धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा

मिर्ज़ा गालिब ने शायद आज की परिस्थितियों का आंकलन पहले से ही कर लिया था। आज हम दोहरे मापदंडों की बैसाखी पर दौड़ रहे हैं । हमने सरलता की सीढ़ियों पर चढ़ना छोड़ दिया है और घमंड की बदमिज़ाजियों को अपनाने लगे हैं । शायद इसीलिए मिर्ज़ा गालिब कह गये -‘ग़ालिब ताउम्र यह भूल करता रहा
धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा ।’
लेकिन आज इस सच्चाई की नदी में उतरने वाले विरले ही रह गये हैं । सब अपने चेहरे की धूल या क़ालिख को छिपाने के लिए मुखौटे चढ़ाने की सुविधापूर्वक विधि को अपनाने लगे हैं । कोरोना महामारी के इस काल ने चीज़ेें और भी आसान कर दी हैं । मास्क लगाकर घूमते हुए हम अपने चेहरे की भंगिमाओं को छिपाने लगे हैं । भूल सुधार का सोचना भी आज पाप माना जाता है । आईना यानी दर्पण का आभास कांच के टुकड़े मात्र तक ही निहित नहीं है । इसका विस्तार अपार है, इसकी सीमा अनन्त है। हमारा यह मन भी दर्पण कहलाता है । लेकिन आज मनों में मैल इस कदर भर चुकी है कि दर्पण भी लजाने लगा है । आज आपसी रिश्ते उतने सरल नहीं रहे, जो कभी हुआ करते थे ।  आज समय जटिल, रहस्यमय और चुनौती-पूर्ण होता जा रहा है । थोड़ी सी सफलता आदमी के लिए गर्व का विषय न होकर घमंड का कारण बन रही है । लेकिन सच की गंगा में कोई डुबकी नहीं लगाना चाहता। शायद गटर संस्कृति हमें अच्छी लगने लगी हैं । इसीलिए हम भारत और इंडिया की दो धाराओं के बीच जीने लगे हैं। आईने से धूल हटाने का काम सुविधाजनक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हम अपने असली चेहरे से रू-ब-रू नहीं होना चाहते । हाथी के दाँतों की तरह कथनी और करनी के दो तरह के दाँतों के हम मालिक हैं । अपनी मज़र्ी और परिस्थितियों के अनुरूप दर्पण लिए घूम रहे हैं । सिद्धांतों की बड़ी-बड़ी बातें हम शिक्षा की किताबों में पढ़ते हैं, लेकिन व्यवहार में पाखंड और भ्रष्टाचार की गुलामी करने लगे हैं । एक ़गरीब आदमी को चाहे दो समय का खाना भी नसीब न हो, लेकिन हमारे जन-प्रतिनिधि तीन-तीन जगहों से पेंशन प्राप्त करने का हक रखते हैं । जन से ज्यादा उनका निधि से प्यार है । चुनाव की एक जीत का सिक्का बार-बार भुनाया जाता है । इनका खोटा सिक्का भी बाज़ार में सोने के भाव बिकता है । पैसे की आज महिमा अपरम्पार है । शायद इसीलिए किसी कवि ने कहा है -
‘ हो गया बाज़ार कैसा
 सत्ता के बीमार जैसा !
 बिक रहा ईमान यारो
 पा रहा सत्कार पैसा !’
आज विज्ञापन-युग है और विज्ञापन ही झूठ बोलने लगे हैं । इनके दम पर कौड़ियों का माल अशर्फियों के दाम बेच दिया जाता है । लेकिन लाचारी का आलम यह है कि परिस्थितियां चाहे कितनी ही जटिल बन गई हों, सबके मुख पर चुप्पी का ताला लटक रहा है ।     
विचारों में जमकर मिलावट हो रही है जैसे खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट होती है । बेईमानी का इतिहास रचना हम सीख चुके हैं । तभी तो चुनाव के समय राजनीतिक पार्टियों द्वारा आश्वासनों के पहाड़ खड़े कर दिए जाते हैं और सत्ता पाने के बाद उन पर चढ़ने के सभी रास्ते बन्द कर दिए जाते हैं । आज व्यवसायी, शिक्षक, साहित्यकार, जज, अधिकारी तक आपत्ति-जनक आचरण की नुमाइश में जुटे हुए लग रहे हैं । पैंतरेबाज़ियों द्वारा स्वार्थ-सिद्धि करना हमारे प्रतिदिन के जीवन का एक हिस्सा बन चुका है । कहीं दूल्हा बिकता है और कहीं ईमान की खरीद-फरोख्त होती है । जो चेहरा हमें बाहर से जैसा दिखाई देता है, वह अन्दर से कुछ और ही निकलता है । मिस्टर क्लीन कितना अनक्लीन निकलेगा, कहना मुमकिन नहीं होता । असली और नकली में भेद करना वास्तव में ही टेढ़ी खीर के समान हो गया है । शायद इसी बात को क़तील साहब ने यूँ फरमाया है -‘ अब आईनों को नहीं ऐतबार चेहरों पर !’       


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