कर्नाटक विधानसभा चुनाव-2018 का परिदृश्य

कर्नाटक में विधानसभा चुनाव (12 मई) ऐसे समय में हो रहे हैं जब सिर पर छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राजस्थान के विधानसभा और 2019 के आम चुनाव लगभग मंडराने लगे हैं। लेकिन इस चुनाव का राष्ट्रीय महत्व एक से अधिक कारणों से है। कर्नाटक देश के उन दो बड़े राज्यों (दूसरा मध्य प्रदेश) में से है, जहां कांग्रेस की राजनीतिक उपस्थिति अभी शेष है और इसके नतीजे पर निर्भर करता है कि वह राष्ट्रीय स्तर पर फि लहाल देश की मुख्य विपक्षी पार्टी बनी रहती है या नहीं। साथ ही केन्द्र में उसकी वापसी के लिए कोई आधार बनता है या नहीं। कर्नाटक 12 सदस्य राज्यसभा में और 28 लोकसभा में भेजता है। वर्तमान लोकसभा में कांग्रेस के सबसे अधिक सदस्य (44 में से 9) इसी राज्य से हैं। ध्यान रहे कि कांग्रेस के चुनावी इतिहास में कर्नाटक ने उसके उतार व चढ़ाव दोनों की भूमिका निभाई है। आपातस्थिति के बाद कांग्रेस का पुन: उत्थान कर्नाटक से ही हुआ और फि र जब रामकृष्ण हेगड़े, एच.डी. देवगौड़ा आदि का डंका बज रहा था तो देश में कांग्रेस का पतन भी कर्नाटक से ही शुरू हुआ। अब भी कांग्रेस का भविष्य कर्नाटक पर ही निर्भर है। भाजपा के लिए उसके ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ अभियान में कर्नाटक मुख्य बाधा है और दक्षिण का यह एकमात्र राज्य है जिसमें भाजपा के लिए सत्ता में आने का संघर्षमय अवसर है। इस समय भाजपा की 2013 जैसी स्थिति नहीं है, तब उसके वर्तमान मुख्यमंत्री पद के दावेदार बी.एस. येदियुरप्पा ने उससे अलग होकर कर्नाटक जनता पक्ष पार्टी बना ली थी और एक अन्य महत्वपूर्ण नेता बी.श्रीरामुलु ने बीएसआर कांग्रेस बनाई थी। छोटी-मोटी अड़चनों के बावजूद अब 2018 में भाजपा अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के कड़े शिकंजे में एकजुट है। क्षेत्रीय पार्टी जनता दल (एस) जो लम्बे समय से सत्ता से बाहर है, अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है। अगर चुनाव पूर्व कुछ सर्वे पर विश्वास किया जाये और 12 मई के मतदान में वास्तव में त्रिशंकु विधानसभा आ जाती है तो जद(एस) महत्वपूर्ण निर्णायक मुद्दा बन सकता है। उसने जो बसपा व असदुद्दीन ओवैसी की आल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लिमीन से हाल में गठजोड़ किया है, उससे कुछ क्षेत्रों में कांग्रेस की वोटों में विभाजन हो सकता है। कांग्रेस ने इस चुनाव को दिशा देने के लिए मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को पर्याप्त स्वायत्तता प्रदान की है। वह अब तक धर्म-निरपेक्षता, विकास व कल्याण योजनाओं के मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे हैं, जिनपर ‘क्षेत्रीय गौरव’ ‘आइसिंग ऑन द केक’ की तरह है, जिसके संकेत चिन्ह हैं, हिंदी थोपे जाने के विरुद्ध प्रदर्शन और राज्य झंडे की मांग। बहरहाल, यह तो वक्त ही बतायेगा कि लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देना सिद्धारमैया के लिए तुरुप का इक्का साबित होगा या नहीं। लिंगायत 1980 के दशक से ही भाजपा का वोट बैंक रहे हैं, खासकर इसलिए कि येदियुरप्पा