देश में कम हो रहा अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व
हमारे देश में ऐसी परिस्थितियां पैदा हो रही हैं कि अल्पसंख्यक तबकों को न तो संसद में और न ही राज्य विधानसभाओं में उनकी आबादी के अनुरूप प्रतिनिधित्व मिल रहा है। इस समय बिहार में हो रहे विधानसभा चुनाव के लिए जो टिकट बांटे जा रहे हैं, उनमें लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी, कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने बहुत कम मुसलमानों को टिकट दिए हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश और बंगाल ऐसे राज्य हैं जहां मुसलमानों की खासी आबादी है। इसे मद्देनज़र राजनीतिक पार्टियों को वहां मुसलमानों को भी समान अनुपात में सीटें देनी चाहिए। एक ज़माने में काफी संख्या में मुसलमान विधायक और सांसद बनते थे।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि मध्यप्रदेश विधानसभा में 10-12 मुसलमान विधायक रहा करते थे। मंत्री परिषद में भी मुसलमान रहते थे, वे स्पीकर भी बनते थे। गुलशेर अहमद मध्य प्रदेश की विधानसभा के सदस्य भी रहे हैं और उसके स्पीकर भी। उन्होंने दोनों ज़िम्मेदारियां बहुत खूबसूरती से निभाईं। मध्य प्रदेश की परम्परा इतनी गौरवशाली थी कि कई मुस्लिम विधायक और सांसद ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाते थे जहां अल्पसंख्यकों की आबादी न के बराबर थी। न सिर्फ कांग्रेस उन्हें टिकट आवंटित करती थी बल्कि वहां के वोटर इतने समझदार थे कि मुसलमानों की आबादी कम होने के बाद भी वे मुसलमान उम्मीदवार को चुनते थे। ऐसे कई उदाहरण हैं। मेरे मित्र अजीज कुरैशी सीहोर से विधायक चुने गए थे, जहां मुसलमानों की आबादी बहुत कम थी। वह सांसद भी चुने गए। वह मध्य प्रदेश की मंत्री परिषद के कई बार सदस्य रहे। कुरैशी कई राज्यों के राज्यपाल भी रहे।
अब यह गौरवशाली परम्परा समाप्त हो रही है। इस समय मध्यप्रदेश की विधानसभा में सिर्फ दो विधायक मुसलमान हैं। दोनों भोपाल से हैं। इसके पिछली विधानसभा में सिर्फ एक ही मुसलमान थे, वह भोपाल के पुराने शहर से चुने गए आरिफ अकील थे। हाल ही में एक केन्द्रीय मंत्री ने साफ कहा है कि हमें मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए और मुसलमानों को उन्होंने नमक हराम तक बताया। इससे खराब बात और क्या हो सकती है? यदि यही स्थिति बनी रही तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब पूरे देश में एक भी सांसद या विधायक मुसलमान नहीं होगा। ऐसी स्थिति आने के पूर्व हमारे देश के नेतृत्व को कुछ सोचना चाहिए।
अल्पसंख्यक के नाम पर हमारे देश में केवल जैन भाईयों और सिख भाईयों को प्रतिनिधित्व मिलता है, वो भी इक्का-दुक्का। जैनियों की जितनी संख्या है उसकी तुलना में उन्हें काफी ज्यादा प्रतिनिधित्व मिलता है। उससे हमें कोई शिकायत नहीं है। जैन एक संपन्न कौम है। जैनियों के अनुभव और उनकी बुद्धिमत्ता उल्लेखनीय है और देश के विकास में उनकामहत्वपूर्ण योगदान है।
मगर समस्या यह है कि न सिर्फ मुसलमानों को बल्कि एक दूसरी अल्पसंख्यक कौम ईसाईयों को भी प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है। पहले मध्य प्रदेश की विधानसभा में ईसाई सदस्य होते थे। वे मंत्री भी बने और वे भी ऐसे स्थानों से चुने जाते थे जहां ईसाईयों की संख्या लगभग नगण्य होती थी। देश की एक बड़ी कौम को प्रतिनिधित्व नहीं मिलना हमारी राष्ट्रीय असफलता है। हमें इस बारे में सोचना पड़ेगा।
कई देशों में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। लंदन का मेयर मुसलमान है। कनाडा की संसद में कई सिख भाई हैं। अमरीका में कई भारतवासी बसते हैं, जो सीनेट एवं हाउस ऑफ रिप्रिजेन्टेटिव्स के सदस्य हैं। यहां तक की इन देशों में भारतीय हिन्दू गवर्नर भी हैं, जज भी हैं।
यहां भारत में न सिर्फ चुने हुए प्रतिनिधियों में बल्कि देश की अनेक संवैधानिक संस्थाओं में भी अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है। न्यायपालिका, विशेषकर उच्च न्यायालयों, में भी ऐसी ही स्थिति बनती जा रही है। जो भी हो, राजनीति में इसका उपाय क्या है? जब मतदाता उन्हें नहीं चुनेंगे तो फिर उनका प्रतिनिधित्व कौन करेगा? मैं पाकिस्तान गया था। वहां की संसद की डिप्टी स्पीकर से मेरी मुलाकात हुई। उनसे मैंने पूछा कि आपके देश में बहुत सारे हिन्दू भाई रह रहे हैं जो आपके देश के विकास में योगदान दे रहे हैं और यदि वे चुनकर नहीं आते हैं आप क्या करती हैं? उन्होंने कहा कि यदि एक भी हिन्दू चुन कर नहीं आता तो हम उनको मनोनीत करते हैं। दुनिया में इस तरह के और भी देश होंगे जहां अल्पसंख्यक यदि चुनाव से प्रतिनिधित्व हासिल नहीं कर पाते तो उन्हें मनोनीत किये जाने का प्रावधान होगा। इतनी बड़ी आबादी चाहे वह मुसलमानों की हो या ईसाईयों की, उनका देश की प्रगति में योगदान न हो, यह कल्पना के बाहर की चीज है।
ईसाईयों ने हमारे देश के विकास में बहुत मदद की है। सारे देश में ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूल और अस्पताल हैं। वे परोपकार के बहुत सारे काम करते हैं। उनका एक भी प्रतिनिधि मध्य प्रदेश विधानसभा में न होना क्या चिंता की बात नहीं है? मेरी समझ में इस चिंतनीय स्थिति को देखते हुए हमारी संसद और विधानसभाओं को सोचना चाहिए कि अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व कैसे दिलाया जाए? क्या मनोनयन के जरिए? या आनुपातिक प्रतिनिधित्व के जरिए? या किसी और तरीके से? बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां मुसलमानों की संख्या काफी है। इन राज्यों में तो इस तरह का प्रबंध होना ही चाहिए। बिहार के चुनाव के बाद क्या स्थिति उभरकर आती है, यह देखा जाना बाकी है। भले ही बड़े रजनीतिक दलों ने उन्हें पर्याप्त संख्या में टिकट न दिया हो, मगर यह देखा जाना बाकी है कि क्या वे किसी छोटी-मोटी पार्टी से या निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनकर आते हैं या नहीं। हमें इसका इंतज़ार करना होगा।
बिहार विधानसभा के नतीजों के दिन यह साफ हो जाएगा कि बिहार, जहां बहुत गौरवपूर्ण परम्पराएं रही हैं, वहां के मतदाताओं ने इस चुनाव में क्या फैसला किया है। (संवाद)

