सांसद या विधायक बनने के लिए शैक्षणिक योग्यता क्यों नहीं ?

चार माह की अवधि में दूसरी बार पिथौरागढ़ के गांव खेतर कान्याल का ग्राम प्रधान का पद भरा नहीं जा सका है। यह पद वन रावत आदिवासी समुदाय की महिला के लिए आरक्षित है, जिसकी न्यूनतम शैक्षिक योग्यता 8वीं कक्षा पास होनी चाहिए। लेकिन इस योग्यता की कोई एक भी महिला प्रत्याशी जुलाई 2025 के ग्राम प्रधान चुनाव में नहीं मिल सकी थी और न ही 20 नवम्बर, 2025 के लिए मिल सकी। डीडीहाट ब्लॉक के इस गांव में 2011 की जनगणना के अनुसार 920 लोग रहते हैं, जिनमें से 162 का संबंध अनुसूचित जनजाति से है और वन रावत समुदाय को विशेष रूप से असुरक्षित आदिवासी गुट के रूप में लिस्ट किया गया है। आठवीं पास की कानूनी शर्त ने इस समुदाय की सभी महिलाओं को प्रत्याशी बनने के दायरे से बाहर किया हुआ है, क्योंकि इनमें से एक भी प्राइमरी स्कूल से आगे नहीं बढ़ सकी है। 
इस खबर से अनेक बुनियादी सवाल उठते हैं। जो संसद व राज्यों की विधानसभाओं में बैठे हैं और कानून बनाते हैं, उनके लिए वहां तक पहुंचने के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की कोई शर्त नहीं है, लेकिन ग्राम प्रधानों के लिए है, यह अंतर यानी भेदभाव किस लिए, जबकि कानून बनाने के लिए तो पढ़ा-लिखा होना आवश्यक होना चाहिए। कुछ राज्यों में तो ग्राम प्रधान बनने के लिए संबंधित व्यक्ति के दो से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिए, की पाबंदी भी है, लेकिन सांसदों व विधायकों के लिए ऐसी कोई रोक नहीं है, क्यों? मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा व उत्तराखंड में जिस व्यक्ति के दो से अधिक बच्चे हैं, वह ग्राम प्रधान का चुनाव नहीं लड़ सकता। साल 2021 की समीक्षा के मुताबिक कम से कम 168 लोकसभा सदस्यों के दो से अधिक बच्चे हैं, जिनमें से 105 भाजपा के सांसद हैं। भाजपा के 66 सांसदों के 3-3 बच्चे हैं, 26 सांसदों के 4-4 बच्चे हैं और 13 सांसदों के 5-5 बच्चे हैं। अपना दल के सांसद पकौरी लाल के 7 बच्चे हैं। कहने का अर्थ यह है कि अभिनेता रवि किशन चार बच्चों के पिता सांसद तो बन सकते हैं (वह वर्तमान में लोसभा के सदस्य भी हैं), लेकिन बहुत-से राज्यों के गांवों में प्रधान के प्रत्याशी नहीं बन सकते। 
बहरहाल, खेतर कान्याल गांव की खबर से यह प्रश्न भी उठता है कि ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ के नारे से अभी तक वह नतीजे क्यों नहीं मिले, जोकि मिलने चाहिये थे? मसलन, खेतर कान्याल में केवल एक प्राइमरी स्कूल है और निकटतम अपर प्राइमरी स्कूल लगभग 7 कि.मी. दूर है। यह फासला इतना अधिक है कि लड़कियां सुरक्षा की दृष्टि से इसे प्रतिदिन तय नहीं कर सकतीं। इससे यह पैटर्न बना है कि लड़कियां प्राइमरी स्कूल के बाद अपनी शिक्षा जारी नहीं रख पातीं और ग्राम प्रधान प्रत्याशी बनने जैसे अवसर को गंवा बैठती हैं। यह समस्या केवल एक गांव, एक ज़िले या एक राज्य तक सीमित नहीं है। अधिकतर जगहों का यही हाल है।
गांवों में सरकारी योजनाएं ग्राम प्रधानों के माध्यम से ही लागू की जाती हैं, मसलन मनरेगा के तहत जो ब्लाक सचिव साल में 100 दिन का रोज़गार देने का सर्टिफिकेट बनाता है, वह ग्राम प्रधान की सिफारिश से ही बनता है। इससे ग्राम प्रधान पद के महत्व का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
 इसलिए जिन गांवों में ग्राम प्रधान पद महिलाओं के लिए आरक्षित होता है, उनमें गांव के सियासी परिवार अपने घर की महिलाओं को प्रत्याशी बना देते हैं, उन महिलाओं को जिन्हें वह घर से भी नहीं निकलने देते, सिर्फ इसलिए कि ‘सत्ता’ उनके पास रहे। कागज़ पर या कहने को तो महिला प्रधान होती है, लेकिन वास्तविक ‘प्रधानी’ घर का कोई पुरुष, मुख्यत: संबंधित महिला का पति, ही करता है। इसी से ‘प्रधान पति’ का टर्म चलन में आया है।
अधिकतर राज्यों में महिलाओं के लिए पंचायतों की 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं। इसका उद्देश्य महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण है। लेकिन देखने में आता है कि यह राजनीतिक सशक्तिकरण केवल दिखावे का ही होता है, असल काम तो ‘प्रधान पति’ ही करते हैं। यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है। इसलिए अब कुछ राज्यों में इसे बदलने का प्रयास किया जा रहा है ताकि महिलाओं का वास्तविक राजनीतिक सशक्तिकरण हो सके। मसलन, राजस्थान में यह आदेश जारी किया गया है कि अगर महिला प्रधान के कामकाज में उसके किसी रिश्तेदार का हस्तक्षेप देखा जाता है या वह प्रधान की ज़िम्मेदारियों को निभा रहे हैं, तो कड़ी कार्रवाई की जा सकती हैं, जिसमें महिला को प्रधान के पद से निलम्बित या हटाया भी जा सकता है और संबंधित रिश्तेदार व उससे सांठ-गांठ करने वाले अधिकारियों को भी सज़ा दी जा सकती है।
इस पृष्ठभूमि में यह प्रश्न प्रासंगिक है कि पंचायत राज ने महिलाओं को राजनीतिक दृष्टि से कितना सशक्त किया है? पंचायत राज संस्थाओं में चुने हुए प्रतिनिधियों में से 50 प्रतिशत महिलाएं हैं, लेकिन वह उन पदों पर अपने असरदार पतियों या ससुरों की प्रॉक्सी से अधिक कुछ नहीं हैं। दूसरी तरफ कानून बनाने वाले सांसदों व विधायकों के लिए भी शैक्षिक योग्यता की कोई न्यूनतम शर्त होनी चाहिए। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

#सांसद या विधायक बनने के लिए शैक्षणिक योग्यता क्यों नहीं ?