हिमालय क्षेत्र में प्रकृति से तालमेल की आवश्यकता

उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले के धराली गांव में पिछले दिनों आई भीषण बाढ़ ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि पर्वतीय क्षेत्रों में अंधाधुंध और असंवेदनशील विकास किस प्रकार विनाश को आमंत्रित कर रहा है। धराली की यह त्रासदी मात्र एक स्थानीय प्राकृतिक आपदा नहीं थी बल्कि हिमालय क्षेत्र में हो रहे जलवायु परिवर्तन, बेतरतीब निर्माण, वनों की कटाई, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में अवरोध और वैज्ञानिक चेतावनियों की अनदेखी का प्रत्यक्ष परिणाम थी। यह घटना पूरे भारतीय हिमालय की उस त्रासद श्रृंखला की अगली कड़ी है जो केदारनाथ, चमोली, जोशीमठ और सिक्किम जैसी आपदाओं से लगातार बनी हुई है।
धराली में जिस बाढ़ ने दर्जनों भवनों, होमस्टे, दुकानों और होटलों को मलबे में तब्दील कर दिया, वह महज आकस्मिक नहीं थी। स्थानीय भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार यह क्षेत्र न केवल भूकंपीय दृष्टि से संवेदनशील है बल्कि इस गांव के नीचे से बहने वाली नदी के किनारे बनाए गए अधिकांश निर्माण बाढ़ क्षेत्र में स्थित थे। परम्परागत पहाड़ी घर सदियों से ढलानों पर बनाए जाते रहे हैं ताकि वे बाढ़ और भूस्खलन से बचे रहें किंतु आधुनिक पर्यटन आधारित अर्थव्यवस्था ने इन नियमों को ताक पर रखकर ‘वॉटरफ्रंट’ सुविधा के नाम पर घाटी के सबसे निचले हिस्से को व्यवसायिक उपयोग में ला दिया।
धराली की त्रासदी कोई पहली चेतावनी नहीं है। वर्ष 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ क्षेत्र में आई जलप्रलय ने लगभग छह हज़ार लोगों की जान ली थी। यह आपदा एक जलवायु संबंधित तीव्र वर्षा, ग्लेशियर झील के विस्फोट और मंदाकिनी नदी के अचानक उफान का घातक संयोग थी। इसके पश्चात 2021 में चमोली ज़िले के रैणी गांव के पास ऋषिगंगा नदी में एक हिमखंड के गिरने से अचानक बाढ़ आई जिसने निर्माणाधीन पनबिजली परियोजनाओं को तबाह कर दिया और 200 से अधिक लोगों की जान चली गई। इस घटना में स्पष्ट रूप से ग्लेशियर के पिघलने और पर्वतीय पारिस्थितिकी के असंतुलन की भूमिका सामने आई। फिर 2023 में जोशीमठ शहर की भूमि में दरारें और धंसाव की घटनाएं हुईं जिससे हज़ारों लोग विस्थापित हुए। वहां की वैज्ञानिक रिपोर्टों में बताया गया कि यह संकट भूमिगत जलस्रोतों में बदलाव, अनियोजित निर्माण और पर्वतीय ढालियों के अत्यधिक दोहन का परिणाम था। केवल उत्तराखंड ही नहीं, सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र ऐसी ही आपदाओं की गिरफ्त में है। वर्ष 2023 में सिक्किम की लोनक झील फटने से अचानक आई बाढ़ ने कई गांवों को तबाह कर दिया। 2020 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार हिमालय में 3,000 से अधिक ग्लेशियल झीलें जोखिम की श्रेणी में हैं जिनमें से लगभग 200 झीलों से तात्कालिक खतरा है। यदि इनका विस्फोट हुआ तो घाटियों में बसे नगर और गांव जलप्रलय की चपेट में आ सकते हैं।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक हिमाचल मामले में टिप्पणी की कि केवल राजस्व की प्राप्ति विकास का उद्देश्य नहीं हो सकती। विकास की योजनाएं पर्यावरण और पारिस्थितिकी की कीमत पर नहीं बननी चाहिए। न्यायालय ने यह भी कहा कि पहाड़ी राज्यों में नए निर्माण कार्यों में भूगर्भीय सर्वेक्षण, पारम्परिक ज्ञान और स्थानीय समुदायों की सहमति को महत्व दिया जाना चाहिए।आज आवश्यकता इस बात की है कि हिमालयी क्षेत्र में होने वाले विकास कार्यों का एक वैज्ञानिक ऑडिट किया जाए। प्रत्येक सड़क, सुरंग, बांध या होटल परियोजना से पहले उसका भूगर्भीय, पारिस्थितिकीय और जलवायु प्रभाव का आकलन अनिवार्य हो। स्थायी विकास केवल तभी संभव है जब उसमें प्राकृतिक पारिस्थितिकी के साथ तालमेल हो।
हिमालय की चुनौतियों का उत्तर केवल निर्माण नहीं है बल्कि पुनर्चिंतन है। हमें न केवल यह तय करना है कि कहां निर्माण होना चाहिए, बल्कि यह भी तय करना है कि कहां नहीं होना चाहिए। हमें विज्ञान की बात सुननी होगी, पारंपरिक ज्ञान को महत्व देना होगा और हिमालय को एक जैविक इकाई मानकर उसकी सीमाओं का सम्मान करना होगा। तभी धराली जैसी घटनाओं को दोहरने से रोका जा सकता है वरना यदि हमने सबक नहीं लिया, तो अगला विनाश हमारी दहलीज पर दस्तक देने में देर नहीं करेगा। (अदिति)

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