महाराजा कुरू की तपोस्थली है कुरुक्षेत्र

कुरुक्षेत्र सनातन मतावलम्बियों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। यह आदि तीर्थ है। यह महाराजा कुरू की तपोस्थली व कार्यस्थली रहने के कारण कुरू का स्थान कुरूक्षेत्र कहलाया। देवता इन्द्र ने भी पहले इस भूमि क्षेत्र का उपहास किया था मगर इसका प्रभाव जानकर स्वर्ग के राजा इन्द्र भी कुरूक्षेत्र के महत्त्व को मानने लगे।
एक बार महाराजा कुरू इस स्थान पर रहने से पूर्व यहां पर आखेट खेलने आये थे। जनश्रुतियों के अनुसार वे घनघोर जंगल में फंस गए। उनके सैनिक भी उनसे बिछुड़ गए। तदुपरान्त महाराजा कुरू का शरीर क्लांत हो गया। प्रात: काल महाराज को ढूंढते-ढूंढते महारानी शाही सैनिकों के साथ वहां आई। उन्होंने यह देखा कि महाराजा का शरीर तो निष्क्रिय-सा था लेकिन केवल उनके हाथों की अंगुलियों में हरकत थी जो मिट्टी से सनी हुई थी। तब उन्होंने इस विषय में वहां के ज्ञानी पुरूषों से जानकारी ली। पता चलने पर कि इस क्षेत्र के धूल की कण भी जिस शरीर को छू जाते हैं उसमें प्राण का संचार हो जाता है। यह जानकर उन्होंने महाराज के पूरे शरीर को मिट्टी से लेपित कर दिया। 
महाराज तुरंत उठ खड़े हुए। महारानी ने महाराजा को इस विषय में तब सविस्तार बताया। तत्पश्चात् महाराजा कुरू ने इसी क्षेत्र को ही अपनी कर्मस्थली, तपोस्थली बनाया तथा सोने के हल से 48 कोस की परिधि में बैल चलाकर खेत जोता। कालांतर में यहीं 48 कोस की परिधि पवित्र-स्थली के रूप में प्रसिद्ध हुई। कहा जाता है कि कुरूक्षेत्र में संध्या के समय कौआ नहीं ठहरता क्योंकि उसे काल का ज्ञान होता है, ऐसी जनधारणा है। कौआ यह सोचता है कि अड़तालीस कोस की चमत्कारी परिधि में रात को अगर उसने विश्राम कर लिया तो काल उसे अपना ग्रास बनाकर मोक्ष प्रदान कर सकता है।
महाभारत के युद्ध से पूर्व पांडवों व कौरवों के गुप्तचरों ने ऐसे वृहद स्थान की तलाश की थी जहां युद्ध के लिए 18 अक्षौहिणी सेना को ईंधन व पानी पर्याप्त रूप से उपलब्ध हो सकें। साथ ही जिसका प्रभाव भी हो। गुप्तचरों ने जब पांडवों व कौरवों को कुरूक्षेत्र के इस स्थान के विषय में जानकारी दी, तब वे दोनों सहर्ष कुरूक्षेत्र को युद्ध भूमि के रूप में चुनने हेतु तैयार हो गए और बाद में विश्व प्रसिद्ध महाभारत का युद्ध हुआ जिसमें लगभग चौबीस लाख सैनिकों ने दोनों पक्षों की ओर से भाग लिया। 
महाभारत के युद्ध के उपरांत तो इस भूमि का प्रभाव असंख्य गुना बढ़ गया है। आज कुरूक्षेत्र की मिट्टी भी अगर किसी को छू जाती है तो वह पापों से मुक्त होकर मोक्ष का उत्तराधिकारी हो जाता है। कुरूक्षेत्र के दर्शनीय स्थल:—
सन्निहित सरोवर : यह देश के सबसे प्राचीन तथा पुण्यदायी सरोवरों में से एक है। वामन पुराण, महाभारत, स्कन्ध पुराण, पदम पुराण में इसका महत्त्व प्रतिपादित है। सूर्यग्रहण के समय देश भर से श्रद्धालु इस सरोवर में स्नान करने की अभिलाषा से प्रेरित होकर, कुरूक्षेत्र में आते हैं। उस समय यहां लाखों नर-नारी केवल मात्र एक डुबकी लगाने के लिए लालायित रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि सूर्यग्रहण के अवसर पर जो इस सरोवर में स्नान करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
माना जाता है कि दधीचि ऋषि ने यहीं पर अस्थिदान किया था। महाभारत के युद्ध में मारे गए अपने दूर-निकट के रिश्तेदारों का पिण्डदान धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा इस सरोवर के तट पर किया गया था। तीर्थ पुरोहितों की उपस्थिति भी इसी सरोवर के आस-पास ही देखी जा सकती है। यह सरोवर 15 सौ फीट लम्बा तथा चार सौ पचास फीट चौड़ा है। सरोवर के चाराें तरफ घाट बने हुए हैं। स्त्रियों और पुरूषों के लिए स्नान की अलग व्यवस्था है। सरोवर के तटों पर ही संतोषी माता, सूर्य देव तथा दु:ख भजनेश्वर महादेव के मंदिर हैं।
