भावनाओं को भड़काने का खेल

भावनाओं को लेकर आम तौर पर किसी भी व्यक्ति की सोच दो प्रकार की होती है, एक तो वह जो किसी के कुछ भी कहने पर ध्यान देने या मानने से पहले उसे तर्क की कसौटी पर कसते हैं और फिर कोई निर्णय लेते हैं, और दूसरे वे जो किसी की कही बात को तुरंत मान लेते हैं और यही नहीं उसके कहे अनुसार आचरण भी करने लगते हैं।इस श्रेणी के लोग अक्सर जल्दबाजी में  गलत फैसले कर लेते हैं और एक तरह से उस व्यक्ति की बातों में आ जाते हैं जो उनसे अपने मन मुताबिक काम कराना चाहता है।
भावनाओं को ठेस पहुंचना
अनेक बार ऐसा होता है कि हम किसी बात को भूल नहीं पाते चाहे कितना भी समय बीत चुका हो और वह सब कुछ फौरन याद आ जाता है जिससे उस वक्त ठेस पहुंची थी जब वह बात कही गई थी, उसका ध्यान आते ही उसी प्रकार अपने को आहत महसूस करने लगते हैं जैसे तब किया था जब वह बात हुई थी।इसके विपरीत कुछ लोग जीवन में घटी अनेक घटनाओं या किसी की, कभी भी, कहीं कोई भी बात दिमाग में  रखकर भूल जाते हैं । यही नहीं, उस बात को याद करने की ज़रूरत पड़ने पर भी भुलाए रखना ही बेहतर समझते हैं और यह मानने में ही भलाई समझते है  कि जो बीत गया वह लौटकर तो आ नहीं सकता और आज उसका महत्व भी नहीं है तो फिर पुरानी बातों को कुरेदकर अपना आज क्यों खराब किया जाय। ऐसी सोच रखने वाले स्वयं तो खुश रहते ही हैं, साथ में दूसरों से कुछ भी अपेक्षा न रखने के कारण उन्हें भी खुश रहने का मौका देते हैं क्योंकि अक्सर पुरानी बातों को याद कर ऐसे निर्णय हो जाते हैं जिनसे अपने आज में तो उथल-पुथल हो ही जाती है और जिसने वह बात कही या की थी उसकी मानसिक स्थिति  बिगाड़ने का काम भी कर देते हैं।  कुछ लोग, विशेषकर, राजनीति की दुनिया में रहने वाले समाज में अपना सिक्का जमाए रखने के लिए लोगों की भावनाओं को भड़काने, उन्हें पुरानी बातों को याद दिलाने और जिन बातों का आज कोई अर्थ ही नहीं, उन्हें दोहराकर ऐसा वातावरण बनाने में कामयाब हो जाते हैं जो उनके तो फायदे का होता है लेकिन समाज में उसके कारण समाज में तनाव पैदा हो सकता है। ये लोग इतने शातिर होते हैं कि किसी को सोचने का मौका ही नहीं मिलता और कोई न कोई ऐसा कांड हो जाता है जो न व्यक्ति के हित में होता है और न ही समाज के बल्कि अव्यवस्था फैलने से किसी का स्वार्थ पूरा होने का साधन बन कर उसके हाथ की कठपुतली बनना तय हो जाता है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
यह सोच ही अपने आप में कितनी बचकानी लगती है कि हम लिखने, बोलने की आज़ादी के नाम पर वह सब कुछ सहने को विवश हो जाते हैं जो गलत है, अपमानजनक है और परिवार हो या समाज, बिखराव को जन्म देता है और कभी-कभी तो उसके भयावह परिणाम निकलना तय होता है। संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की आज़ादी का जितना दुरुपयोग हमारे देश में होता है उसकी मिसाल शायद ही दुनिया में कहीं और मिले। यह कैसी विडम्बना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर हमारा कानून मौन है लेकिन उसके कारण समाज में यदि अव्यवस्था फैलती हैं तो लॉ एंड ऑर्डर का विषय बन जाता है।
क्या होना चाहिए
सबसे पहले तो एक व्यक्ति के तौर पर अपनी भावनाओं पर काबू रखकर तुरंत कोई कदम उठाने से पहले अच्छी तरह किसी भी बयान, कथन या घटना के बारे में सोच-विचार कर लेना चाहिए कि अनजाने में कोई हमारा फायदा तो नहीं उठा रहा और हम जो करने जा रहे हैं उसका आगे चलकर क्या नतीजा निकल सकता है। जहां तक सरकार का संबंध है, उसे इस बात की पहल करनी ही होगी कि कोई ऐसा कानून बनाया जाय जिससे संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई गलत लाभ न ले सके। इसके लिए अगर हमारे मूलभूल अधिकारों पर भी नए सिरे से विचार करना पड़े तो भी कोई हर्ज नहीं है।

(भारत)