धान की रिकार्ड फसल तथा बौनेपन की बीमारी

कृषि विशेषज्ञों के अनुसार अच्छी बारिश होने तथा मौसम अनुकूल रहने के कारण इस वर्ष धान का रिकार्ड उत्पादन होने की सम्भावना है। धान की काश्त अधीन क्षेत्रफल बढ़ा है। किसानों ने खाद तथा बीज सामग्री पर बढ़िया लागत के साथ गुणवत्ता वाली सामग्री इस्तेमाल की है। निजी डीलरों द्वारा बढ़िया बीज किसानों को उपलब्ध किए गए हैं। अपेक्षाकृत मिलावट के ज़्यादा मामले नोटिस में नहीं आए हैं। एक अनुमान के अनुसार सीधी बिजाई लगभग 16 प्रतिशत क्षेत्रफल पर हुई है, जिससे पानी की बचत होगी। सीधी बिजाई से लगभग 20 प्रतिशत पानी की बचत होती है। पिछले वर्षों के दौरान प्रयासों के बावजूद सीधी बिजाई के अधीन क्षेत्रफल अधिक नहीं बढ़ा। 
परन्तु कई स्थानों पर जो धान को बौनेपन की बीमारी लग गई, उससे फसल का कितना नुकसान होता है, इसका अनुमान तथा इस बौनेपन की बीमारी ने कितना क्षेत्रफल अपने प्रभाव में लिया है, इसका अनुमान पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पी.ए.यू.) लुधियाना के उपकुलपति डा. सतबीर सिंह गोसल तथा आई.सी.ए.आर. (इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीच्यूट—पूसा) के चावल के विशेषज्ञ तथा जैनेटिक्स डिवीज़न के प्रमुख डा. गोपाला कृष्णन एस. के नेतृत्व में किए गए सर्वेक्षण से लगा लेना चाहिए। डा. गोसल ने 20 ज़िलों का सर्वेक्षण करके अर्ध-पहाड़ी क्षेत्र जिसमें पठानकोट, गुरदासपुर, रोपड़, फतेगगढ़ साहिब तथा पटियाला आदि शामिल हैं, में बौनेपन की बीमारी से अधिक क्षेत्र प्रभावित हुआ बताया है। डा. गोपाला कृष्णन एस. के नेतृत्व में आई.ए.आर.आई. के पांच विशेषज्ञों की टीम द्वारा हरियाणा तथा पंजाब के कुछ ज़िलों में इस बीमारी का काफी हमला देखा गया है। डा. कृष्णन एस. तथा डा. गोसल द्वारा तैयार की गईं इन रिपोर्टों से यह स्पष्ट हुआ है कि अगेता लगाया गया धान इस बीमारी से अधिक प्रभावित हुआ है, बजाय दूसरे धान से जो थोड़ा पिछेता लगाया गया था। 
इस बौनेपन की बीमारी से ही धान की कुछ किस्में बची हैं। क्या पी.आर. तथा क्या पूसा-44 सभी किस्में इस बीमारी की ज़द में हैं। चावल के विश्व भर में माने हुए विशेषज्ञ एवं वैज्ञानिक डा. गुरदेव सिंह खुश तथा राइस मिलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष तरसेम सैनी मानते हैं कि पूसा-44 किस्म दूसरी किस्मों से अधिक उत्पादन देती है, परन्तु इसकी पानी की ज़रूरत अधिक होने तथा इसके अवशेष ज़्यादा होने के कारण वह किसानों को इस किस्म की बिजाई करने से गुरेज़ करने के लिए कहते हैं। डा. खुश कम समय में पकने वाली किस्मों की बिजाई करने की सलाह देते हैं। 
किसानों का कहना है कि जो कीटनाशक इस बीमारी के नाश के लिए सिफारिश किए गए हैं, वे असर नहीं कर रहे। कई किसानों ने इस फसल को नष्ट कर नई पौध लगाई है, परन्तु बहुत कम किसानों को नई पौध मिल सकी है। आई.ए.आर.आई. के एक वैज्ञानिक ने कहा कि सन् 2022 में भी इस बीमारी ने फसल पर हमला किया था, उस समय भी दवाइयों का छिड़काव कारगर नहीं हुआ था। इस बार भी सैंपल जांच करने के लिए लैबोरेटरी में भेजे गए हैं। किसानों को सलाह जारी की गई है कि जब तक वे फसल पर व्हाइट-बैक्ड-प्लांट-हापर (डब्ल्यू.बी.एच.) न देखें, तब तक वे दवाई का छिड़काव न करें। 
विगत वर्षों से धान के उत्पादन तथा क्षेत्रफल बढ़ने के दृष्टिगत इधर कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के मंत्री गुरमीत सिंह खुड्डियां ने घोषणा की है कि मक्की की काश्त अधीन क्षेत्रफल बढ़ कर एक लाख हैक्टेयर हो गया है। इसमें गत वर्ष के मुकाबले 13.27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

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