भूख के समक्ष कीमती अन्न की बर्बादी

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश का सूत्र संचालन उस समय  के जन-प्रिय नेता जवाहर लाल नेहरू के हाथ में आ गया। गांधी कोई भी राजनीतिक पद लेने को तैयार न थे। नेहरू स्वप्नदर्शी ज़रूर थे परन्तु गांधी जी के ‘अंतिम जन’ तक पहुंचने की प्रतिबद्धता गांधी जैसी नहीं थी। उस उदारता में ऐसी शक्तियां भी पनपती चली गई जो स्वहित को जन हित पर तरजीह देने वाली थी। शासन के पीछे धीरे-धीरे अपनी सक्रियता को बनाये रखने वाले व्यापारी, दलाल, उद्योगपति, कारोबारी,बिल्डर, सट्टेबाज़, कालाबाज़ार से जुड़े लोग पहले अप्रत्यक्ष भूमिका में आये फिर पीछे और खुले रूप से शासन की हिस्सेदारी चाहने वाले वर्ग के रूप में पनपते चलेगये। लिहाज़ा आगे चलकर एक ही देश से दो भारत नज़र आने लगे। एक ‘इंडिया’ के रूप में दूसरा ‘भारत’ अथवा ‘हिन्दुस्तान’ के रूप में। यानि एक ही देश में दो देशों की दुनिया। एक सुख-सुविधाओं से भरपूर, दूसरी परेशानियों, कष्टों, अभाव और विपदाओं में जीने वाले लोगों की विवश दुनिया।  एक अन्न जल, कपड़ा, घर से लगभग वंचित, दूसरी हर तरह के ऐशो-आराम, धन-धान्य से भरपूर अधिकारों से लैस दुनिया। आज की बर्बादी, गरीबी, कुपोषण,बेचारगी अभी तक हमारे आस-पास की ज़िन्दगी की बड़ी समस्याएं हैं। आज हर तरफ विकास की आंधी झूल रही है। सिटी स्मार्ट हो रहे हैं। गाड़ियों की रफ्तार तेज करने की कोशिश है। आधुनिकतम हवाई अड्डे उपलब्ध करवाने की कोशिश है, परन्तु इसी बीच वैश्विक भूख सूचकांक की कुछ ही दिन पहले आई रिपोर्ट के अनुसार भारत का एक सौ उन्नीस देशों में एक सौ तीसरे पायदान पर होना, क्या यह नहीं बता रहा कि इस भूख से निपटने में उतने सफल नहीं हो पाये। रिपोर्ट तो कह रही है कि भारत अपने पड़ोसी देश नेपाल और बंगलादेश से भी पीछे है। पड़ोसी चीन की 25वीं, बंगलादेश की 66वीं, नेपाल की 72वीं, श्रीलंका को 67वीं जगह मिली है। भुखमरी जैसी भयानक विपता के अनेक कारण हो सकते हैं। एक यह हो सकता है कि उन्नति तो है परन्तु ज़रूरतमंदों तक पहुंच नहीं पा रही। दूसरे अन्न पैदा तो काफी या ठीक-ठाक हो रहा है परन्तु अन्न की सम्भाल में सफलता नहीं मिल रही। लिहाज़ा बर्बादी ज्यादा है। अन्न बर्बाद करने के मामले में भारत दुनिया के सम्पन्न देशों से कुछ आगे ही है। जुड़े आंकड़े बता रहे हैं कि जितना ब्रिटेन उपयोग करता है हमारे देश में उतना बर्बाद हो जाता है। यह भी बताया जा रहा है कि
भारत में कुल पैदा किये जाने वाले भोज्य पदार्थ का चालीस प्रतिशत हिस्सा बर्बाद हो जाता है। इसे रुपयों में आंका जाये तो अन्न की बर्बादी की कीमत लगभग पचास हज़ार करोड़ रुपए तो होगी, क्योंकि देश गरीब है इसलिए खराब हो चुका अन्न भी जनता को बेच दिया जाता है जिससे गरीब जनता बीमारी की चपेट में आ जाती है। खराब को खरे में मिला कर बेचने की परम्परा तो आम है। वैश्विक भूख सूचकांक को लेकर पिछड़े हुए मुल्कों के पास भुखमरी से निपटने का कोई ठोस कार्यक्रम सामने नहीं रखा गया। भारत इन्हीं देशों में से एक है।
संयुक्त राष्ट्र ने तो यहां तक कह दिया कि अगर इस नामुराद बीमारी को नियंत्रण में नहीं लाते तो 2035 तक विश्व की आधी आबादी भूख और कुपोषण की चपेट में आ जाएगी। इस बीमारी से जूझने वाले ज्यादातर लोग विकासशील देशों में जिनमें एशिया और अफ्रीका सबसे ज्यादा है। भारत में हर साल तीन हज़ार से अधिक लोगों की भूख से मरने की सूचना है। हमारे यहां विवाह-पार्टियों, दावतों, उत्सवों में अन्न की बर्बादी बेतहाशा होती है। आदतन हमारे अपने खाना लेते हुए प्लेट को खूब भर लेते हैं। परन्तु थोड़ा-सा खाकर जूठन ड्रम में फैंक देते हैं। संयम को अन्य कई अच्छी चीज़ों के साथ भूलते चले जा रहे हैं। सरकारी एजेंसियों या प्राइवेट व्यापारी द्वारा गेहूं की खरीद तो हो जाती है परन्तु उसकी सम्भाल के लिए सही गोदाम हमारे पास उतने नहीं होते। लिहाज़ा अक्सर गेहूं खुले में स्टोर किया जाता है। समय पर निकासी न हो पाने से अन्न की बर्बादी शुरू हो जाती है। कई बार अनाज को पक्षियों से बचा पाना कठिन हो जाता है। सरकार अपने दायित्व पूरा करे और आम जन अपने। ताकि अन्न की बर्बादी पर कुछ नियंत्रण पाया जा सके। स्टोरेज प्रणाली में भी सुधार कर भी चीज़ों को सही रूप में लाया जा सकता है। आने वाले दिनों में एक भी मौत भूख से न हो। कुपोषण से भी छुटकारा पाया जा सके।