का संबंध इसी समुदाय से है। अगर लिंगायत कांग्रेस के अल्पसंख्यक, ओबीसी व दलित वोटों के साथ जुड़ जाते हैं तो स्वर्ण जातियों के उलटवार का खतरा बना रहता है। इसके विपरीत भाजपा का चुनाव अभियान पूर्णत: उसके केन्द्रीय नेतृत्व पर केन्द्रित है जिसमें निर्भरता नरेंद्र मोदी व अमित शाह की जोड़ी पर है। हद यह है कि जन सभाओं व ऑनलाइन स्पेस में युद्ध सीमाएं सिद्धारमैया और भाजपा के केन्द्रीय नेताओं के बीच ही निर्धारित की जा रही हैं। शाह अभियान का माइक्रो प्रबंधन कर रहे हैं, उन्होंने राज्य के बाहर से अपने 11 विश्वसनीय व्यक्तियों को भी बुला लिया है, जिन्हें कर्नाटक के विभिन्न क्षेत्रों का चार्ज सौंपा गया है। भाजपा राज्य सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रही है (मोदी ने इसे 10 प्रतिशत कमीशन सरकार कहा) और कानून व्यवस्था का मुद्दा भी उठा रही है, लेकिन उसका अधिक फोकस हिंदुत्व पर ही है, खासकर इसलिए कि भ्रष्टाचार के हमाम में वह भी नंगी है। येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था जब जमीन घोटाले की बात लोकायुक्त तक पहुंची थी। इसलिए भाजपा के प्रत्याशी संजय पाटिल ने जनसभा में कहा कि यह चुनाव विकास या सड़कों के बारे में नहीं है बल्कि हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच है, अगर राम मन्दिर चाहिए तो भाजपा को वोट दो और अगर बाबरी मस्जिद चाहिए तो कांग्रेस को वोट दो। बहरहाल, जैसे-जैसे मतदान की तिथि करीब आती जा रही है वैसे ही चुनाव जीतने के लिए हर राजनीतिक पार्टी अपना असल चेहरा बेनकाब करती जा रही है, जिसमें नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। मसलन गलि जनार्धन रेड्डी के खिलाफ  अवैध माइनिंग की जांच चल रही है और भाजपा अभी तक कह रही थी कि उसका रेड्डी से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन हाल ही में रेड्डी को येदियुरप्पा के मंच पर देखा गया और येदियुरप्पा ने घोषणा की कि रेड्डी की वापसी से भाजपा को ‘जंबो ताकत’ हासिल हुई है। रेड्डी के दो भाइयों- सोमशेखर व करुणाकर- को भाजपा ने टिकट दिया है।गौरतलब है कि रेड्डी के करीबी साथी बी. श्रीरामुलु उत्तर कर्नाटक में सिद्धारमैया के खिलाफ  बदामी में चुनाव लड़ रहे हैं। सिद्धारमैया अपने गृह जिले मयसुरू की चामुंडेश्वरी सीट से भी चुनाव लड़ रहे हैं। दो सीटों का चयन उन्होंने इसलिए किया क्योंकि ऐसी खबरें आयी थीं कि उन्हें पराजित करने के लिए भाजपा व जद (एस) में ‘समझौता’ हो गया है। अब सवाल यह है कि कर्नाटक में नतीजों का ऊंट किस करवट बैठ सकता है? यह प्रश्न इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि 1985 के बाद से कर्नाटक ने एक सत्तारूढ़ दल को लगातार दूसरी बार शासन का अवसर नहीं दिया है। इस बारे में कर्नाटक की राजनीति पर पिछले चार दशक से नजर रखने वाले जेम्स मैनर (स्कूल ऑफ  एंडवांस्ड स्टडी, लंदन) का कहना है, ‘अनेक सशक्त मुद्दे कार्य कर रहे हैं, जिनमें से कुछ नये भी हैं, इसलिए अनुमान लगाना कठिन है। लेकिन संभावना कांग्रेस बहुमत या त्रिशंकु विधान सभा की अधिक है।’ 

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