बच्चों के स्वास्थ्य की कामना का पर्व है अहोई अष्टमी
13 अक्तूबर अहोई अष्टमी पर विशेष
भारत में हर व्रत-पर्व का कोई न कोई गहरा पारिवारिक और सांस्कृतिक उद्देश्य होता है। इन्हीं में से एक है अहोई अष्टमी जिसे विशेषकर माताएं अपने बच्चाें की दीर्घायु, स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना से अहोई व्रत करती हैं। वास्तव में अहोई अष्टमी का सीधा संबंध मां और संतान के रिश्ते से है। परंपरा है कि इस दिन माताएं सूर्योदय से लेकर रात में तारों या चंद्रमा के दर्शन तक उपवास रहती हैं और इस उपवास के दौरान वे जल तक का सेवन नहीं करतीं। शाम के समय अहोई माता की पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस व्रत से संतान पर आने वाले संकट टल जाते हैं। बच्चों के अच्छे स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि और लंबी उम्र की कामना पूरी होती है। यह व्रत मातृत्व के उस भाव को भी प्रकट करता है, जिसमें मांएं अपने बच्चाें के लिए किसी भी तरह का कष्ट उठाने के लिए तैयार रहती हैं।
अहोई अष्टमी का व्रत उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और पंजाब में मनाया जाता है। हालांकि अब शहरी परिवारों और प्रवासी भारतीय समुदायों में इसकी मान्यता बढ़ी है और इस टीवी व सोशल मीडिया के दौर में कई दूसरे त्योहारों की तरह यह भी अपना अखिल भारतीय रूप ले चुका है। जहां तक इस साल यानी 13 अक्तूबर 2025 को मनाये जाने वाले इस व्रत की तिथि और मुहूर्त का सवाल है तो अष्टमी तिथि जिस दिन यह व्रत किया जाता है। 13 अक्तूबर दिन सोमवार को 12 बजकर 24 मिनट से शुरु होगी और 14 अक्तूबर को सुबह 11 बजकर 9 मिनट पर समाप्त होगी। पूजा का समय शाम के लगभग 5 बजकर 59 मिनट से 7 बजकर 14 मिनट तक है। क्योंकि यह व्रत ज्यादातर जगहों में निर्जला रखा जाता है यानी इसमें व्रती को जल पीने का भी नियम नहीं है। जिस कारण यह काफी कठिन व्रत समझा जाता है। उपवास तोड़ने का समय स्नान करके तारों के दर्शन करने के बाद का होता है। कुछ जगहों पर चंद्र दर्शन के बाद भी व्रत तोड़ा जाता है।
जहां तक इस व्रत के सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व की बात है तो अहोई अष्टमी का व्रत जैसा कि हमने ऊपर भी बताया है कि मांएं अपने बच्चों के स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिए रखती हैं। इस व्रत के पीछे जो कथा है उसके मुताबिक एक साहूकार की सात संतानें थीं, लेकिन अहोई अष्टमी व्रत से लगभग 8 दिन पहले घर की सफाई और निर्माण कार्य में लगी उसकी पत्नी जब जंगल मिट्टी लेने गई, उसकी एक गलती से सियाह के बच्चों की मौत हो गई। इस कारण उस सियाह ने श्राप दे दिया कि जिसने उसके बच्चों को मारा है, उसके भी सारे बच्चे मर जाएं। इस श्राप के कारण साहूकार की संतानें एक एक करके मरने लगीं। इस पर अंतत: उस साहूकार की पत्नी ने अहोई मां की उपासना आरंभ की और उन्हीं के वरदान से अपनी संतानें वापस पायीं। इस कथा की सीख है कि किसी भी जीव जन्तु को हानि नहीं पहुंचानी चाहिए। यह व्रत धैर्य और अपनी इच्छाशक्ति को नियंत्रित करने की हमारी क्षमता का विकास करता है। जहां तक अहोई अष्टमी की पूजा की विधि का सवाल है तो घर की किसी दीवार या पूजा वाले स्थान पर अहोई मां की चित्राकृति बनायी जाती है, जिसमें आठ पोषक और सेह या सियाह का चित्र होता है। संध्या के समय अहोई माता की पूजा की जाती है और कथा सुनी जाती है। इस पूजा में पूरी, हलवा तथा अन्य पकवान बनाये जाते हैं और अर्घ्य दिया जाता है। अंत में माताएं तारों या चंद्रमा को अर्घ्य देकर व्रत खोलती हैं।
अहोई अष्टमी केवल धार्मिक व्रत या पर्व नहीं है बल्कि मातृत्व की नि:स्वार्थ भावना का उत्सव है। इसमें यह संदेश भी निहित है कि संतान खुशहाली ही सबसे बड़ी पूंजी है। यह त्योहार समाज में पारंपरिक एकता, सहयोग को भी सदृढ़ करता है। अहोई अष्टमी के दिन कई तरह के अन्य विशिष्ट अनुष्ठान भी किये जाते हैं और यह संकल्प लिया जाता है कि यह व्रत मैं अपने बच्चों की रक्षा और दीर्घायु के लिए रखूंगी। पूजास्थल पर अहोई माता की चित्राकृति बनाकर अहोई व्रत की कथा सुनी जाती है और अहोई मां का गुणगान किया जाता है। इस दिन मिट्टी का करवा लेकर उसमें जल भरा जाता है, फिर उसके मुंह को मिट्टी या घास से बंद कर दिया जाता है। यह व्रत का एक महत्वपूर्ण प्रतीक होता है। पूजा का समय शाम से चांद के उदय तक या तारों के पूरी तरह से उगने के बाद शुरु होता है। अहोई अष्टमी की पूजा के लिए आठ पूरी और पुआ (फेटी हुई मीठी रोटी) हलवा आदि बनाये जाते हैं। इन्हें अष्ट (आठ) की संख्या में देवी को अर्पित करके किसी वृद्ध महिला या ब्राह्मण को भेंट की जाती है। इसके बाद अर्पित प्रसाद स्वयं ग्रहण किया जाता है। मैथिली और अवधी क्षेत्रों में इसे अहोई आठे या अहोई अठे भी कहा जाता है।
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