राहुल गांधी के बयानों के कारण ही महागठबंधन को मिली मात

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के राजनीतिक सलाहकार चाहे जो भी हों या फिर अपने सियासी निर्णय लेने वाले राहुल गांधी खुद ही क्यों नहीं हों, कांग्रेस के नैतिक पतन, सियासी कमजोरी के सबसे बड़े सूत्रधार वही समझे जा सकते हैं। ऐसा इसलिए कि देश के नेता प्रतिपक्ष वाली सियासी गम्भीरता राहुल गांधी और कांग्रेस से नदारद है। अब तो यह भी कहा जाने लगा कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी के बयानों से ही महागठबंधन को मात मिली। राहुल गांधी ने बिहार विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान सवर्ण विरोधी अनेक बयान दिए। उन्होंने कहा कि ‘मात्र एक प्रतिशत सवर्ण आबादी सेना, न्यायपालिका और अफसरशाही नियंत्रित करती है।’ उनके इस बयान ने सवर्ण (ऊंची जाति) समुदाय में नाराज़गी पैदा की और महागठबंधन की सामाजिक संतुलन रणनीति कमजोर कर दी। 
तीन दशक बाद मुसलमानों ने, दलितों ने, और कुछ पिछड़ों ने विगत लोकसभा चुनाव 2024 में उनकी कांग्रेस व उसके ‘इंडिया गठबंधन’ के साथ जुड़ने की अभिरुचि क्या दिखाई थी। राहुल गांधी उन पर फिदा हो गए। ताबड़तोड़ सवर्ण विरोधी बयान देने लगे। वहीं, उनके लगातार पिछड़े वर्गों, दलितों और महिलाओं के पक्ष में दिए गए सशक्तिकरण के आक्रामक बयानों ने भी इस धारणा को मजबूत किया कि महागठबंधन ऊंची जातियों की उपेक्षा कर रहा है। चुनाव में इसका नकारात्मक असर हुआ। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन को ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा जिसमें गठबंधन मात्र 36 सीटों तक सिमट गया।
दूसरी ओर, एनडीए ने महिला, सवर्ण एवं गैर-यादव पिछड़ी जातियों को जोड़ने वाली व्यापक सामाजिक-राजनीतिक रणनीति से लाभ उठाया, जबकि महागठबंधन अपना परम्परागत वोट-बैंक भी समेटने में प्रभावी नहीं रहा। ऐसा इसलिए कि राहुल गांधी के जातिगत बयान, खासकर ‘कास्ट सेंसस’ और सवर्ण-विरोधी टिप्पणियां, भाजपा द्वारा ‘बांटो और राज करो’ राजनीति की तरह प्रचारित की गईं जिससे सवर्ण समुदाय का कांग्रेस समर्थित गठबंधन से और अधिक मोहभंग हुआ। वहीं मीडिया विश्लेषण में कम्यूनिकेशन, सीट-शेयरिंग में गड़बड़ी और विपक्ष में सकारात्मक एजेंडा की कमी के साथ-साथ, इस जातीय विमर्श ने एनडीए के पक्ष में ध्रुवीकरण को तेज किया। कांग्रेस की कमजोर जमीनी उपस्थिति ने भी ऊंची जातियों और शहरी वोटर्स के विरोध को कम करने में विफलता दिखाई।
भाजपा के रणनीतिकारों ने राहुल गांधी के विवादित बयान का स्वरूप इस तरह से सवर्णों के सामने पेश करवाया कि मोदी विरोधी सवर्णों ने भी राहुल गांधी के नेतृत्व वाले गठबंधन से दूरी बना ली। भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने राहुल गांधी के बयानों को ‘सवर्ण-विरोधी’ कहकर मुद्दा बनाया और इसे स्वाभिमानी उच्च जातियों की अनदेखी की तरह पेश किया, जिससे गठबंधन के भीतर और बाहर दोनों तरफ असंतोष बढ़ा। इससे न सिर्फ सवर्ण बल्कि शहरी मध्यमवर्गीय मतदाताओं में भी नकारात्मक धारणा बनी, जो महागठबंधन के प्रदर्शन में गिरावट का एक प्रमुख कारण रहा। उम्मीद है कि राहुल गांधी इसे समझेंगे और अपनी रणनीति बदलेंगे।
