क्लाउड सीडिंग से क्या दिल्ली को राहत मिल सकेगी ?
दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण की स्थिति निरंतर बद से बदतर होती जा रही है, सांस लेना मुश्किल हो गया है। हालांकि दिल्ली की राज्य सरकार ने दिवाली के अवसर पर एक्यूआई (वायु गुणवत्ता सूचकांक) के डाटा को कम करके दिखाने का प्रयास किया कि लोगों में सबकुछ सामान्य होने का भ्रम बना रहे, लेकिन आंखों देखी मक्खी निगली नहीं जाती है। इसलिए दिल्ली में 28 अक्तूबर 2025 को क्लाउड सीडिंग ट्रायल्स आयोजित किये गये, 53 वर्ष बाद। क्लाउड सीडिंग यानी कृत्रिम वर्षा एक ऐसी टेक्नोलॉजी है, जिसमें वैज्ञानिक बादलों के अंदर रासायनिक तत्वों को छोड़ते हैं ताकि बारिश करायी जा सके। यह तरीका उन इलाकों में अपनाया जाता है, जहां बारिश कम होती है या सूखा पड़ता है। रेखा गुप्ता की दिल्ली सरकार को लगता है कि कृत्रिम वर्षा से दिल्ली में वायु प्रदूषण को नियंत्रित या कम किया जा सकेगा। दिल्ली सरकार ने आईआईटी-कानपुर के सहयोग से बुराड़ी, उत्तरी करोल बाग, मयूर विहार, बादली सहित दिल्ली के कुछ हिस्सों में यह ट्रायल किये। पर्यावरण मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा के अनुसार अगले कुछ दिनों के अंदर अन्य स्थानों पर भी यह ट्रायल्स किये जायेंगे। आईआईटी-कानपुर ने दूसरे ट्रायल के बाद कहा कि 15 मिनट से 4 घंटे के भीतर कृत्रिम वर्षा हो जायेगी, लेकिन हुई नहीं। सवाल यह है कि क्या क्लाउड सीडिंग से वायु प्रदूषण की समस्या का समाधान निकाला जा सकता है?
जीतने मुंह उतनी बातें हैं। विपक्षी आम आदमी पार्टी ने इस कोशिश का मज़ाक उड़ाते हुए कहा है कि यह ‘इंद्र देवता के श्रेय को चुराने का प्रयास है’। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार बारिश कराने की ज़िम्मेदारी इंद्र देवता की है। सत्तारूढ़ भाजपा ने क्लाउड सीडिंग की तारीफ करते हुए कहा है कि इससे प्रदूषण संकट का हल निकल आयेगा। बहरहाल, पर्यावरण विशेषज्ञों ने क्लाउड सीडिंग को अल्पकालीन योजना बताया है, जिससे अस्थायी तौर पर तो प्रदूषण कम हो सकता है, लेकिन राजधानी की वायु गुणवत्ता में निरंतर आ रही गिरावट के मूल कारणों को संबोधित नहीं किया जा सकता। दरअसल, दुनियाभर में हुए प्रयोग पहले ही स्थापित कर चुके हैं कि क्लाउड सीडिंग वायु प्रदूषण को पराजित नहीं कर सकता। जो कुछ दिल्ली सरकार कर रही है, उसे तो नया प्रयोग भी नहीं कहा जा सकता। वह मात्र राजनीतिक नाटक है। अत: आवश्यक है कि मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता सियासी ड्रामे पर विराम लगाएं और वायु प्रदूषण क्यों बढ़ रहा है, उसके मूल कारणों को समझकर उनका समाधान करें। समस्या के कारण की जड़ पर वार करना ज़रूरी होता है।
दिल्ली सरकार ने स्मॉग (धुंए भरा कोहरा) सीजन के आने से पहले जून 2025 में एक 25-सूत्रीय वायु प्रदूषण शमन योजना गठित की थी, जिसमें पहला आइटम ‘आईआईटी-कानपुर के माध्यम से क्लाउड सीडिंग का पायलट प्रोजेक्ट’ था ताकि ‘धूल शमन में इसकी प्रभाविकता का अध्ययन किया जा सके’। किसी भी समस्या का हल निकालने के लिए नये प्रयोग करना अच्छी बात है और उसका स्वागत किया जाना चाहिए, भले ही कोशिश नाकाम हो जाये। असफल प्रयासों से ही सफलता का मार्ग निकलता है लेकिन वह प्रयोग नया तो होना चाहिए, जो प्रयोग दुनियाभर में पहले ही असफल हो चुका हो, उसे ठोस समाधान के रूप में प्रचारित करना बेवकूफी है, जनता को मूर्ख बनाना है। रेखा गुप्ता की सरकार यही कर रही है। क्लाउड सीडिंग, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, कोई नई तकनीक नहीं है। सूखे के दौरान बारिश कराने के लिए इसका इस्तेमाल भारत ने भी 1950 के दशक के शुरू में किया था और तब से इस पर निरंतर शोध हो रहे हैं। हाल ही में एक प्रयोग इंडियन इंस्टिट्यूट ऑ़फ ट्रॉपिकल मीटरोलॉजी ने पश्चिमी घाटों के वर्षा-छाया क्षेत्रों पर किया था। थाईलैंड में तो कृत्रिम बारिश कराने का बाकायदा एक विभाग है। चीन व अमरीका में इस संदर्भ में संसार के सबसे बड़े कार्यक्रम हैं। दर्जनों देश क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन केवल बारिश के मौसम में सूखा राहत के लिए।
गौरतलब है कि क्लाउड सीडिंग उस समय काम करती है जब बादल मौजूद हों, लेकिन अपने तौर पर पर्याप्त बारिश उत्पन्न न कर पाते हों। इसलिए क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल बारिश के मौसम में किया जाता है, न कि सूखे जाड़ों में। अक्सर ऐसा भी हुआ है कि अनुकूल स्थितियां प्रतीत होने के बावजूद क्लाउड सीडिंग से बारिश नहीं हुई है। क्लाउड सीडिंग से वायु गुणवत्ता बेहतर करने के अधिकतर प्रयोग असफल रहे हैं, ज्यादातर मामलों में वर्षा हुई ही नहीं। देखने में यह आया है कि क्लाउड सीडिंग से बड़े शहरों के बहुत छोटे क्षेत्रों में ही मामूली बारिश हो पायी है। लाहौर में 2023 में कृत्रिम वर्षा से कुछ घंटों के लिए (दिनों के लिए भी नहीं) वायु गुणवत्ता में सुधार आया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि क्लाउड सीडिंग वायु प्रदूषण को पराजित करने का अच्छा तरीका नहीं है। इन कमियों की वजह से संसार के अधिकतर शहर वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए आपातस्थिति में भी क्लाउड सीडिंग का इस्तेमाल नहीं करते हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि 2024 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने संसद को बताया था कि दिल्ली की वायु गुणवत्ता को बेहतर करने के लिए क्लाउड सीडिंग आपात स्थिति में भी कारगर नहीं है। अपने इस निष्कर्ष के लिए मंत्रालय ने यह तर्क दिये थे- उत्तर भारत पर जाड़ों में जो बादल छाते हैं, वह बहुत कम समय के लिए रहते हैं और उनसे केवल प्राकृतिक बारिश होती है, जिससे क्लाउड सीडिंग अनावश्यक हो जाती है, जो बादल 5-6 किमी की ऊंचाई पर होते हैं उन्हें हवाईजहाज़ की सीमाओं के कारण सीड नहीं किया जा सकता।
प्रभावी सीडिंग के लिए बादलों की विशिष्ट स्थिति की ज़रूरत होती है, जोकि दिल्ली की ठंड व सूखे मौसम में संभव नहीं है। अगर वर्षण बन भी जाता है तो बादलों के नीचे की सूखी हवा उसके ज़मीन पर पहुंचने से पहले उसका वाष्पीकरण कर देती है। क्लाउड सीडिंग के लिए जो रसायन इस्तेमाल किये जाते हैं, उनको लेकर भी चिंताएं बरकरार हैं कि वह कितने प्रभावी होते हैं और उनसे ़गैर-इरादतन क्या नुकसान पहुंच सकते हैं? जब केंद्र सरकार क्लाउड सीडिंग के बारे में इतना कुछ स्पष्ट कह चुकी है तो फिर दिल्ली सरकार यह कवायद क्यों कर रही है? इसका उत्तर विज्ञान में नहीं दिल्ली की सियासी नौटंकी में मिलेगा। ‘आप’ सरकार ने 2023 के स्मॉग सीजन में क्लाउड सीडिंग कराने की योजना बनायी थी, लेकिन मौसम अनुकूल नहीं था, इसलिए वह इसे लागू न कर सकी। अब भाजपा की सरकार यह साबित करना चाहती है कि जो काम ‘आप’ न कर सकी उसे वह करके दिखा रही है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर

