बिना हथियारों की लड़ाई

‘किससे लड़ेंगे हम?’ सवाल उभरता है। जवाब नदारद है। सफलता की घोषणाओं के बावजूद हम ़गरीबी से लड़ने की घोषणा करते हैं। यह ़खबर भी गर्म है कि हमने दस सालों में लाखों लोगों को ़गरीबी रेखा से ऊपर कर दिया है, लेकिन हर शहर में बहुमंज़िला इमारतों को देखने के बावजूद, बहुत लोगों की ़गरीबी का हाहाकर कम क्यों नहीं होता।
ऊंची अटारी पर रहने वाले लोगों ने बताया, ‘आदत’। इस देश के लोगों को रोकने की आदत हो गई है। फटीचर लोग हैं न। अपनी फटीचरी की वेदना प्रदर्शित करने के सिवा इन्हें आता ही क्या है। नहीं तो देश की विकास दर देख लो, दुनिया में सबसे अधिक है। आर्थिक ताकत का कारनामा देख लो, दुनिया में चौथे नम्बर आ गये। बीस बाईस बरस में दुनिया में पहले नम्बर पर आ जाएंगे। फिर भी देश भर में ़गरीबी का यह रुदन राग। खुशहाली के सूचकांक में अपने देश के दर्जे के गिरते चले जाने की शिकायत करते हो? लेकिन जिन्हें ज़िन्दगी जीने का ढंग आता है, उनकी तो रातों रात डिस्को बार में नाचने की तादाद बढ़ गई है। 
सड़कें छोटी पड़ गईं। बड़ी गाड़ियों की धूमधाम है। कहते हो बेसहारा आज भी बिना छत के हैं। अरे, इन्हें तो फुटपाथ और टूटी झुग्गियों में रहने की आदत हो गई है। ‘भूख भूख’ क्या चिल्लाते हो, हमने तो आम लोगों में से किसी को भी भूख से मरने न देने की गारंटी दे रखी है। हमारे सर्वेक्षक तो कहते हैं, रोज़गार दिलाओ विभाग की खिड़कियों पर रोज़गार मांगने वालों की भीड़ कम हो गई है। निराश्रितों पर उपकार के लिए हमने भूख से न मरने देने के लिए रियायती राशन की दुकानों की खिड़कियां खोल दी हैं। भीड़ अब वहां लगती है। इस भीड़ को कोई संशय नहीं। आर्थिक विकास से न डरो, ये खिड़कियां कभी बन्द न होंगी बल्कि ज्यों-ज्यों तरक्की का आंकड़ा बढ़ने का शोर बढ़ता चला जाता है, त्यों-त्यों रियायती राशन बांटने की ज़िन्दगी में विस्तार होता जाता है। मुबारक, तरक्की हो रही है। अब तो मुफ्त लंगर बांटने की दुकानों में भी वृिद्ध हो रही है। हमने कसम खा रखी है कि किसी को भूखा नहीं मरने देंगे। हां, अगर यह चाहते हो कि उनके खाने-पीने में पोषण के पूरे तत्व रहें। आने वाली पीढ़ी दुनिया के मुकाबले नाटी पैदा न हो। दूसरे देशों के मुकाबले उसकी औसत उम्र कम क्यों रह गई? तो भी अब सब को मुकम्मल जहां तो नहीं मिल जाता। किसी को जमीं नहीं मिलती तो किसी को आसमां नहीं मिलता।
आधे-अधूरे लोगों की जमात बढ़ी जा रही है। उसे धीरज रखने का पाठ पढ़ाया जाता है। आसमान में उड़ान भरने के अपने सपने के पूरा होने को एक चौथाई सदी बाद की तारीख दे दी जाती है। अपने सांस्कृतिक गौरव की बात याद दिलाई जाती है। कहा जाता है आज जो आध्यात्मिक और नैतिक ऊंचाइयां हम जी रहे हैं, उससे यह हज़ारों साल पुराना देश अगले हज़ारों साल तक गर्व करता रहेगा।
हां, गर्व करने की तो बात है। देश में शिक्षा क्रांति हो गई, और बच्चों को दस तक पहाड़ा तक याद नहीं। औसत और प्रतिशत कैसे निकालते हैं? यह छोटे तो क्या बड़े भी निकाल नहीं पाते। क्योंकि हमेें तो सीधे-सीधे सफलता के बड़े-बड़े आंकड़े जानने की आदत हो गई है। इन आंकड़ों पर उत्सव मनाने की आदत हो गई है। यहां जन-मार्च नहीं शोभायात्राएं निकाली जाती हैं। इन शोभायात्राओं में हम अधिक से अधिक एक नारा बन सकते हैं, क्योंकि रंक से राजा हो जाने का काम हमने उन चन्द लोगों के हवाले कर रखा है, जो सम्पर्क संस्कृति के माहिर हैं। जिन्होंने अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए सब संक्षिप्त मार्गों पर कब्ज़ा कर लिया है, और आम जनता के हवाले कर दिया है तपती सड़क पर नंगे पांव चलते रहने का विकल्प।बेशक इससे एक आपाधापी संस्कृति का निर्माण हो गया जिसने आम जनता को मुफ्तखोर हो जाने की संस्कृति का उपहार भेंट कर दिया।
खुदा झूठ न बुलवाए। आम लोगों ने भी इस मुफ्तखोर संस्कृति को जीने को आसान राह के तौर पर स्वीकार कर लिया है और दुनिया का सबसे बड़ा युवा देश होने के बावजूद आधी जनता बेकार या बिना वेतन काम के बैठी है, और हम उनके चेहरों पर बरसों से ठिठका हुआ धीरज देख कर कहते हैं, इस घोर कलियुग में भी कितना सतयुगी देश है।
लगता है परिभाषाएं और नाम बदल कर गर्वित हो जाने का युग आ गया। तभी तो इस गर्वीले देश में धर्म के नाम पर कट्टरता का संदेश दिया जाता है। जातिवादी जन-गणना एक मजबूरी बन जाती है, क्योंकि हम देश के दो वर्गों की पहचान अभी तक नहीं कर सके। एक छोटा-सा सम्पन्न वर्ग और बेहिसाब गरीबों का समूह, जो आसमान से बार-बार बादल फटने पर भी कम नहीं होता। हमने सबके कल्याण की जगह चुनिन्दा विकास का चयन कर लिया। और ‘मेरा भारत महान’ कहते हुए, हम अंतरिक्ष अनुसंधान पर गर्वित होते हुए चांद पर गरीबों की बस्तियां बसा देना चाहते हैं, और अंतरिक्ष सैर को भी धन्ना सेठों के हवाले कर देना चाहते हैं, क्योंकि देश की असली विकास दर तो वहां ही छिपी हुई है।

#बिना हथियारों की लड़ाई