अर्थ-व्यवस्था को आगे बढ़ाने वाला नहीं है बजट

हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स का विचार था कि अगर एक झूठ सौ बार बोला जाए तो वह सच मान लिया जाता है। गोयबल्स के इस सिद्धांत का पालन राजनेताओं द्वारा अक्सर किया जाता है। लेकिन वे एक बात भूल जाते हैं कि इस सिद्धांत से एक नुकसान स्वयं बोलने वाले को भी होता है। दरअसल, एक ही झूठ को लगातार बोलते-बोलते झूठ बोलने वाला भी धीरे-धीरे उसे सच मानने लगता है, जिससे स्वयं उसका भी हकीकत से नाता कमज़ोर पड़ जाता है। नरेंद्र मोदी सरकार के वित्तीय प्रबंधक इसी तरह की समस्या का सामना कर रहे हैं। दोबारा सत्ता में आते ही मोदी ने कहना शुरू किया कि अब उनका लक्ष्य पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना है। ज़ाहिर है कि यह उपलब्धि करने के लिए उन्हें कम से कम बारह ़फीसदी की वृद्धि-दर की लगातार पाँच-सात साल तक ज़रूरत पड़ेगी। इसके उलट स्थिति यह है कि इस समय हमारे कुल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि-दर तकरीबन नकारात्मक हो गई है, क्योंकि अनौपचारिक क्षेत्र की तऱफ से होने वाला योगदान बहुत नीचे गिर गया है, और औपचारिक क्षेत्र पहले ही अपना काम नहीं कर पा रहा है। लेकिन, वित्तमंत्री और उनके आर्थिक सलाहकार डींगें मारने में लगे हुए हैं कि वे आठ फीसदी की वृद्धि-दर पाने के लिए काम कर रहे हैं। उनकी बातों पर या तो अ़फसोस किया जा सकता है, या फिर हंसा जा सकता है। जो बजट उन्होंने पेश किया है, उससे देश का आर्थिक संकट और अधिक संगीन होने के अंदेशे पैदा हो गए हैं। सरकार के समर्थक हों या आलोचक, 2020-21 के केंद्रीय बजट के बारे में कमोबेश सभी एकमत हैं कि यह एक ‘अपर्याप्त’ बजट है। अर्थात्, यह बजट अर्थव्यवस्था की सुस्ती और पस्ती को दूर करने का पूरा प्रयास नहीं करता। शनिवार को आए बजट से एक दिन पहले शुक्रवार को राष्ट्रीय सांख्यकीय कार्यालय (एनएसओ) द्वारा जारी किए गए आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था का ग्ऱाफ 2016-17 से ही नीचे जा रहा है। विशेषज्ञों की निर्विवाद राय के अनुसार हमारी समस्या यह है कि बाज़ार में मांग बड़ी हद तक घट गई है। चाहे कारें हों या बिस्कुट का पैकेट- माल बिक नहीं रहा है और कुल मिला कर उपभोग की मात्रा में खासी कमी आई है। जब माल नहीं बिकेगा, तो निर्माता नया माल क्यों बनाएंगे, पुराने कारखाने ही पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं करेंगे तो नई फैक्ट्रियां क्यों लगेंगी, और अंत में नतीजा यह होगा कि नया निवेश क्यों होगा। यह गिरावट का एक ऐसा चक्र है जो अर्थव्यवस्था में पहले सुस्ती लाता है, और फिर धीरे-धीरे वह सुस्ती पस्ती में बदलती चली जाती है। बजट एक ऐसा मौका था, जब सरकार इस गिरावट के सिलसिले को रोक सकती थी। पर ऐसा लगता है कि उसने यह अवसर गँवा दिया है। विशेषज्ञों में इस बात पर भी आम तौर पर सहमति है कि मांग और उपभोग में आई गिरावट में अनौपचारिक क्षेत्र का भट्टा बैठने की प्रमुख भूमिका है। यह क्षेत्र ठप्प इसलिए हुए है कि नवम्बर, 2016 से जुलाई, 2017 के बीच इस क्षेत्र को नोटबंदी और जीएसटी के धक्के झेलने पड़े जो इसके लिए बहुत ज़्यादा साबित हुए। यह अनौपचारिक क्षेत्र ही है जिसमें भारतीय श्रम-शक्ति का अधिकतर हिस्सा लगा हुआ है। अर्थशास्त्रियों ने पहले ही चेतावनी दी थी कि इस परिघटना से लोगों की आमदनियां घटेंगी और उसका असर कुल घरेलू उत्पाद कम होने में निकलेगा। लेकिन, सरकार ने इन चेतावानियों पर