तेज़ रफ्तार व नियमों में लापरवाही से बढ़ रहे सड़क हादसे
साल 2024 में देश के राष्ट्रीय राजमार्गों पर 1,25,873 दुर्घटनाएं हुई थीं, जिसमें 53,090 लोगों की मौत हो गई थी तथा कम से कम इनसे चार गुना ज्यादा लोग घायल हो गये थे, जिनमें से एक तिहाई पूरी ज़िंदगी के लिए अपाहिज हो चुके हैं। जबकि इसके एक साल पहले दुर्घटनाओं की संख्या तो थोड़ी कम 1,23,955 ही थी, लेकिन मरने वाले लोगों की संख्या 53,630 थी। ये आंकड़े बताते हैं कि किस तरह हमारे हाई-वे दुर्घटनाओं और दहशत का पर्याय बन गये हैं। यहां ज्यादातर मौतों का कारण तेज़ रफ्तार ड्राइविंग होती है। साल 2022 में राजमार्गों पर जो कुल सड़क हादसे हुए थे, उनमें 72.3 प्रतिशत मौतों और 71.20 प्रतिशत दुर्घटनाओं का कारण वाहनों की तेज़ रफ्तार थी।
जिस राजस्थान में कभी रेत पर वाहन चलाते समय एक ही डर लगा रहता था कि कहीं वाहन फंस न जाए, अब वहीं पर यह डर सताने लगा है कि कहीं दुर्घटना न हो जाए। इधर सर्दी का मौसम आ चुका है, चंद दिनों के भीतर पूरे देश में, समुद्री इलाकों को छोड़कर सभी जगह कोहरे का कहर शुरु हो जाएगा। इस दौरान हादसों की सम्भाबना बढ़ जाती है। शेरशाह सूरी ने जब जीटी रोड बनवाया था, तो सोचा था कि अब आवागमन आसान हो जाएगा। प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने जब स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना आरंभ की थी, भारत के चारों कोनों को जोड़ने के लिए, तब भी यही मंशा थी। जनहित के लिए बनाई इन परियोजनाओं को अब हर हाथ में कार और सुपर स्पीड से वाहन दौड़ाने की सोच ने बदनाम करना आरंभ कर दिया है। हाल में राजस्थान में स्लीपर कोच बस अग्निकांड हो या फिर देश में रोज हाई-वे पर रफ्तार के नशे में होने वाली दुर्घटनाओं में लोगों की मौत का आंकड़ा। ऐसे समाचारों पर सिर्फ दो दिन हो-हल्ला होता है, उसके बाद फिर हालात वहीं के वहीं रहते हैं। भारत में जिस तरह से विकास हो रहा है, उसी रफ्तार से सड़कों के सुधारीकरण का दौर भी जारी है। वर्तमान में पूरे देश में हाई-वे, बाईपास तथा रोड कनेक्टिविटी युद्ध स्तर पर विकसित हो रही है।
लेकिन इस विकास में नियम और सुरक्षा ठीक उसी तरह से गायब हैं, जिस तरह से स्लीपर कोच में इमरजेंसी गेट, आग बुझाने वाले यंत्र, यात्रियों के अंदर चलने के लिए सुरक्षित गैलरी और हाइवे पर ट्रोमा सेंटर। देश के साथ ही राज्यों के भी एक्सप्रेस-वे हैं, जिन पर जनता सफर कर रही है। कुछ प्रस्तावित हैं और कुछ निर्माणधीन हैं। जो एक्सप्रेस-वे हैं, उनमें दिल्ली-मुम्बई, मुम्बई-पुणे, यमुना एक्सप्रेस-वे, पूर्वांचल, अमहमदाबाद-बडोदरा, द्वारका तथा बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे विशेष हैं। यहां पर हम पूरे देश का ट्रेंड उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान से समझते हैं। उत्तर प्रदेश में यमुना तथा लखनऊ-कानपुर एक्सप्रेस-वे ऐसे हैं, जहां पर दुर्घटना के कारण इतने हैं कि उनकी गिनती संभव नहीं है। यही हाल राजस्थान का है। यहां पर देश के मुकाबले राज्य के हाई-वे अधिक खतरनाक सिद्ध हो रहे हैं।
