जेनेरिक दवाओं पर सुनियोजित अभियान की दरकार

भारत में कैंसर और एचआईवी जैसी गंभीर बीमारियों की बेहद महंगी दवाएं बड़ी समस्या बनी हुई हैं। इनमें से कुछ दवाओं की एक डोज ही लाखों रुपए की है। ये दवाएं कमजोर और गरीब तबकों की पहुंच के बाहर हैं। जेनेरिक दवाएं इनका विकल्प हो सकती हैं, लेकिन शिकायतें आम हैं कि डॉक्टरों और दवा कंपनियों की मिलीभगत के कारण जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता बढ़ नहीं पा रही है। इसी साल अप्रैल में दवाओं की कीमतों से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि डॉक्टर सिर्फ जेनेरिक दवाएं लिखें तो मरीजों पर अनावश्यक बोझ डालने पर अंकुश लगाया जा सकता है। मोदी सरकार द्वारा नवंबर 2016 को घोषित ‘प्रधानमंत्री जन औषधि परियोजना’ में सरकार द्वारा उच्च गुणवत्ता वाली जेनरिक दवाइयां बाज़ार मूल्य 50 से 80 प्रतिशत तक कम कीमत पर उपलब्ध कराई जाती है। इसके लिए सरकार द्वारा देश भर में अब तक 15000 से ज्यादा ‘जन औषधि केंद्र’ खोले गए हैं, जहां 2047 प्रकार की जेनरिक दवाइयां और 300 से अधिक सर्जिकल उत्पाद उपलब्ध कराई जाती हैं। देश में फार्मा इंडस्ट्री 1.20 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की है और इसकी वार्षिक ग्रोथ 11 प्रतिशत है। देश में वार्षिक करीब 1.27 लाख करोड़ की दवाएं बेची जाती हैं, इसमें 75 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा जेनरिक दवाओं का है। भारत सस्ती यानी जेनेरिक दवाइयों का सबसे बड़ा एक्सपोर्टर है। दुनिया भर की डिमांड की 20 प्रतिशत दवाइयां भारत सप्लाई करता है। अमरीका में 40 प्रतिशत और यूके में 25 प्रतिशत दवाइयां भारत सप्लाई करता है। पिछले काफी समय से जेनरिक या ब्रांडेड दवाओं पर बहस छिड़ी है। पिछले साल नेशनल मैडीकल कमीशन ने एक नियम लागू किया था। इसमें कहा गया था कि डॉक्टरों को जेनेरिक दवाएं भी लिखनी होगी। नियम न मानने पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी। एनएमसी के इस फैसले के बाद इंडियन मैडीकल एसोसिएशन ने इस नियम पर सवाल खड़े किए थे।
कई डॉक्टर एसोसिएशन ने भी नए कानून का विरोध कर इसको वापिस लेने की मांग की थी। तर्क यह दिया गया था कि ब्रांडेड दवा न लिखने से मरीजों को नुकसान हो सकता है। विरोध के बाद एनएमसी से अपना फैसला वापस ले लिया था। सरकार मरीजों को सस्ती दवाएं उपलब्ध करवाने के लिए कानून में संशोधन की तैयारी कर रही है। इसके बाद डॉक्टर्स को मरीजों के लिए सिर्फ जेनेरिक दवा लिखनी होंगी, न कि किसी विशेष ब्रांड या कंपनी की। इसके बाद भी मरीजों को सस्ती दवाएं मिलने लगेंगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि जेनेरिक दवाओं के चलन से बड़ी फार्मा कंपनियों को सीधे नुकसान होगा।
जेनेरिक दवाओं के मुद्दे से इतर अब सरकार गंभीर बीमारियों की करीब 200 दवाएं सस्ती करने की तैयारी में है। ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑ़फ  इंडिया (डीसीजीआइ) के एक पैनल ने इनमें से कुछ दवाओं पर कस्टम ड्यूटी पूरी तरह हटाने और बाकी पर घटाकर पांच प्रतिशत करने की सिफारिश की है। अगर सिफारिश मंजूर की जाती है तो गंभीर बीमारियों के मरीजों को बड़ी राहत मिलेगी। सरकार ने इससे पहले 2016 में कैंसर, मधुमेह, विषाणु संक्रमण और उच्च रक्तचाप जैसी कई गंभीर बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होने वाली 56 दवाओं की कीमतों की सीमा तय की थी। इससे दवाओं की कीमतें 25 प्रतिशत तक घट गई थीं। फिर भी समय-समय पर दवाओं की ऊंची कीमतों को लेकर सवाल उठते रहे हैं।
आम तौर पर सभी दवाएं एक तरह का ‘केमिकल सॉल्ट’ होती हैं। इन्हें शोध के बाद अलग-अलग बीमारियों के लिए बनाया जाता है। जेनेरिक दवा जिस सॉल्ट से बनी होती है, उसी के नाम से जानी जाती है। जैसे- दर्द और बुखार में काम आने वाले पेरासिटामोल साल्ट को कोई कंपनी इसी नाम से बेचे तो उसे जेनेरिक दवा कहेंगे। वहीं, जब इसे किसी ब्रांड (जैसे- क्रोसिन) के नाम से बेचा जाता है तो यह उस कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है।
जेनेरिक दवाइयां या ब्रांडेड दवाइयों में कोई फर्क नहीं होता यह दोनों एक जैसे ही काम करती हैं फर्क सिर्फ इतना है कि ब्रांडेड दवाइयां महंगी होती है क्योंकि उन पर दवा कंपनियों द्वारा मार्केटिंग करने का खर्च शामिल होता है इसलिए वह महंगी होती है इसके अलावा उनका रिसर्च एंड डेवलपमेंट का खर्च भी शामिल होता है बल्कि जो जेनेरिक दवाइयां हैं उनमें दवा कंपनियों का सिर्फ बनाने का खर्चा होता है इसलिए वह सस्ती होती हैं।
ब्रांडेड दवाई महंगी होतीं हैं क्योंकि ब्रांडेड दवाई के साल्ट का अविष्कार किसी कंपनी द्वारा किया जाता है। जो उसके मूल्य में उसमें अविष्कार का खर्च, उसकी मार्केटिंग का खर्च, डॉक्टरों में दवाई का प्रचार करने का खर्च और उसके अलावा उस दवाई को बनाने के लिए जो उन्होंने पूंजी लगाई उसका ब्याज जुड़ा होता है। इसके अलावा दवाई के मूल्य में अत्यधिक लाभ भी जोड़ा जाता है। इन सबको मिलाने से दवाई का दाम काफी ज्यादा हो जाता है।
जिस दवाई का आविष्कार जिस कंपनी ने किया होता है उसे उस दवाई का पेटेंट मिल जाता है लेकिन 10 साल के बाद उसका दवाई का पेटेंट यानी अकेले दवाई बनाने का अधिकार खत्म हो जाता है। अब उसे कोई भी बनाकर बेंच सकता है ऐसे में छोटी-छोटी कंपनियां उसका एक मॉलिक्यूल थोड़ा सा बदल के जेनेरिक के रूप में पेश कर देती हैं। 
दरअसल फार्मा कंपनियां ब्रांडेड दवाइयों की रिसर्च, पेटेंट और विज्ञापन पर काफी पैसा खर्च करतीं हैं। जबकि जेनेरिक दवाइयों की कीमत सरकार तय करती है और इसके प्रचार-प्रसार पर ज्यादा खर्च भी नहीं होता। कई जानलेवा बीमारियों जैसे एचआईवी, लंग कैंसर, लीवर कैंसर जैसी बीमारियों में काम आने वाली दवाओं के ज्यादातर पेटेंट बड़ी-बड़ी कंपनियों के पास हैं। वे इन्हें अलग-अलग ब्रांड से बेचती हैं। अगर यही दवा जेनेरिक में उपलब्ध हो तो इलाज पर खर्च 200 गुना तक घट सकता है।
अक्सर देखा गया है कि सस्ती दवाओं के विपणन में दवा कंपनियां ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखातीं। अगर एक ब्रांड की दवा सस्ती होती है तो वे उसी रासायनिक मिश्रण वाले दूसरे ब्रांड का विपणन शुरू कर देती हैं, जो महंगा हो। कंपनियों और डॉक्टरों का गठजोड़ सस्ती दवाएं मरीजों तक नहीं पहुंचने देता। ऐसे निगरानी तंत्र की दरकार है, जो मरीजों के हित में इस गठजोड़ की मनमानी पर अंकुश रखे।

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