एक और खास बात यह कि सियासी शिल्पी नितीश कुमार ने जिस ‘इंडी/इंडिया गठबंधन’ को अपनी राजनीतिक सेहत मजबूत करने के लिए कभी आकार दिया था, उसे संभालने या संभाले रखने की क्षमता भी राहुल गांधी-प्रियंका गांधी की टीम में नहीं दिखाई दी। यही वजह है कि ‘इंडिया गठबंधन’ के साथी दल निरंतर चुनाव दर चुनाव हार रहे हैं और ‘इंडिया गठबंधन’ में भगदड़ मची है। यह बात दीगर है कि क्षेत्रीय दलों की सामंती सोच भी इस स्थिति के लिए एक हद तक ज़िम्मेदार है। फिर भी टीम राहुल गांधी की ज्यादा गलती है। जरा गौर कीजिए, लोकसभा चुनाव 2024 के पहले कांग्रेस की कितनी बुरी हालत थी। दो-दो लोकसभा चुनावों में वह नेता प्रतिपक्ष के लायक भी नहीं बची थी। कर्नाटक, तेलंगाना, हिमाचल प्रदेश की बात छोड़ दें, तो कांग्रेस की हालत सब जगह पतली थी लेकिन क्षेत्रीय दलों ने इंडी/इंडिया गठबंधन बनाकर लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस को मजबूती प्रदान की और तब जाकर वह लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी हासिल कर सकी। 
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शुरू से ही कांग्रेस को भाव नहीं दे रही हैं। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तक इंडिया गठबंधन में निरंतर बढ़ती दरारों से परेशान हो गए। परिणाम यह हुआ कि यूपी उपचुनाव 2024 में अखिलेश यादव, हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024 में महा अगाड़ी गठबंधन (कांग्रेस, शिवसेना यूबीटी व एनसीपी शरद पवार का गठबंधन) के उद्धव भाऊ ठाकरे व शरद पवार, दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में अरविंद केजरीवाल, बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में तेजस्वी यादव आदि अपनी हस्ती में आ गए। यह सब इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी, समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव, राजद नेता तेजस्वी यादव, शिव सेना यूबीटी नेता उद्धव भाऊ ठाकरे, एनसीपी के शरद पवार, आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल आदि अपने अपने सियासी हठ पर कायम रहे और एक-दूसरे को मजबूत बनाने के बजाय उन्हें कमजोर करने की चालें चलते रहे। परिणाम समाने है। इससे राहुल गांधी को सबक लेना चाहिए। उनके विरोधियों को भी यह समझना होगा कि कांग्रेस को कमजोर करके वे कभी मजबूत नहीं हो सकते हैं।
लोकसभा चुनाव 2024 में संविधान बचाने के लिए जो दलित कांग्रेस व क्षेत्रीय दलों की ओर लौटे थे, वे पुन: भाजपा से जुड़ गए। अखिलेश के पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक (पीडीए) गठबंधन की हवा भाजपा ने निकाल दी, क्योंकि उसने उ.प्र. में जिस वैकल्पिक पिछड़ा, दलित, अगड़ा गठबंधन का आह्वान किया। वह बिहार विधानसभा चुनाव में अपना जलवा दिखा चुका है। उधर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी सियासी रणनीतिक दुर्बलता की सारी हदें पार कर दी हैं। जिन मुद्दों पर जोर देने के चलते कांग्रेस का सियासी पतन हुआ, वह उन्हीं मुद्दों पर फिदा हो रहे हैं। जिन क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस की कब्र खोदी, उन्हीं से गठबंधन कर  रहे हैं। उनके पिता जी के नाना जवाहर लाल नेहरू कश्मीरी ब्राह्मण थे। 

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