वर्ल्ड वेट-लिफ्ंिटग चैम्पियनशिप में मीराबाई चानू की शानदार वापसी
फोर्दे, नॉर्वे में जब मीराबाई चानू प्लेटफार्म की तरफ वाक कर रही थीं तो स्पॉटलाइट उनके हर कदम का पीछा कर रही थी। साल 2017 की विश्व चैंपियन, 2021 ओलंपिक की रजत पदक विजेता, भारतीय वेट-लिफ्ंिटग का चेहरा... मीराबाई के कांधों पर सिर्फ यही बोझ नहीं था कि उनकी अंतिम टैली क्या होगी बल्कि उम्मीदों का भार भी था, जो उनके द्वारा जीते गये हर पदक के साथ बढ़ता ही गया है ...और एक बार फिर उन्होंने खुद को साबित किया है। वर्ल्ड वेट-लिफ्ंिटग चैंपियनशिप में मीराबाई ने कुल 199 किलो वज़न उठाया- 84 किलो स्नैच व 115 किलो क्लीन एंड जर्क और 48 किलो वर्ग में रजत पदक अपने नाम कर लिया। यह पोडियम फिनिश हिम्मत, हौसले और आवश्यकता पड़ने पर अपनी रिद्म हासिल करने से ही मुमकिन हो सकी।
अतीत में 48 किलो वर्ग की मीराबाई पर कृपा रही है, लेकिन इस साल वह अपनी अलग ही चुनौतियां लेकर आया। हाल के वर्षों में वह 49 किलो वर्ग में मुकाबला कर रही थीं। उन्होंने वापस अपने पुराने वर्ग में जाना तय किया। टॉप लिफ्टर्स के लिए इस किस्म के परिवर्तन मुश्किल से ही आसान होते हैं- इनमें डाइट पर ज़बरदस्त ध्यान देना होता है। ट्रेनिंग कार्यक्रम में भी बदलाव लाना पड़ता है और तेज़ी से हालात के अनुरूप ढालने के लिए मानसिक मज़बूती की ज़रूरत होती है। मीराबाई ने यह सब अपने दृढ़ संकल्प की वजह से हासिल किया। वैसे भी उन्हें अपनी सीमाओं से आगे निकलना पसंद है। अपनी इस जीत पर मीराबाई ने बताया, ‘मुझे पोडियम फिनिश करने की खुशी है। इससे मुझमें आने वाले दिनों के लिए विश्वास आयेगा। हर प्रतियोगिता मेरे लिए तैयारी का अवसर है, 2028 लास एंजेल्स ओलंपिक के लिए। इस यात्रा में जल्द आयोजित होने वाले राष्ट्रकुल खेल व एशियन गेम्स महत्वपूर्ण होंगे। मेरा फोकस कड़ी मेहनत करने पर है और हर प्रतिस्पर्धा से सीखने व अपने देश के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने पर भी है।’
मीराबाई कक्षा आठ में थीं, जब इतिहास की पाठ्यपुस्तक में उन्होंने पहली बार वज़न उठाते हुए कुंजारानी देवी की तस्वीर देखी थी। ‘मुझे आश्चर्य हुआ, कोई इतना वज़न कैसे उठा सकता था? मैंने अपने आपसे सवाल किया। पुस्तक में कुंजारानी देवी के बारे में जो कुछ लिखा था, वह मैंने रट लिया और अगले दिन जब मैं सोकर उठी तो मुझे यकीन था कि मैं उन्हीं की तरह बनना चाहती हूं।’ यह वह समय था जब मीराबाई किसी खेल में हिस्सा लेना चाहती थीं। वह तीरंदाजी करना चाहती थीं, अकादमी पर रुकीं, लेकिन कोच नहीं था, तो प्रवेश नहीं मिला। उनके भाई चाहते थे कि वह फुटबॉल खेलें, खासकर इसलिए कि उनकी मां भी फुटबॉल खेलती हैं। लेकिन इसमें कपड़े गंदे होने की वजह से उनकी दिलचस्पी नहीं थी। बॉक्सिंग में दिलचस्प थी क्योंकि वह मैरी कोम की ज़बरदस्त फैन हैं। बहरहाल, कोई बात थी, जिसके कारण कुंजारानी देवी उनके जहन से निकल ही नहीं रही थीं। इसलिए अगले दिन वह पूर्व वेट-लिफ्टर अनीता चानू की अकादमी में चली गईं। वहां उनसे 50-60 किग्रा वज़न उठाने के लिए कहा गया, जिसे उन्होंने आसानी से उठा लिया। कोच उनसे प्रसन्न हुए और उनसे एक सप्ताह में ज्वाइन करने के लिए कहा गया।
