मध्यम वर्ग पर विपरीत प्रभाव डालेगा बजट-2018

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने अपने हालिया बजट में मध्यम वर्ग की बचत को निशाने पर लिया है। जब भी सरकार नकदी की तंगी में रहती है, तो मध्यम वर्ग  का गिरेवान पकड़ती है। खासतौर पर वेतनभोगियों का। और सरकार को इसकी कोई कीमत भी नहीं चुकानी होगी। न तो वे वोट बैंक हैं और न उनकी साझा पहचान है।बल्कि, वे जितनी शिकायत करेंगे, उतना ही अच्छा होगा। क्योंकि इससे गरीबों को एक तरह की संतुष्टि मिलेगी। हम इसे राजनीति का नोटबंदी मॉडल कह सकते हैं। कुछ ऐसा नाटकीय जिससे गरीबों पर असर पड़ भी रहा है, तो आप उनसे जाकर कह सकें कि कृपया बर्दाश्त कर लीजिए। यह बात अलग है कि अमीरों को कभी कष्ट नहीं होता। मध्यम वर्ग को तो कभी भी नुक्सान पहुंचा सकते हैं। राजस्व के लिए या राजनीति के लिए। हालिया बजट में ऐसा कुछ नहीं था, जो इसे सुर्खियों में लाए। इसे अगली सुबह तक हमारी स्मृतियों तक से गायब हो जाना था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शेयर बाज़ार और व्रान्ड बाज़ार में मचे हाहाकार ने इसे याद में बनाए रखा है। पी. चिदम्बरम के तीन बजटों में भी ऐसी बातें थीं, जिन्होंने बाज़ार को प्रभावित किया। इनमें बैंकिंग नकदी लेन-देन कर, प्रतिभूति लेन-देन और इंप्लॉयी स्टॉक ऑप्शंस टैक्स का पुनर्लेखन शामिल था। इस बजट में मध्यम वर्ग की बचत के उस जरिये पर हमला किया गया, जो पिछले एक दशक से उसके लिए राहत बना हुआ था। यह है म्युचुअल फंड पर कर लगाने का फैसला।बिज़नेस स्टैंडर्ड लिमिटेड के चेयरमैन टी.एन. नाइनन जो देश में अर्थव्यवस्था पर टिप्पणी करने वाले प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं, उन्होंने कुछ सप्ताह पहले अपने साप्ताहिक स्तंभ में शेयरों पर फिर से दीर्घावधि का पूंजीगत लाभ कर लगाने की मांग की थी। उन्होंने दलील दी थी कि अगर वित्त मंत्री घाटा कम करना चाहते हैं, तो शेयर से होने वाले मुनाफे पर कर लगाना होगा। ज़ाहिर है वित्त मंत्री को यह सलाह उचित लगी। लेकिन यहां मेरा दृष्टिकोण अलग है। पहला सवाल तो यह है कि क्या कोई सरकार अपनी चुनावी राजनीति की फंडिंग के लिए जो चाहे कर सकती है? भले ही इसके राजकोषीय प्रभाव कुछ भी हों? मैं सब्सिडी या गरीबोन्मुखी योजनाओं की शिकायत नहीं कर रहा हूं। लेकिन नोटबंदी जैसे विचित्र विचार का क्या, जिसने पूरे वर्ष की जीडीपी का 1-2 फीसदी के बराबर राशि का नुक्सान किया? इसके अलावा इससे बड़ी तादाद में रोज़गार का नुक्सान हुआ वो अलग। इसके पीछे की आर्थिक सोच यह थी कि इससे असंगठित क्षेत्र की लाखों-करोड़ों की नकदी संगठित क्षेत्र में आएगी, देश का करदाता आधार विस्तारित होगा और कर संग्रह भी बढ़ेगा। नोटबंदी के डेढ़ साल बाद इनमें से  कोई लाभ नज़र नहीं आ रहा। अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने आर्थिक समीक्षा में नोटबंदी की विफलता की स्वीकारोक्ति खोज निकाली। उन्होंने ट्वीट किया, ‘यह देखना अच्छा है कि वर्ष 2017-18 की आर्थिक समीक्षा में नोटबंदी की बड़ी चूक को स्वीकार किया गया है।’ वहीं दूसरी ओर सरकार ने इ्क्वटी लिंक्ड म्युचुअल फंड पर कर लगा दिया। यानी यह दावा काल्पनिक साबित हुआ कि करदाताओं से लाखों रुपए जुटाए जाने हैं। दूसरी दलील राजनीतिक है। सरकारें मध्यम वर्ग के साथ ऐसा व्यवहार इसलिए कर पाती हैं, क्योंकि इसकी कोई लॉबी या कोई चुनावी ताकत नहीं है। ऐसा बजट उनकी राजनीति के लिए सकारात्मक हो सकता है। बस गरीबों को समझाना होता है कि लाखों-करोड़ों रुपए उनकी ओर आ रहे हैं। किसानों को कहना होता है कि चूंकि उनके पास वोट हैं, इसलिए उनका संकट दूर करने का सरकार हर संभव प्रयास करेगी। कुछ आंकड़े भी हमारी इस बातचीत से जुड़े हुए हैं। इनमें से एक यह कि केवल 1.7 फीसदी भारतीय ही (2015-16 के अधिकारिक आंकड़ों के अनुसार) आयकर चुकाते हैं। हालांकि मध्यम वर्ग का आकार 130 करोड़ की आबादी में इस 1.7 फीसदी से बहुत बड़ा है। बेहतर सरकार वही होगी जो इस दायरे को बढ़ाने का प्रयास करेगी। नोटबंदी पहला उपाय था, जिसके बाद वस्तु एवं सेवा कर लागू किया गया। परंतु हकीकत यही है कि सभी सरकारें यह लक्ष्य हासिल करने में नाकाम रही हैं। कर चोरी करने वाले बड़े लोगों को पकड़ने में नाकामी ही मिलती है। इसके बदले सरकार उन पर वार करती रहती है, जिनके पास छिपने की जगह नहीं है। अब वेतनभोगी कर्मचारी अपनी बचत कहां ले जायेंगे? क्योंकि उनके पास नकदी नहीं है, परिसंपत्ति बाज़ार में प्रवेश करना आसान नहीं है और राजग सरकार के चार साल के कार्यकाल में अचल संपत्ति के मूल्य में भारी गिरावट आई है। बैंकों और सरकारी बचत योजनाओं में नामात्र का ब्याज मिल रहा है। जबकि इन्हीं बैंकों ने ऋण दरों में कमी नहीं की और लोगों की मासिक किस्तों में कमी नहीं आई है। सरकार की ही तरह बैंकों को भी पता है कि वे बड़े देनदारों द्वारा किए गए डिफॉल्ट की भरपाई मध्यम वर्ग के जमाकर्ताओं से ही कर सकते हैं। इसमें घर, वाहन और शिक्षा आदि के लिए ऋण लेने वाले लोग शामिल हैं। सवाल यह है कि अब लोग अपनी बचत को कहां ले जाएं? क्या वे सोने में निवेश करें?जब वर्ष 2004 में पी. चिदंबरम द्वारा बजट प्रस्तुत किए जाने के बाद बाज़ार में तत्काल गिरावट आई तो उन्होंने कहा था कि जो ऐसी परिस्थिति में वित्त मंत्री कहा करते हैं। ‘क्या मैं किसानों या ब्रोकर के लिए बजट बनाता हूं? मैंने तब भी लिखा था कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में मामला अब किसान बनाम ब्रोकर का नहीं रहेगा। क्योंकि कृषि और वित्तीय बाज़ार  एक दूसरे से अलग नहीं रह गए थे। बजट में कई सुधार किए गए और इस तरह नुक्साम कम करने का प्रयास किया गया। इस बार भी ऐसा ही होना चाहिए था। देश का अधिकांश मध्यम वर्ग शहरी है और मोदी को लेकर प्रतिबद्ध भी। गुजरात चुनाव में हमने ऐसा देखा। यह प्रतिबद्धता ऐसी है कि लोग इस बात को भी पचा गए कि इस सरकार ने चार साल में उसे तेल कीमतों में कमी का  कोई लाभ नहीं दिया। अब उनकी बचत पर हमला किया गया है जो गहरे जख्म देगा।
 

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