पारदर्शी नहीं हैं सरकार की टैक्स वसूली संबंधी नीतियां

हमारे देश में जो कर वसूली है, वह सरकार की तरफ से इस तरह की जाती है जैसे करदाता एक करवंचक या अपराधी हो। अपेक्षा की जाती है कि वह चुप रहकर जो सरकारी फरमान जारी किए जाते हैं, उनका पालन करे, वरना क्या हो सकता है, इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। 
हमारे देश में आरटीआई कानून इतना प्रभावी तो है ही कि इसके ज़रिए सरकारी फाइलों में दबी जानकारी हासिल की जा सकती है। ऐसा ही एक उदाहरण है जब एक आरटीआई एक्टिविस्ट ने सरकार से पर्यावरण के मुद्दे पर सवाल पूछा कि सेस के रूप में करदाताओं से कितनी रकम वसूली गई और कितनी खर्च हुई। पता चला कि लगभग एक दशक में कई लाख करोड़ रुपया तो सरकारी खज़ाने में आया लेकिन उसका उपयोग मात्र चौथाई राशि के आस-पास हुआ। मामला था, पर्यावरण मंत्रालय, प्रदूषण विभाग तथा अन्य संस्थाओं को प्रदूषण नियंत्रण के लिए उपकरण खरीदे जाने का ताकि उनके इस्तेमाल से नागरिकों को राहत मिले। आधे-अधूरे और ऊंट के मुंह में ज़ीरे के समान खरीददारी हुई जिनमें झाड़ू या सफाई मशीन, स्मॉग टावर थे, अस्पतालों में डीज़ल की जगह सीएनजी से चलने वाले जैनरेटर थे जो दिल्ली के अस्पतालों में लगने थे। ऐसे ही कुछ उपकरण और होंगे, लेकिन ये सब कहां हैं, कौन इनका इस्तेमाल कर रहा है, क्या मंत्री या नेता इनका निजी उपयोग कर रहे हैं, कोई जवाबदेही नहीं। एक जानकारी के मुताबिक एक मद में पचास करोड़ जमा हुए लेकिन खर्च दस लाख से भी कम हुआ। एनसीआर में प्रदूषण को लेकर जितनी हायतौबा मची रहती है, आए दिन ग्रैप लग जाता है, काम धंधा चौपट होता है और लोगों सांस लेने में तकलीफ होती है, उतनी ही सरकार की तरफ से लापरवाही नज़र आती है। 
आयकर के ऊपर लगने वाला सेस जो सेंट्रल एक्साइज और सर्विस टैक्स का संक्षिप्त रूप है, ऐसा लगता है कि वित्त मंत्री जी जब चाहे और जिस वस्तु पर उनका मन हो, इसकी घोषणा कर दें और वसूली कर लें, ज़रूरत थी भी या नहीं, कहां इसका इस्तेमाल होना है, कोई ज़िक्र नहीं, कितना अब तक बिना खर्च किए सरकार की तिजोरी में पड़ा है, कोई हिसाब नहीं। उल्लेखनीय है कि इसका उपयोग किसी और मद में नहीं किया जा सकता। सरकार के नियमित बजट से बाकी सभी खर्चे किए जाने होते हैं। 
ऐसा लगता है कि सेस दूध के ऊपर की मलाई है जिसकी बांट अपने निहित व्यक्तिगत या राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए आसानी से की जा सकती है क्योंकि कोई पूछने वाला नहीं है। कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करते हैं। शिक्षा सुविधाओं के विस्तार, नए स्कूल खोलने या पहले वालों में शैक्षिक उपकरणों की व्यवस्था करने के लिए सेस के रूप में वसूली की गई राशि इस्तेमाल हो सकती थी। इसी तरह स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए भी सेस लगाया जाता है जिसका फायदा सरकारी अस्पतालों और चिकित्सालयों को मिल सकता है। यहां भी वही ढाक के तीन पात, मामूली-सा एक प्रतिशत खर्च कर दिया और बाकी पैसा जमा है जिसे खर्च करने की किसी को न फुर्सत है और न ही कोई नीति है। ऐसे ही सड़क और ढांचागत सुविधाओं के लिए सेस वसूला जाता रहा है। गढ्ढों में सड़क की समस्या और गंदगी से उफनते नालों की बदबू से निवासियों की परेशानी कम की जा सकती थी। जगह-जगह कूड़े के अम्बार और मुंह नाक ढककर चलने की मज़बूरी से सच दिख ही जाता है। स्वच्छ भारत सेस भी लागू है लेकिन शहर में किसी भी जगह जाइए, स्वागत के लिए कचरा मिल ही जाएगा। इसी तरह कृषि कल्याण के क्षेत्र में सहायता के लिए सेस लगता है परन्तु इसका इस्तेमाल कहां हुआ है, कोई नहीं बता सकता। 
सेस की कथा यह है कि वित्त मंत्री को अपने कार्यकाल में अधिक से अधिक टैक्स वसूली करने का रिकॉर्ड बनाने के लिए तैयारी करते रहना है, को यही दर्शाता है कि जैसे भी तथा जिस भी साधन से हो, चाहे वह उपयक्त हो या न हो, आवश्यकता हो या न हो, यहां तक कि जबरन वसूली करनी पड़ जाए तो वह भी की जाए। इसके लिए सेस सबसे शानदार व्यवस्था है जो चाहे जितना लगा दो, कोई उंगली नहीं उठा सकता और खर्च हुआ है या नहीं, कोई नहीं जानता। एक बार लगा तो इसे हटाना भूल जाएंगे और करदाता को कुछ पता नहीं चलेगा। 
किसी भी व्यक्ति, चाहे वह सरकारी या निजी क्षेत्र में नौकरी करता हो, कारोबारी हो या उद्योगपति, सब को किसी न किसी तरह से सरकार को टैक्स देना ही पड़ता है। सबसे बड़ा हथियार है जीएसटी जिसके इस्तेमाल से किसी भी व्यक्ति या व्यवसायी को परेशान किया जा सकता है। सामान्यत: यही होता है कि जो वसूला जा रहा है, उसे बिना किसी प्रश्न के दे दीजिए अन्यथा न जाने कौन सी धारा के उल्लंघन के तहत जुर्माना देना पड़ जाए या अदालती कार्रवाई झेलनी पड़े। इसमें सबसे बड़ा झंझट यह है कि अक्सर इसे चुकाने और फिर इसका क्रेडिट लेने में गलती होने की संभावना रहती है। जानबूझकर कोई करे और दंड मिले तो भी बात समझ आती है लेकिन अनजाने में और कानून की अस्पष्टता के कारण हुई भूल-चूक की कोई सुनवाई नहीं, अपने खिलाफ हुई कार्रवाई को मानने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है।
हमारे देश की अर्थव्यवस्था में सुधार होने के आंकड़े इस तरह पेश किए जाते हैं जिनसे भ्रम होना स्वाभाविक है कि हम कितनी तेज़ी और मज़बूती से आगे बढ़ रहे हैं या अमीर बनने जा रहे हैं। यह दावा तब खोखला लगता है जब वास्तविकता यह सामने आती है कि अधिकतर लोगों के पास गुज़ारे लायक पैसे नहीं होते हैं और उन्हें कज़र् लेना पड़ता है। इसके साथ ही कुछ लोगों के पास इतना पैसा होता है कि अनाप शनाप खर्च करने पर भी वह कम नहीं होता। सरकारी बाज़ीगरी का एक उदाहरण यह है कि सरकार ने एक तरह से 12 लाख तक की आमदनी को करमुक्त करके अपनी दरियादिली दिखाई लेकिन अगर दस साल पहले किसी की जो कमाई थी और उस पर जो टैक्स देना पड़ता था, उसे देने के बाद भी उसके पास कुछ बच जाता था। आज वह 12 लाख की कमाई पर भी कुछ नहीं बचा सकता क्योंकि महंगाई तीन से चार गुना हो गई है। यह छूट तब मायने रखती जब उसकी आमदनी भी पहले से दुगनी या तिगुनी ही जाती। सीधे तौर पर कहें तो यह छूट 18 लाख की होती तब हम दस वर्ष पहले की स्थिति से तुलना कर सकते थे। 

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