एक बच्ची इतना वज़न कैसे उठा सकती थी? जवाब के लिए मीराबाई के बचपन पर गौर करना होगा। जब मीराबाई मात्र 12 साल की थीं और अपने गांव नोंगपोक काकचिंग में रहती थीं, जोकि मणिपुर में इम्फाल से लगभग 20 किमी के फासले पर है। जिस क्षेत्र में मीराबाई का परिवार रहता था, वह पहाड़ियों से घिरा हुआ है। परिवार बड़ा व गरीब था। मीराबाई छह भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। उनके पिता साईकोम कृति मिताई राज्य के पीडब्लूडी में कंस्ट्रक्शन वर्कर थे और मां लिमा गांव में ही एक छोटी-सी चाय की दुकान चलाती थीं। उनके पिता का वेतन केवल इतना था कि परिवार दो जून की रोटी के साथ जीवित रह सके। मीराबाई अक्सर अपने भाइयों के साथ पास के जंगल में लकड़ियां एकत्र करने के लिए जाती थीं ताकि घर व चाय की दुकान के चूल्हों में आग जलती रहे। ऐसे ही एक अभियान के दौरान मीराबाई अपने भाई साईखोम सनातोम्बा मिताई, जो उस समय 16 वर्ष के थे, के साथ पहाड़ी जंगल में दूर तक चली गईं। भाई-बहन की जोड़ी ने लकड़ियों का एक बड़ा गट्ठर एकत्र किया, जिसे सनातोम्बा ने अपने सिर पर उठाने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहे।
भाई को नाकाम देखते हुए, मीराबाई ने स्वयं कोशिश करने का इरादा किया। ‘..और मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि लकड़ियों के गट्ठर को मीराबाई ने अपने सिर पर आसानी से उठा लिया। जिसे लेकर वह घर तक आयी, जोकि लगभग दो किमी के फासले पर था।’ सनातोम्बा ने बताया था। दरअसल, मीराबाई जब मात्र पांच साल की थीं, तब भी वह ढलानभरी पहाड़ियों पर पानी से भरी बाल्टी को सिर पर रखकर ऐसे आती-जाती थीं, जैसे कि यह काम कोई काम न हो। सनातोम्बा का कहना है, ‘हमारे घर में ज़बरदस्त आर्थिक संकट था और मेरे पैरेंट्स मीराबाई को सपोर्ट करने की स्थिति में नहीं थे। उसने जो कुछ हासिल किया है केवल अपने दम पर हासिल किया है।’
रिओ 2016 से पहले साईखोम ओंग्बी तोम्बी लिमा ने अपने गहने बेच दिए थे। इस बिक्री से जो पैसे आये उसमें उन्होंने अपनी बचत को शामिल किया और सोने की बालियां बनायीं, जोकि ओलंपिक रिंग्स के आकार की थीं। लिमा ने यह बालियां अपनी बेटी मीराबाई साईखोम चानू को गिफ्ट कर दीं, इस उम्मीद में कि वह ‘गुड लक’ लायेंगी और उनकी बेटी देश के लिए ओलंपिक पदक लेकर आयेगी। लेकिन ‘गुड लक’ की चीज़ें भी अपना असर दिखाने में शायद कुछ समय लेती हैं। शायद उन्हें भी किसी सहारे की ज़रूरत होती है। इसलिए रिओ में तो कोई चमत्कार न हो सका। बहरहाल, डॉ. एरोन होरस्चिग (अमरीका के विख्यात स्ट्रेंथ एंड कंडीशनिंग कोच) की मदद से मीराबाई ने अपनी कमर दर्द की समस्या (जो बार-बार उनके विजय पथ में बाधा बन जाती थी) पर नियंत्रण पाया और टोक्यो में कुल 202 किलो का वजन उठाकर 49 किलो वर्ग में ऐतिहासिक ओलंपिक रजत पदक जीता। उस समय उनके कानों में वही सोने की बालियां थीं, जो उनकी मां लिमा ने अपनी बचत कुर्बान करके ‘गुड लक’ के तौरपर उन्हें भेंट की थीं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर