...ज़रा याद करो कुर्बानी

हम आज़ाद देश के आज़ाद सोच वाले नागरिक हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह सोच और आज़ाद होती जाती है। पिछले समय में जब भारत आज़ाद नहीं हुआ था, उस समय के क्रांतिकारी लोगों का म़कसद सिर्फ और सिर्फ देश को अंग्रेजों के चंगुल से आज़ाद करवाना और लोगों का खुली हवा में, आज़ाद भारत में सांस लेना यकीनी बनाना था।
हमारे क्रांतिकारियों की मेहनत रंग लाई, जिसके कारण हम आज़ाद भारत में जन्म ले सके, परन्तु अब हमारी वर्तमान और आने वाली पीढ़ी के लिए आज़ादी का मतलब बदल गया है। हमें आज़ादी चाहिए भ्रष्टाचार से, हिंसा से, रिश्वतखोरी से और बुरे तत्वों से। इन सबसे आज़ादी हासिल करने के लिए हर कोई दिन-ब-दिन संघर्ष कर रहा है। सुबह से रात तक चाहे नौजवान हो, चाहे बड़ा हो, अपने-अपने आज़ादी के म़कसद को पूरा करने के लिए हाथ-पांव मारते हैं। यह दौड़ जारी है और जारी रहेगी। मौजूदा समय में चल रही दिमागी भागदौड़ से हमारी अगली पीढ़ी भी प्रभावित हो रही है। प्रतिदिन के मुकाबलों में अपने-आप को साबित करना आम इन्सान की ज़िंदगी का हिस्सा बन गया है।
यहां यह सब ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी हो गया क्योंकि पिछले दिनों ‘केसरी चैप्टर-2’ नाम की फिल्म रिलीज़ हुई है जो कि जलियांवाला ब़ाग के साके पर आधारित है। यह फिल्म उपरोक्त पक्ष से हमारी सोच को छूती है। शंकरन नायर नाम के व्यक्ति द्वारा जलियांवाला ब़ाग कत्लेआम के बाद अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी गई कानूनी लड़ाई को बयान करती, इस फिल्म में अक्षय कुमार ने मुख्य पात्र की भूमिका निभाई है। कौन है शंकरन नायर? क्या भूमिका थी उसकी? ये सभी सवाल नौजवान पीढ़ी, उनके माता-पिता के मन में आने ज़रूरी थे और आशा थी कि सिनेमाओं में लाइनों की होड़ लग जाएगी, पर मन को उस समय बहुत धक्का लगा जब देखा कि लोगों को टाईटल के बारे में सुन कर ही फिल्म में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। हाऊसफुल नहीं हुए, टिकटों के लिए प्रतीक्षा नहीं हुई। क्यों हम एक दिन अपनी पार्टियां, समूह इस फिल्म को देखने के लिए छोड़ नहीं सके? क्यों हमारी नौजवान पीढ़ी के मन में ऐसी एतिहासिक फिल्म देखकर अपना ज्ञान बढ़ाने का ख्याल नहीं आता? क्यों इसके विपरीत किसी गायक के शो पर टिकटों की मारोमार होती है? हम ऐसे शो देखने के लिए दूर-दूर सफर करके पहुंचने को तैयार हो जाते हैं, फोटो सोशल मीडिया पर डालते हैं। परन्तु जब ऐसी प्रेरणादायक फिल्मों की बात होती है तो समय की कमी का बहाना बनाया जाता है, ऐसी फिल्में किसी के सोशल मीडिया पर एक लिखित का भी शिंगार नहीं बनतीं। इसका कारण है कि आज हम सभी वही करना चाहते हैं जो दुनिया को पसंद है, जो फैशन में है। इसी बात का असर हमारी अगली पीढ़ी के दिमाग और मन पर पड़ा है। तभी हल्के-फुल्के शो देखना उनके लिए आज ज़रूरी है पर इतिहास जानना ज़रूरी नहीं है। इतिहास पढ़ना, आज़ादी की लहर के बारे जानना उनके लिए सिर्फ नम्बर लेने के लिए, पढ़ाई के लिए ज़रूरी है। सोच के इस अवसान के लिए हम मां-बाप ज़िम्मेदार हैं। हमारे गुरु साहिबान, हमारे स्वतंत्रता सेनानी, कुर्बानी देने वाले अनगिणत नायकों की कुर्बानियों की कद्र आज हमारे दिलों में एक बीते कल की तरह रह गई है।
एक तरफ वे हस्तियां हैं जो देश, लोगों की खातिर अपना सब कुछ दांव पर लगा गईं, और एक हम हैं जो कि यह जानने के लिए भी तैयार नहीं कि आज हम किन शख्सियतों के कारण खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
बात फिल्म ‘केसरी चैप्टर-2’ की चल रही थी। फिल्म देखकर मन को बहुत हैरानी हुई कि एक ़गैर-पंजाबी द्वारा जलियांवाला ब़ाग संबंधी लड़ी गई सच की लड़ाई के योगदान को बहुत कम लोग जानते हैं। इस नाम के बारे में कोई वाक़िफ नहीं।
शंकरन नायर मालाबार (अब केरल) में जन्मे, एक मशहूर वकील थे और 1908 में मद्रास हाईकोर्ट के जज बन गये। वह एक सुधारक के तौर पर उभरे और लिंग-समानता, जातिवाद, बाल विवाह, मुफ्त प्राइमरी शिक्षा जैसे मुद्दों पर उन्होंने आवाज़ उठाई और समाज की बेहतरी के लिए काम किये। वह 1890 में मद्रास की विधायी कौंसिल के सदस्य बने। अपनी सोच, नज़रिये और स्वभाव के कारण वह अंग्रेजों और भारतीयों दोनों के ही प्रिय थे। गुलाम भारत के समय के पांच सदस्य थे और शंकरन नायर अकेले ही भारतीय थे जो इस कौंसिल के सदस्य थे।
अंग्रेजों के भारतीयों पर अत्याचारों के कारण शंकरन नायर यह पद छोड़ना चाहते थे परन्तु मोती लाल नेहरू और बाकी राष्ट्रवादी चाहते थे कि वह सिस्टम में रह कर काम करें और अंग्रेजों को ठीक काम करने की सलाह दें।
जलियांवाला ब़ाग के साके ने शंकरन नायर के दिमाग पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। प्रशासन ने यह बयान दर्ज करवाए थे कि जलियांवाला ब़ाग में इकट्ठे हुए लोग आतंकवादी थे और इससे पहले कि कुछ बड़ा घटित होता, उनकी मुहिंम को बंद कर दिया गया। ब्रिगेडियर रेजिनाल्ड डायर जिसने इस घटना को अंजाम दिया था, उसके खिलाफ शंकरन नायर ने मोर्चा खोला यह साबित करने के लिए कि जो जलियांवाला ब़ाग में हुआ, वह अमानवीय कृत्य था और उसके पीछे ब्रिगेडियर रेजिनाल्ड डायर का हाथ था। पांच साल चले इस केस में पूरी दुनिया को जलियांवाला ब़ाग के साके के बारे में पता चल गया। चाहे शंकरन नायर डायर के खिलाफ केस हार गये पर इससे आज़ादी की लहर और तूल पकड़ गई। लोगों में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ ब़गावत तेज़ हो गई। भारत ही नहीं, दुनियाभर के अखबार इस सच्चाई का ज़िक्र करने लगे। ब्रिटिश सरकार को कुछ युद्ध संबंधी कानून पंजाब में रद्द करने पड़े। दुनियाभर में नमोशी का सामना न सहते हुए ब्रिगेडियर रेजिनाल्ड डायर लम्बी बीमारी के कारण कुछ साल बाद दुनिया छोड़ गया।
ब्रिगेडियर रेजिनाल्ड डायर को उसके बॉस माइकल ओडवायर  जो उस समय लैफ्टिनेंट गवर्नर आ़फ पंजाब थे, का जलियांवाला ब़ाग के कत्लेआम में पूरा समर्थन था। नायर ने एक किताब लिखी ‘गांधी एंड अनार्की’  जिसमें माइकल ओडवायर पर पंजाब में अपनी ताकत का गलत उपयोग करने का आरोप था। ओडवायर के अनुसार शंकरन नायर की किताब ने उनकी छवि बर्बाद की। इस कारण माइकल ओडवायर ने लंडन के किंग कोर्ट में शंकरन नायर के खिलाफ केस किया, जहां शंकरन नायर को इन्साफ मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी। केस हारने के बाद शंकरन नायर को माफी मांगने या 7500 ब्रिटिश पौंड (आजकल के हिसाब से 8,53,500 रुपये) देने का आदेश हुआ। एक भारतीय के लिए यह बहुत बड़ी रकम थी परन्तु माइकल ओडवायर जैसे इन्सान के आगे झुकने से ज्यादा नायर ने रकम देने को प्राथमिकता दी।
नायर को ब्रिटिश प्रैस ने पूछा कि इस फैसले के साथ क्या उनकी छवि को नुकसान पहुंचा है? उनका जवाब था : यदि किंग कोर्ट के सभी जज इकट्ठे होकर भी उनको गलत साबित कर देते हैं, तो भी शंकरन नायर की छवि पर कोई असर नहीं पड़ेगा। माइकल ओडवायर को लंडन में 1940 में स. ऊधम सिंह ने जलियांवाला ब़ाग के कत्लेआम का बदला लेने के लिए गोली मारकर मार दिया था।
आज़ादी के संघर्ष में एक बड़ी देन वाले ़गैर-पंजाबी जिसने दृढ़ता और हिम्मत से अंग्रेजों के धक्के शाही के खिलाफ लड़ने का जज़्बा दिखाया, उसका नाम आज तक हम नहीं जानते थे, और जब फिल्मों के ज़रिये नाम जानने का मौका मिलता है तो हम जानने और देखने को तैयार नहीं, क्योंकि हम आज़ादी का मतलब सिर्फ अपने अनुसार ज़िंदगी जीने को ही समझते हैं। उन योद्धाओं जिनके कारण हम आज़ाद हुए, उनको क्यों नहीं जानना चाहते?
बहुत-बहुत धन्यवाद कर्ण सिंह त्यागी जैसे कहानीकार और निर्माताओं का, अक्षय कुमार जैसे अभिनेता का जो हममें और हमारी आने वाली पीढ़ी में कुर्बानियों की ज्वाला जलाना चाहते हैं। इस ज्वाला को हमेशा जलते रखना अब हमारी ज़िम्मेदारी है।
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