ब्रह्म सरोवर : यह कुरूक्षेत्र का विशाल तथा प्राचीन सरोवर है। इसे कुरूक्षेत्र सरोवर भी कहा जाता है। महाराजा कुरू ने इसका निर्माण करवाया था, ऐसा माना जाता है। यह रेलवे स्टेशन से 3 किमी. दूर स्थित है। इस सरोवर तक पहुंचने के लिए पक्के मार्ग बने हुए हैं। यह दीर्घकाय सरोवर सभी भक्तजनों को अपनी ओर आकर्षित करता है। हालांकि इसका परिक्षेत्र बहुत लम्बा-चौड़ा है मगर इसके एक तिहाई भाग को ही आधुनिक जामा पहनाया जा सका। शेष भाग का अभी नव निर्माण बाकी है। वर्तमान में इस सरोवर की लम्बाई 3600 फीट तथा चौड़ाई 1200 फीट है एवम् गहराई अधिकतम 15 फीट तक है मगर आरंभ के 10-15 फुट भाग में गहराई मात्र तीन-चार फुट तक ही है।
वामन पुराण में इस सरोवर का महत्त्व प्रतिपादित है। महर्षि परशुराम ने यहां पर पितृगणों का तर्पण किया था। सूर्यग्रहण के अवसर पर इस सरोवर में स्नान करने को मोक्षदायी माना गया है। इम्पीरियल गजेटीयर ऑफ इंडिया पंजाब के प्रथम भाग में यह उल्लेखित है कि औरंगजेब ने अपने समय में इस परिक्षेत्र में एक मंदिर को गिरवाकर उसे किले के रूप में तब्दील किया था। पश्चात कुरूक्षेत्र में आने वाले तीर्थ यात्रियों से कर (जजिया) वसूलने के लिए उसने अपने आदमी भी नियुक्त किए थे। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि यहां स्नान करने वाले श्रद्धालुओं पर औरंगजेब के सिपाही गोली चलाते थे।
ज्योतिसर तीर्थ : पिहोवा जाने वाली रोड़ पर कुरूक्षेत्र रेलवे स्टेशन से 8 किमी. दूर स्थित यह तीर्थ सरस्वती नदी के मुहाने पर स्थित है जो ज्योतिसर महादेव के रूप में प्रसिद्ध यह वही स्थान है जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विश्व प्रसिद्ध कर्म करने का तथा जीवन के प्रत्यक्ष दर्शन का आत्म तथा परमात्म जैसे तात्विक रहस्यों सहित सारगर्भित उपदेश दिया था ताकि अर्जुन जीवन के सत्य को पहचानते हुए अपने अधिकार के लिए स्वजनों से भी युद्ध कर सकें। यह उपदेश पूरे संसार में गीता के उपदेश के रूप में सुप्रसिद्ध है जो आज गीता के ज्ञान के रूप में विश्व की प्रसिद्ध भाषाओं के रूप में संग्रहित है।
ऐसा माना जाता है कि जो प्राचीन अक्षय वृक्ष अवस्थित है यहीं पर भगवान ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था। हालांकि आस-पास और भी अक्षय वृक्ष हैं मगर अन्यों की महत्ता नहीं के बराबर है। श्रद्धालुगण इस अक्षय वृक्ष के नीचे नतमस्तक होते हैं तथा कुछ समय बिताकर सुखानुभूति का लाभ प्राप्त करते हैं। यहां महादेव जी का मंदिर है जहां दर्शनार्थी श्रद्धा भाव के साथ नतमस्तक करते हैं। इस तीर्थ पर समय अंतराल पर राजा-महाराजाओं ने भी विकास के कार्य किये थे। मूलत: ज्योतिसर तीर्थ कुरूक्षेत्र यात्र का मुख्य प्रतिपाद्य माना जा सकता है।
भद्रकाली मंदिर : यह एक शक्ति पीठ है जो 51 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है। यहां देवी की काले पत्थर की प्रतिमा अवस्थित है। ऐसा माना जाता है कि देवी सती की यहां एड़ी गिरी थी। दशहरे के अवसर पर यहां मेला लगता है तथा लोग अपनी श्रद्धा के अनुरूप यहां पर मिट्टी के घोड़े चढ़ाते हैं। लोक प्रचलित मान्यता के अनुसार महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त करने हेतु भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस स्थान पर दुर्गा उपासना करने हेतु निर्देश दिया था ताकि युद्ध में विजय प्राप्त की जा सके। 
नरकातारी तीर्थ : शाब्दिक अर्थ के अनुसार नरक से मुक्ति दिलाने वाला स्थान है। यह ज्योतिसर को जाने वाली सड़क पर 5 किमी. दूर स्थित है। पितामह भीष्म अर्जुन के बाणों से घायल होकर शर-शैय्या पर इसी स्थान पर 58 दिनों तक रहे थे। युद्धोपरांत जब अर्जुन ने अपने भाइयों से उन्हें प्यास मिटाने की बात कहीं, गांडीवधारी अर्जुन ने तब पितामह की प्यास बुझाने के लिए जमीन पर तीर छोड़कर भूमि को फोड़ा। जलधारा का प्रवाह निकला जिससे पितामह की प्यास बुझी। कालांतर यह स्थान बाण गंगा के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
लोग भक्ति भाव से इस स्थान विशेष के दर्शन करने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते है। ऐसा भी उल्लेख गं्रथों में मिलता है कि पितामह भीष्म ने इस स्थान पर पांडु पुत्रों को विष्णु के हजार नाम गिनाये थे तथा उसकी आराधना करने की भी सलाह दी। पितामह द्वारा बताये गये भगवान विष्णु के हजार नाम आज विष्णु सहस्त्र नाम स्रोत के रूप में प्रसिद्ध हैं। (उर्वशी)

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