ज़िन्दगी से निराश क्यों है अन्नदाता ?

खबरें जो हमें देश से जोड़ती भी हैं और रोज़मर्रा की हमारी आर्थिक, सामाजिक स्थिति भी बयान करती हैं। हर दिन हर अखबार के किसी न किसी पन्ने पर ‘किसान द्वारा की गई आत्महत्या’ की खबर सच में गम्भीर चिंता का विषय है। अगर हमारा अन्नदाता ही मर रहा है, तो हम चैन से कैसे जी रहे हैं? किसान जिसका न मौसम साथ देता है और न ही किस्मत। क्योंकि किस्मत से मौसम बढ़िया रहे तो फसल ज्यादा हो जाती है, जो कौड़ियों के भाव बिकती है और अगर मौसम खराब रहे तो फसल बर्बाद। दोनों ही सूरतों में किसान द्वारा फसल बीजने, सम्भालने, खाद डालने, पानी लगाने, काटने व मंडी तक पहुंचाने में आई लागत किसी भी सूरत में कम नहीं होती। ऐसे में उसका निराश होना स्वाभाविक ही है। और तो और बाज़ारों में आए दिन नई मशीनरी, बीज व बिजाई-रूपाई की नई तकनीकें किसान भी बिना निरीक्षण किए प्रयोग कर लेता है, जिससे फायदा-नुक्सान तो एक तरफ, उसका खर्च ही बढ़ता है। क्योंकि किसान कर्जे पर नई तकनीकें अपनाता जाता है, जोकि कर्जे का ब्याज तक नहीं लौटा पातीं।  नई तकनीकों का अंधाधुंध इस्तेमाल करने की बजाय, पैसे व हैसियत को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए ताकि उस पर कर्ज का भार न बढ़े। किसान की आत्महत्या, नमोशी के पीछे एक और वजह है। वह है उसका खुलापन, उसका खुशी मनाने का तरीका तथा दिखावा। अक्सर यह लोग शादी या समारोह के वक्त खर्च करने को स्टेटस मानते हैं व कर्ज लेकर ज्यादा से ज्यादा पैसे लुटाते हैं। समारोहों में कपड़े, खाने व शराब पर किया जाता खर्च बेहिसाब होता है। बुजुर्गों ने सच ही कहा है कि ‘चादर देखकर पैर पसारने चाहिएं’। पर दिखावे और हैसियत को कर्ज के रुपयों की चादर में लपेट कर दो पल की खुशी को ही किसान ज़िंदगी समझ बैठता है, जबकि बाद में कर्जदारों से तंग आकर यही किसान ज़िंदगी से निराश हो जाता है।  किसानों द्वारा की जाती आत्महत्या में सरकार की भी कम भागीदारी नहीं होती। जब-जब किसान खेतों में ज्यादा पानी वाली फसलें जैसे गेहूं, चावल व गन्ना बीजता है, तो सरकार बिजली के लम्बे-लम्बे कट लगाने शुरू कर देती है, जिससे फसलों को धूप से बचाने के लिए जनरेटर लगाकर पानी दिया जाता है। आपको पता है कि जनरेटर एक घंटे में साढ़े तीन लीटर डीज़ल लग जाता है, जोकि तकरीबन 200 रुपए का हो जाता है। अब अगर उसकी दस कनाल ज़मीन है तो सिर्फ पानी का खर्च देखिये। इसलिए सरकार को ए.सी. कमरों से बाहर आकर तपती धूप में खून-पसीना बहाते किसान की इस परेशानी को दूर करना होगा, तभी उसके खर्चे घटेंगे व वह साल भर चैन से दो निवाले खा सकेगा, क्योंकि सारा साल कड़ी धूप में जलने व सर्द हवाओं से ठुर-ठुर करने के बाद भी किसान के पास बचती हैं, तो सिर्फ कज़र् की गठड़ी।  इस चर्चा का एक पहलू और भी है, वो है—ठेके पर दी जाती ज़मीन। ठेका कम से कम तीन सालों का दिया जाता है और तीन साल में फसल से किसान का दांत भी गीला नहीं होता कि चौथे साल ज्यादा ठेका देकर ज़मीन कोई और ले जाता है। इसलिए ठेके पर दी जाने वाली ज़मीनों का ठेका निश्चित होना चाहिए। ताकि एक बार ठेके पर ज़मीन लेकर संबंधित किसान अपना कुछ तो बोझ हल्का कर सके। किसान हमारे अन्नदाता हैं। उनका यूं घुट-घुट कर मरना हमारे लिए ही नुक्सानदायक है। उन्हें बचाना हमारे हाथ में भी है। सही चीज़ का सही दाम देकर हम किसानों की सही मायनों में मदद कर सकते हैं।