की अजीब दास्तान समझते हैं और यह भी कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रम में देशों का सहयोग और दोस्ती स्थायी नहीं होती। आज अ़फगानिस्तान की सरकार द्वारा भारत की ओर सहयोग के लिए बढ़ाए गए कदमों से पाकिस्तान की सरकार को एक नई चुनौती मिली है, जो आगामी समय में उसकी मुश्किलों में और भी वृद्धि करने के सामर्थ्य होगी। घटित हो रहे समूचे घटनाक्रम के दृष्टिगत पाकिस्तान की कमज़ोर और पतली होती जा रही स्थिति का अहसास ज़रूर होता है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द