ध्यान नहीं दिया। संशोधनकारी कदम उठाने के बजाय पिछले साल के बजट में सरकार ने वृद्धि दर और राजस्व वसूली का ज़रूरत से ज़्यादा अनुमान लगाया। सरकार ने महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना पर साठ हज़ार करोड़ के बजाय 71 हज़ार करोड़ रुपए का खर्चा किया। यह एक संकेतक था कि देहातों में लोगों के पास काम नहीं है, और नरेगा के तहत बाज़ार से कम मेहनताना मिलने पर भी लोग रोज़गार पकड़ने के लिए मजबूर हैं। जब अनौपचारिक क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्र बीमार हो गया, तो औपचारिक अर्थव्यवस्था में भी देर-सबेर गिरावट की छूत लगनी लाज़िमी थी। ध्यान रहे कि ़गरीब लोग अपनी आमदनी का ज़्यादातर हिस्सा उपभोग पर खर्च कर देते हैं, और उनके द्वारा बचत नाममात्र की भी नहीं होती। अगर इस तबके की जेब में पैसा घट जाए तो कुल मिला कर मांग पर विपरीत असर पड़ता है। और, हुआ भी यही। इस समस्या को सम्बोधित करने के लिए ज़रूरी था कि नये बजट में इस पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया जाता। लेकिन, ऐसा कुछ नहीं किया गया। उल्टे ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के लिए पिछले साल से भी दस हज़ार करोड़ कम आबंटित किये गए। किसानों के खाते में सीधे धन भेजने वाली प्रधानमंत्री किसान योजना के लिए आबंटन बढ़ाया ही नहीं गया। इसी तरह दोपहर का भोजन देने और गरीबों के लिए बनाई गई स्वास्थ्य योजना आयुष्मान भारत को भी किसी बढ़ोतरी से नहीं नवाज़ा गया। ज़ाहिर है कि वित्त मंत्री के लिए गिरती हुई ग्रामीण आमदनी, किसानों की तकल़ीफें और युवकों की भीषण बेरोज़गारी की अहमियत उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिए। पिछले साल प्रधानमंत्री ने अमरीका में ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम किया था, और उसमें चेहरा चमकाने के लिए सितम्बर में कॉरपोरेट टैक्सों में कटौती घोषित की गई थी। आज हम जानते हैं कि इससे अर्थव्यवस्था को कोई लाभ नहीं हुआ। लेकिन, इससे सबक सीखने के बजाय सरकार ने कॉरपोरेट सेक्ट को 25 हज़ार करोड़ की डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स रियायत घोषित कर दी। इसका लाभ केवल कुछ चुनिंदा बड़े कॉरपोरेटों को मिलेगा, न कि पूरी अर्थव्यवस्था को। कितनी विचित्र बात है कि वित्त मंत्री ने अधिसंरचनात्मक विकास के बारे में बड़ी-बड़ी बातें तो कीं, लेकिन उसके लिए आबंटित रकम वही रखी गई जो पिछले साल थी, यानी कुल घरेलू उत्पाद का 1.8 फीसदी। मध्यवर्गों को उम्मीद थी कि सरकार प्रत्यक्ष करों में रियायत देकर उनकी जेब में कुछ डालेगी ताकि वे एक बार फिर शॉपिंग करने के लिए निकल सकें। लेकिन वित्त मंत्री ने उनमें जोश भरने के बजाय उन्हें पशोपेश में डाल दिया। अब ये वर्ग इस गणना में लगे हुए हैं कि उन्हें नई टैक्स प्रणाली से फायदा है या पुरानी से। समझा जाता है कि जो लोग नईपद्धति का अनुसरण करेंगे, उन्हें कुछ नुकसान हो सकता है। इससे अंदेशा होता है कि बहुत कम लोग नए तरीके से टैक्स देना पसंद करेंगे। यह पहले से ही कहा जा रहा था कि सरकार के पास विकल्प बहुत ज़्यादा नहीं हैं। उसके हाथ बंधे हुए हैं। जो भी बची हुई गुंजाइशें हैं, उनके कौशलपूर्वक इस्तेमाल से शायद अर्थव्यवस्था को कुछ संभाला जा सकता है। दुर्भाग्य से यह बजट अर्थव्यवस्था को न तो मांग बढ़ाने की ओर ले जा पाएगा, और न ही निवेश बढ़ाने की तऱफ। नतीजा यह है कि अगले साल तक अर्थव्यवस्था नई नीचाइयों को छूने के लिए अभिशप्त होगी।