आखिर क्या कारण हैं कि सुहाना सफर, मौत के सफर में बदल रहा है? दरअसल जितने भी हाई-वे हैं और उन पर दौड़ रहे वाहन, दोनों ही खामियों से भरे हैं। रोड सेफ्टी विशेषज्ञ बताते हैं कि सड़क हादसों के कई कारण हैं। उनके मुताबिक सौ किलोमीटर से अधिक रफ्तार वाहनों के एक-दूसरे से टकराने का प्रमुख कारण है, इन सड़कों को बनाते समय यह नहीं देखा गया कि वह कितने घुमवादार हैं और तेज़ी से आ रहा वाहन गति पर नियंत्रण कैसे करेगा? राजस्थान में तो इस तरह के घुमाव ही अधिकतम दुर्घटना कराते हैं। बॉटल नेक ऐसी व्यवस्था है कि यहां पर जाम के साथ ही हादसा होना आम बात हो गई है। सड़क इतनी बेतरतीब बनी हैं कि उस पर चलते समय चार पहिया वाहन के टायर लहराते हैं। जो बैरिकेड्स लग रहे हैं, वह इतने दुर्घटना-प्रूफ नहीं हैं कि उनसे टकराकर वाहन कुछ संभल सके।
एक जो सबसे बड़ा कारण सामने आया है, वह यह है कि हाई-वे से गांवों आदि की जो सड़कें जुड़ती हैं, वे ठीक नहीं हैं। वे कहीं हद से अधिक नीची हैं और कहीं हद से ज्यादा ऊंची हैं। खुद ही समझा जा सकता है कि तेज़ गति से आता वाहन जब यहां कनेक्ट होगा, तो क्या होगा? ढलान तो ऐसी बनायी गई हैं कि दूर से लगता है कि किसी पुलिया पर चढ़ने जा रहे हैं। यमुना एक्सप्रेस-वे का हाल यह है कि यहां पर सरपट दौड़ते वाहन सीमेंट की बनी सड़कों पर घर्षण करते समय पहियों के फटते ही अनियंत्रित हो जाते हैं। यदि कोहरा हुआ तो हादसा और अधिक भीषण होता है। रोड सेफ्टी सर्वे करने वाले विशेषज्ञ सरकारों को समय-समय पर यह बताते हैं कि दुर्घटना इस कारण से हो रही है, इसे दूर किया जाए, परन्तु हाई-वे अथॉरिटी विभाग दुर्घटना बाहुल्य क्षेत्र में ‘कृपया धीरे चलें’ आदि लिखकर या इन वाक्यों के साइन बोर्ड लगाकर निश्ंिचत हो जाता है कि अब सब ठीक है।
राजस्थान में टैंकर अग्निकांड में यही हुआ था। जयपुर के पास उसी स्थान पर कई बार दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। अब ज़रा यह देखें कि जो वाहन चला रहे हैं, उनकी क्या स्थिति है और सरकारी विभाग क्या कर रहे हैं? जो वाहन चला रहे हैं, वह खुद को कभी गलत नहीं कहते। आंखों की रोशनी कितनी है, कभी जांच नहीं कराते, स्टेरिंग को खतरनाक स्थिति में संभाल पाएंगे, इसकी कभी प्रैक्टिस नहीं करते, कम से कम आठ घंटे की नींद और पौष्टिक आहर नहीं लेते, आगे-पीछे चल रहा वाहन कब ओवरटेक करना है, वह खुद तय करते हैं, शॉर्ट रास्ते पर जाने के लिए विपरीत दिशा में जाना इनकी आदत बन चुकी है।
जब इतनी लापरवाही से चलाक चलेगा, तो दुर्घटना होना स्वाभाविक है। स्लीपर कोच बसें हो या फिर कार टैक्सी, इनकी स्थितियां तो इतनी विकट हैं कि आरटीओ भी देखकर चकित हो जाता है। बसों में तय सीमा से कई गुना सामान छत पर रहता है और स्टोर बॉक्स में गैस सिलेंडर, ज्वलनशील पदार्थ, गद्दे जैसी चीजें रहती हैं ताकि पुलिस की नज़र न पड़े। क्या यह कम खतरनाक नहीं है कि आंध्र प्रदेश की बस जयपुर में और यू.पी. की बस केरल में सवारी ढोती नज़र आईं। रजिस्ट्रेशन छोड़िये यात्रियों को थोड़े से पैसे में यह बस संचालक इतनी छूट दे देते हैं कि एक स्लीपर में चार-चार आदमी घुस जाते हैं और गैलरी में सामान के ऊपर भी यात्रियों को सोते हुए देखा जा सकता है। हां, इतना सब होने के बाद भी स्थानीय शासन के नुमाइंदे इन्हें चेक करके छोड़ देते हैं, तो फिर बसों में अग्निकांड के समय यात्री कैसे सुरक्षित रह सकते हैं?
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर



