विपक्ष के प्रभावी नेता के रूप में उभरे राहुल गांधी 

कांग्रेस नेता राहुल गांधी पिछले एक साल से विपक्ष के नेता (एलओपी) हैं। इस भूमिका में वह भारत की संसद में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वह सरकार को जवाबदेह ठहराते हैं और जनता के विचारों के पक्ष में बोलते हैं। हालांकि विपक्ष के नेता की भूमिका संविधान में नहीं है, लेकिन यह गांधी को वरिष्ठ नौकरशाहों और सरकारी अधिकारियों को चुनने और सरकार पर कड़ी नज़र रखने में मदद करती है। वह विभिन्न संसदीय समितियों में भी शामिल हो सकते हैं। राहुल सरकार की शक्ति पर अंकुश लगाना चाहते हैं और ज़रूरत पड़ने पर कई विधायी कार्यों को सफलतापूर्वक रोक चुके हैं। हालांकि एक साल उनके प्रदर्शन का पूरी तरह से मूल्यांकन करने के लिए पर्याप्त नहीं है, लेकिन यह उनकी नेतृत्व क्षमताओं का संकेत ज़रूर देता है। उनके प्रदर्शन का आकलन करते समय कई सवाल उठते हैं। विपक्ष के नेता के रूप में वे कितने प्रभावी रहे हैं? क्या वे एक अच्छे सांसद हैं? क्या वे सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने में सफल रहे हैं? क्या उन्होंने बजट समीक्षा के प्रति अपनी पार्टी के दृष्टिकोण पर उल्लेखनीय प्रभाव डाला है? इसके अलावा क्या उन्होंने इस दौरान एक आदर्श उदाहरण के रूप में अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है? क्या वे संसद के भीतर और बाहर विपक्ष को एकजुट करने में सक्षम रहे हैं? आदि।
2004 में राजनीति में प्रवेश करने के बाद से राहुल के राजनीतिक जीवन में सफलताओं और चुनौतियों का मिश्रण रहा है। साथ ही विवादों ने उनकी ज़िम्मेदारियों के भार को रेखांकित किया है। कभी-कभी उन्होंने संसद में धरना-प्रदर्शनों में विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व किया। फिर भी कई महत्वपूर्ण मौकों पर वे अनुपस्थित रहे। राहुल ने कांग्रेस पार्टी में पार्टी प्रमुख और वर्तमान में विपक्ष के नेता सहित कई प्रमुख पदों पर कार्य किया है। उन्होंने पर्दे के पीछे काम किया है, पार्टी को जीत और हार के बीच मार्गदर्शन दिया है, जबकि 2004 से 2014 तक मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री पद नहीं लिया।
समर्थकों का दावा है कि गांधी ने 18वीं लोकसभा के दौरान एक मज़बूत विपक्ष का प्रभावी नेतृत्व किया है। गौरतलब है कि 2014 से 2024 के बीच किसी भी विपक्षी दल को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिए आवश्यक 543 सीटों में से कम से कम 10 प्रतिशत सीटें नहीं मिली थी। इसलिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उस एक दशक में यह पद रिक्त रहा। कम संख्या का मतलब स्थायी समितियों और प्रवर समितियों जैसी विभिन्न संसदीय समितियों में विपक्ष का प्रतिनिधित्व कम था।
2024 के चुनावों में किस्मत ने कांग्रेस पार्टी का साथ दिया, जिसने 99 सीटें जीतकर एक पुनरुत्थान का संकेत दिया। भाजपा को हराने के लिए विपक्षी दलों को एकजुट करने वाले ‘इंडिया गठबंधन’ ने 234 सीटें हासिल कीं। भाजपा 240 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी लेकिन बहुमत से चूक गयी। उन्होंने सरकार बनाने के लिए जेडी (यू) और तेलुगु देशम पार्टी से समर्थन मांगा, जिससे अन्य दलों की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए रणनीतियां बनाने की आवश्यकता पड़ी। लोकसभा में अपने पहले दिन विपक्ष के नेता के रूप में राहुल गांधी ने इस बात पर ज़ोर दिया कि सत्तारूढ़ गठबंधन को कानून के शासन का पालन करना चाहिए, जबकि विपक्ष को आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी, जाति जनगणना और किसानों के संकट जैसे ज्वलंत मुद्दे उठाने चाहिए।
गांधी के कदम व्यर्थ नहीं गये। उनके नेतृत्व ने एक तरह से मोदी सरकार को जाति जनगणना और लंबे समय से लंबित महिला आरक्षण विधेयक पर अपना रुख बदलने के लिए मजबूर कर दिया है। ये केवल नीतिगत बदलाव नहीं हैं, बल्कि उनके नेतृत्व में आए महत्वपूर्ण बदलाव हैं, जो उनके प्रभाव के महत्व को रेखांकित करते हैं। भाजपा और सत्तारूढ़ गठबंधन राजनीतिक महत्व के मुद्दों पर अलग-अलग विचार रखते हैं। विरोधी राहुल की आलोचना करते हैं कि वे विपक्ष के नेता के रूप में अपने कर्तव्यों की अनदेखी करते हुए अक्सर विदेश जाते हैं। उन्होंने पिछले एक साल में 300 विदेश यात्राएं की हैं। पीआरएस के अनुसार संसद में उनकी उपस्थिति 51 प्रतिशत रही, उन्होंने 8 बहसों में भाग लिया, 99 प्रश्न पूछे और कोई भी निजी विधेयक नहीं लाया। वे बताते हैं कि उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने कई राज्य खो दिये हैं। ज़ोर-शोर से किये गये प्रचार के बावजूद वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मणिपुर जाने के लिए राजी नहीं कर पाये। अडानी उनका एक और प्रिय विषय है, लेकिन उन्हें अभी तक सफलता नहीं मिली है। राहुल विपक्ष को एकजुट करने में पूरी तरह सफल नहीं रहे हैं। 2024 के चुनाव के बाद के परिदृश्य में उन्हें और चुनौतियों का सामना करना पड़ा। चुनावों के बाद गठबंधन में दरार आ गयी थी। आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों की कांग्रेस से अलग राय थी।
2024 के राज्य विधानसभा चुनावों के बाद से ‘इंडिया गठबंधन’ टूटने लगा है। दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाला एनडीए बरकरार है। इसके अलावा विपक्ष के नेता के मुद्दे पर ‘इंडिया गठबंधन’ के सहयोगी राहुल के साथ थे, लेकिन वे उन्हें अपनी एकमात्र आवाज़ बनने देने से हिचकिचा रहे हैं। यह विभाजन विभिन्न क्षेत्रीय नेताओं के अहंकार को दर्शाता है जो इस भूमिका में गांधी का समर्थन करने से हिचकिचा रहे हैं।
विपक्ष के नेता (एलओपी) के रूप में राहुल के सामने एक बड़ी चुनौती है। अपनी प्रभावशीलता दिखाने के लिए उनके पास अभी चार साल बाकी हैं। ‘इंडिया गठबंधन’ में एकता बनाये रखने के लिए और ज्यादा दलों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए, उन्हें अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ दोस्ताना व्यवहार करना होगा। राहुल को उनकी चिंताओं को सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। कांग्रेस को उम्मीद है कि वह एक आदर्श बनेंगे, जबकि भाजपा और उसके सहयोगी उनकी असफलता की कामना करते हैं। यह स्पष्ट है कि राहुल ने विपक्ष के नेता के रूप में आत्मविश्वास हासिल कर लिया है और अगले चार सालों में वे और भी ज्यादा साहसी हो सकते हैं। इसके लिएए उन्हें 24/7 विपक्ष के नेता के रूप में सक्रिय रहना होगा। (संवाद)

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